जया केतकी का आलेख- शिक्षकःसिद्धान्त है . . . . .

(शिक्षक दिवस पर विशेष)


‘‘एक शिक्षक शिक्षा देता है, पढाता है। एक अच्छा शिक्षक समझाता भी है। एक श्रेष्ठ शिक्षक विस्तार पूर्वक व्याख्या करता है। किंतु एक महान शिक्षक वही है जो सतत सीखता है और सदैव सीखने की ओर प्रेरित करता है।’’

गुरुर ब्रह्मा, गुरुर विष्णु गुरुदैवो महेश्वरः।
गुरु-साक्षात-परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः।।

आषाढ मास की पूर्णिमा का विशेष महात्व होता है। इस दिन को गुरु पूर्णिमा के रुप में मनाया जाता है। गुरु-पूर्णिमा के दिन शिष्य अपने गुरु का सम्मान करते है। आदिकाल से यह परम्परा चली आ रही है। कि शिष्य अपने गुरु का सम्मान करें, उनकी आज्ञा का पालन करें।
गुरु की आवश्यकता -
गुरु शब्द का अर्थ है- अंधकार को दूर करना। गुरु (शिक्षक) अपने शिष्य के जीवन का माया-मोह रुपी अंधकार क दूर करने में सहायता करते हैं।
गुरु-गोविंद-दोऊ खडे काकेलागू पाय
बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताय

गुरु के बारे में यह मान्यता है कि जब गुरु और ईश्वर दोनों आमने-सामने होते हैं। तो ईश्वर भी पहले गुरु की आराधना करने को कहता है। ईश्वर से भी पहले गुरु का स्थान होता है। गुरु ही ब्रम्हा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही शिव है। गुरु की महिमा का जितना भी बखान किया जाए कम है। प्राचीन काल में गुरु, ब्राहम्णों को ही शिक्षा देने का अधिकार था। समय के साथ सभी मूल्यों में परिवर्तन आने लगा और सभी जाति के लोगों ने शिक्षण का कार्य आरंभ कर दिया है जो भी व्यक्ति योग्य है उसे शिक्षा देने और-समाज को शिक्षित बनाने का अधिकार है।
गुरु को ईश्वर के समान ही पूजा जाता है गुरु-पूर्णिमा के दिन गुरु का सम्मान करके शिष्य अपने प्यार और सम्मान को दर्शाते है। गुरु के द्वारा दिया गया ज्ञान अनमोल होता है। शिष्य उसका मूल्य नहीं चुका सकता है। अतः गुरु दक्षिणा देकर वह उस ऋण के एक अंश मात्र को ही चुका पाता है। गुरु बनना आसान नहीं है किसी भी व्यक्ति को गुरु बनकर अपने पद की गरिमा को बनाना होता है।

गुरु-शिष्य के रिश्तों का अवमूल्यन

आदिकाल म गुरु की महिमा ईश्वर से भी श्रेयस्कर रही। गुरु का स्वरुप उसके शिष्य के लिए ईश्वर-पालक, माता-पिता, सभी से बढकर होता था। गुरु भी अपने शिष्य को वही सब देने का प्रयास करता जो उसे एक पिता के रुप म एक माता के रुप में एक शिक्षक के रुप में दिया जाना चाहिए था। शिष्य गुरु के निवास स्थान पर जाकर इस प्रकार रहते थे जैसे एक पुत्र अपने अभिभावक के साथ रहता है। वे अपने गुरु के घर उन सभी कार्यो को करते थे जो जीवन यापन के लिए आवश्यक होता। जैसे जंगल से लकडी लाना, जल भरना, भोजन बनाना, घर की साफ-सफाई करना और गुरु की सेवा करना। इसके साथ ही वे गुरु के द्वारा दिया गया ज्ञान ग्रहण करते। उस समय में गुरु का शिष्य के प्रति सेवा-भावना और दोनों ही अद्वुत थे।
आज के समय में गुरु का स्वरुप मात्र शिक्षक के रुप में रह गया है। आधुनिकता की चादर तले विद्या और ज्ञान का स्थान शिक्षा ने ले लिया है। यह शिक्षा जो व्यक्ति को समाज से जोडने और जीविका का साधन जुटाने में सहायक हो। शिक्षा के इस प्रति दिन अपडेट होते परिवेश ने शिष्य और शिक्षक के संबधों की गरिमा को काफी पीछे छोड दिया हैं। आज का विद्यार्थी अपने शिक्षक को जिसे व्यक्ति उपयोग के बाद बंद करके रख देता हैं। शिक्षक और शिष्य के बीच पिता-पुत्र या गुरु का संबंध न होकर थोथी मित्रता और बराबरी का संबंध-दिखाई देता है। जहां एक ओर-शिक्षक के कंधे पर हाथ रखकर चलते नजर आते है। वही कुछ शिक्षक ऐसे भी है जो अपने विद्य्नार्थीयों के साथ बैठकर सिगरेट और-अन्य पदार्थो का सेवन करते है। इन्ही व्यावसायिक शिक्षको के कारण गुरु की गरिमा आज घटती जा रही है। बुल मिलाकर समय की तेजी के साथ गुरु व शिष्यों के बीच दूसरी बातो का तेजी से अवमूल्यपन होता जा रहा है। जैसे-जैसे शिक्षा के स्वरुप व्यावसायिक होता जा रहा है वैसे-बैसे दोनों के बीच की दूरियां घट कर न के बराबर होती जा रही है। क्या हमारा समाज इसके लिए जिम्मेदार है या हमारी शिक्षा प्रणाली ?

