नाम- डॉ. विजय कुमार सुखवानी
जन्म तिथि- ०१ अक्टूबर १९६९
जन्म स्थान- ग्वालियर म.प्र.
शिक्षा- आई आई टी मुम्बई से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में पीएचडी
भाषा ज्ञान- हिंदी अंग्रेजी उर्दू सिंधी
सम्प्रति- रीडर मैकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग शासकीय इंजीनियरिंग कालेज उज्जैन म.प्र.
रचना कार्य– प्रमुख पत्र पत्रिकाओं व सभी महत्वपूर्ण वेब पत्रिकाओं में रचनाओं का निरंतर प्रकाशन
एक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशाधीन
रुचियाँ- हिंदी सिनेमा में गहरी रूचि विशेषकर हिंदी फिल्मी गीतों का गहन अध्यन
ईमेल- v_sukhwani@rediffmail.com
मोबाइल- 9424878696
१.
किस के दिल में क्या है सब जानती है
औरत हर निगाह का मतलब जानती है
कुछ राज इंसां छुपा लेता है सुबह से
हर राज इंसां का मगर शब जानती है
वक्त आने पर हर एक पर आती है
मौत न कौम न मजहब जानती है
आज कल बच्चे मुझसे कुछ नहीं मांगते
मेरी हैसियत को उनकी तलब जानती है
कुछ हुनर हर एक को हासिल नहीं होते
मां ही बच्चे के रोने का सबब जानती है
इतना तो दिया है मेरे उसूलों ने मुझे
कि ये दुनिया मुझे बाअदब जानती है
***
२.
बुरे जायेंगे और भले जायेंगे
इक रोज सब चले जायेंगे
न मिलेगी निजात फक्रेजहां से
न जंदगी से मसअले जायेंगे
जिस जिस के मुंह में जुबां है
सुना है सबके गले जायेंगे
जरा हाथ बढा कर तो देखो
पल में मिट फासले जायेंगे
न होंगे गर मयखाने तो कहां
सारे शहर के दिलजले जायेंगे
इंसां या परिंदे कितना भी उड
घर जरूर दिन ढले जायेंगे
***
३.
गर इंसां की इतनी ख्वाहिशें नहीं होतीं
इस दुनिया में इतनी साजिशें नहीं होतीं
उनके नसीब में कभी मंजिलें नहीं होतीं
जिन की फतरत में कोशिशें नहीं होतीं
कुछ सबक सिर्फ जिंदगी से मिलते हैं
किताबों में सारी समझाइशें नहीं होतीं
हर करनी का वहां देना होगा हिसाब
दरबार में उसके सिफारिशें नहीं होतीं
गर न चाहो तुम तो धूप नहीं निकलती
गर न चाहो तुम तो बारिशें नहीं होतीं
खूबसूरत ग़ज़लें और दिलकश नग्में
अब इन चीजों की फरमाइशें नहीं होतीं
***
४.
इस तरह से इबादत-ए-खुदा करता हूं
मैं दुश्मन के वास्ते भी दुआ करता हूं
हर रोज़ मुझे पुराना करती ह जिंदगी
हर रोज़ मैं जिंदगी को नया करता हूं
मेरे गुनाहों की सजा मुझे मिले तो कैसे
मैं ही मुज़रिम मैं ही फैसला करता हूं
जब जब मुकम्मल होती है कोई सजा मेरी
मैं हर बार कोई नई खता करता हूं
आज कल मिलते हैं हम कुछ इस तरह से
वो रस्म अदा करते हैं मैं फर्ज अदा करता हूं
इतनी मोहब्बत से बुला रही है मौत मुझे
जा जिंदगी आज मैं तुझे रिहा करता हूं
***
विजय जी नए अंदाज से अपनी बात कह रहे हैं। बधाई।
ReplyDeleteविजय जी को पढने का पहला मौका आपने ही दिया है...शुक्रिया...उनकी ग़ज़लें बहुत खूबसूरत हैं, हर शेर तराशा हुआ है...मेरी दिली दाद उनतक पहुंचा दीजियेगा..और आने वाले समय में उनकी और भी ग़ज़लें पढ़वाईयेगा
ReplyDeleteनीरज
कुछ हुनर हर एक को हासिल नहीं होते,
ReplyDeleteमां ही बच्चे के रोने का सबब जानती है।
बहुत अच्छा लिखा है आपने, बधाई।
विजयकुमार की गज़लें बहुत उम्दा है दिल को छुने वाली है
ReplyDeleteभगीरथ
विजय जी,
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत गज़लें हैं ...
कुछ सबक सिर्फ जिंदगी से मिलते हैं
किताबों में सारी समझाइशें नहीं होतीं
सच ही कहा है आप ने...!!!
Sir ji aapne to 100 % Efficiency wali baat bol di!!!!!!!!!!!!!
ReplyDeleteगर इंसां की इतनी ख्वाहिशें नहीं होतीं
इस दुनिया में इतनी साजिशें नहीं होतीं
Vijay kee ye rachanaayen nishchay hee ek sambhavanaasheel kavi kaa pataa detee hain.
ReplyDeleteविजय जी की अच्छी ग़ज़लें पढवाने के लिए आखर कलश परिवार को बधाई.
ReplyDeleteडॉ. विजयकुमार, आपकी रचनाएँ भावपूर्ण है... धन्यवाद
ReplyDeletesir......you are the best Design prof that every one knows but at here you shows that you are poet also........
ReplyDeletei like it sir veary down to earth simply g8t
ReplyDeleteविजय जी की ग़ज़लें पढवाने के लिए शुक्रिया!
ReplyDeleteभाव, अनुभव की गहराई, फलसफा सब कुछ है.
Vijay ji
ReplyDeleteaapki ghazals padhkar bahut hi accha laga aur isliye bhi ki hamare Sindhi parivaar mein kuch aur isaafa hua hai. shubhkamnaon ke saath
विचार,भाव या सोच के स्तर पर डा.विजय कुमार की ग़ज़लें सराहनीय हैं मगर विजय जी को बहर/छंद पर गहराई से विचार करना चाहिए.
ReplyDeleteग़ज़ल लेखन के क्षेत्र में कामयाब होने के लिए भाई विजय कुमार जी को आलम खुर्शीद साहब की बात को संदीजगी से लेना होगा
ReplyDeleteनीरज