१९६२ में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन हमारे देश के द्वितीय राष्ट्रपति चुने गये। ५ सितंबर को उनका ७४ वां जन्म दिन मनाया गया। जब उनके मित्रों और शिष्यों ने उनसे, उनका जन्म दिन धूमधाम से मानने की अनुमति मांगी तो उन्होंने कहा, ‘‘मुझे खुशी होगी यदि आप लोग मेरा जन्म दिन मनाने के बदले ५ सितंबर को शिक्षक दिवस के रुप में मनाएं।’’

५ सितंबर १९६२ को पहली बार शिक्षक दिवस मनाया गया। इस परंपरा को आगे बढाते हुए सभी शिक्षण संस्थाओं में इस दिन शिक्षकों का सम्मान किया जाता है। विद्यार्थी अपने शिक्षकों के प्रति सम्मान और स्नेह प्रदर्शित करने के लिए सांस्कृति कार्य क्रम भी प्रस्तुत करते है। डॉ. राधाकृष्णन स्वयं एक शिक्षक थ। उन्होने २१ वर्ष की आयु में १९०९ में मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज में व्याख्याता के सम्मान जनक पद से अपना शिक्षण कार्य आरंभ किया। डॉ. राधाकृष्णन एक होनहार बालक थे। ओर उन्होने अपनी शिक्षा विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। उन्होंने अपनी अधिकतम शिक्षा छात्रवृति लेकर पूरी की।

डॉ. राधाकृष्णन एवं डॉ. जाकिर हुसैन
ए.एम.यू. के विद्यार्थियों के साथ
डॉ. राधाकृष्णन दर्शनशास्त्र में रुचि रखते थे। उन्होनें विश्व के सभी बडे दार्शनिकों के लेखों और विचारों का गहन अध्ययन किया उन्होनें दर्शनशास्त्र पर अनेक पुस्तकें लिखी। उनकी इंडियन फि लासफी नामक पुस्तक एक उत्कृष्ट कृति है। उन्होंने भारत के अनेक कॉलेजों में अपने ज्ञान के माध्यम से योगदान दिया। १९३१ में वे आंध्रप्रदेश यूनीवर्सिटी के उप कुलपति के रुप में चुने गये। अपने ५ वर्षो के कार्यकाल में उन्होनें आन्ध्रप्रदेश यूनीवर्सिटी को उत्कृष्ठ विश्वविद्यालय का स्वरुप दिया।

डॉ. राधाकृष्णन पं. मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय के उप कुलपति पद पर भी रहे। उन्होने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय को अपनी सेवाएं प्रदान की। भारत द्वारा अंग्रेजों से १५ अगस्त १९४७ को आजादी हासिल करने के बाद डॉ. राधाकृष्णन ने भारतीय शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए अनेक प्रयास किए वह १९५२ में भारत के प्रथम उप राष्ट्रपति चुने गये। वह एक कुशल वक्ता भी थे। उनके बारे में नेहरु जी ने कहा डॉ. राधाकृष्णन जिस प्रकार से इन बैठकों और सभाओं का संचालन करते है, कि सारा वातावरण पारिवारिक हो जाता है।
डॉ. राधा कृष्णन एक अच्छे इन्सान भी थे। उन्हें गरीबों से बेहद हम दर्दी थी। उन्होने प्रारंभिक शिक्षा को अनिवार्य और निशुल्क बनाने के लिए प्रयास किये थें। दस वर्षो तक उन्होने उप राष्ट्रपति के रुप में देश की सेवा की इसके बाद १९६२ में वे राष्ट्रपति बनाए गए। वह विद्धान तो थे ही, महान भी थे। १९६४ में नहेरु जी का देहान्त हो गया ओर श्री लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बनाए गए।

डॉ. राधाकृष्ण ने सभी राजनीतिक कर्णधारों को निःस्वार्थ भाव से मार्गदर्शन दिया। उन्होने १५ वर्षो तक देश की लगातार सेवा के बाद तक देश की लगातार सेवा के बाद १९६७ में आगे कार्य करने से इन्कार किया और ७९ वर्ष की आयु में अपने पेत्रिक गांव लौट गए। १७ अप्रैल १९७५ को यह अनमोल चिराग सदा के लिए लौ-हीन हो गया।
शिक्षक दिवस के रुप में डॉ. राधाकृष्णन एक देश सेवक शिक्षाविद और मानवीय धारणाओं के प्रति स्थापक के रुप में सदैव अमर रहगे।
स्टेलिन,१९५२(सोवियत संघ) ने कहा,
‘‘तुमने मुझे एक मानव समझकर व्यवहार किया, तुम्हारे जाने का मुझे दुखः है । तुमने भारत और सोवियत संघ के संबंधों को मजबूत और मधुर बनाया। मेरे जीवन के अब कुछ ही दिन शेष है। परन्तु मैं चाहता ह, तुम सौ वर्ष जियो।’’

-जया केतकी



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10 Responses to जया केतकी का आलेख- शिक्षकःसिद्धान्त है . . . . .

  1. शिक्षक दिवस पर अत्यंत जानकारीपूर्ण आलेख के साथ डॉ. राधाक्रिष्णन की तसवीर और उत्तम सजावट ...
    आखर कलश को भी अभिनन्दन

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  2. जया का लेख, जानकारी भरा है. लोगों को अपना दायित्व याद रहे, इसके लिये ऐसे लेख आवश्यक होटल हैं.

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  3. बहुत अच्छी प्रस्तुति।

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  4. ....बहुत सार्थक प्रस्तुति
    शिक्षक दिवस की बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ

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  5. शिक्षक दिवस पर यह आलेख प्रेरणा प्रदान करने वाला है.बधाई.

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  6. उम्दा आलेख दिवस विशेष पर.

    शिक्षक दिवस पर हार्दिक अभिनन्दन.

    सादर

    समीर लाल

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  7. शिक्षक दिवस पर सुन्दर जानकारीपूर्ण आलेख.
    डॉ. एस. राधा कृष्णन जी को नमन है.

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  8. आलेख सुंदर है। पर वर्तनी और प्रूफ की इतनी सारी गलतियां हैं कि पढ़ते -पढ़ते मन खट्टा हो जाता है। मुझे लगता है कि आखर कलश को इस संदर्भ में एक स्‍तर तो बनाना ही चाहिए। भले ही ब्‍लाग पर कम सामग्री आए, पर वह ऐसी हो कि उसे पढ़ने का मन करे। मत भूलिए कि आप भाषा और उसके उचित स्‍वरूप के वाहक भी हैं।
    मुझे पता है कि इसमें से कुछ कारण तकनीकी भी होंगे,पर आखिर उनका कुछ समाधान भी होगा। मॉडरेशन की सुविधा भी है। तो टिप्‍पणियों में भी जा रही अशुद्धियों को सही किया जा सकता है। उदाहरण के लिए सुभाष जी की टिप्‍पणी में होते हैं कि जगह होटल शब्‍द चला गया है। वह पढ़ने पर अजीब सी स्‍िथति पैदा करता है।

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  9. आदरणीय राजेश उत्साही जी, प्रणाम ! बहुत ख़ुशी हुई कि आपने इतनी बारीकी से अध्ययन कर त्रुटियों की और हमारा ध्यान आकर्षित कराया. आपकी बात अक्षरशः सही है..कारण कुछ भी रहे हों, पर त्रुटियाँ रही, मैं सहर्ष स्वीकार करता हूँ और आपका आभार व्यक्त करता हूँ कि आपने भाषा और उसके स्वरुप के प्रति हमारी जिम्मेदारी का आभास कराया. भविष्य में ऐसी गलतियाँ ना रहे, इसका मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ. अगर कुछ कमियाँ फिर भी लगे तो आपसे निवेदन करना चाहूँगा कि अपने अनुभवों और मार्गदर्शन से हमे सही राह दिखाते रहिएगा. सादर नमन !

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