रचनाकार परिचय
नाम- फ़ज़ल इमाम मल्लिक
जन्म- 19 जून, 1964 को बिहार के शेखपुरा जिला के चेवारा में।कभी-कभी ही कोई तारीख़
बन जाती है इतिहास
और याद रह जाती है सालों तक
ठीक 9/11 की तरह
हालांकि उस दिन न सरकारें बदलीं
न कहीं बगावत हुई
न ही ऐसा कुछ घटा
जिससे दहल जाती दुनिया
लेकिन फिर भी सत्ताइस जून की तारीख़
एक इतिहास की तरह गड़ गई
अमेरिका के सीने में
जिसे अमेरिका चाह कर भी
इतिहास के पन्नों से अलग नहीं कर पाएगा
एक तारीख़ फिर बनी इतिहास
और सुपर पावर के सीने पर
छोड़ गई अपनी धमक
यह भी इतिहास है कि
पहले मैदानों पर लड़ी जाती थी लड़ाइयां
लेकिन अब ऐसा नहीं होता
जंग अब थोपी जाती है छोटे देशों पर
और सुपरपावर बन कर दुनिया को धमकाने के लिए
दी जाती है जंग की धमकी
जंग अब मैदानों पर नहीं
जंग व्हाइट हाउस से लड़ी जाती है
और छोटे देशों पर
दागे जाते हैं मिसाइल
अपनी दादागिरी के लिए
भेजे जाते हैं बेड़े
और विमानों से गिराए जाते हैं बम
मैदानों का सारा गणित बदल गया है
और भूमिका भी
मैदानों पर अब खेले जाते हैं खेल
जहां हथियारों के बिना होते हैं
बराबर के मुकाबले
मजबूत और कमज़ोर खिलाड़ियों को मिलते हैं
जीतने के लिए बराबर के मौक़े
मैदानों पर न गोलियां चलती हैं
न मिसाइल का होता है डर
न होते हैं टैंक
और न ही तनी होती हैं बंदूक़ों की नलियां
लेकिन फिर भी लड़ी जाती है जंग
कला से, कौशल से, ताक़त से और रणनीति से
खेल के मैदान पर कोई ‘मित्र देश’
किसी की मदद को नहीं आता
बस दो ही टीमें होती हैं आमने-सामने
सुपर पावर अमेरिका हो या फिर छोटा सा देश घाना
अपने-अपने कला-कौशल से
जीत के लिए उतरते हैं मैदानों पर
किसी बाहरी ताक़त की मदद के बिना
इसलिए खेल के मैदानों पर
कभी-कभी बनता है इतिहास
और कोई-कोई तारीख़
बन जाती हैं इतिहास
दक्षिण अफ्रीका के स्टेनबर्ग स्टेडियम पर
विश्व कप फुटबाल में
सत्ताइस जून को घाना ने रचा इतिहास
सुपर पावर अमेरिका को फतह कर
उसने दिखाई थी अपनी ताक़त
फुटबाल के मैदान पर
न मिसाइलें चलीं
न राकेट दागे गए
न आसामानों पर दनदनाते रहे अमेरिकी वायुसेना के विमान
बस था तो फुटबाल का जनून और
कुछ कर गुजरने की ललक
जिसने रातोंरात घाना को
दुनिया के नक्शे पर ला खड़ा किया
आरपार के इस मुक़ाबले में
काले-कलूटे खिलाड़ियों ने
अपने से कहीं ताक़तवर मुल्क को
हर तरह से टक्कर दी
और अतिरिक्त समय में खिंचे इस मैच में
तेज़ तर्रार स्ट्राइकर असामोह ग्यान ने
मध्य पंक्ति से उछाली गेंद को
अमेरिकी हाफÞ में अपनी छाती पर उतारा था
और फिर बाएं फ्लैंक से तेज़ फर्राटा लगाता हुआ
अमेरिकी डिफेंस को छकाते हुए
बाक्स के ठीक ऊपर से
बाएं पांव से दनदनाता शाट लगा कर गोल भेद दिया था
अमेरिकी गोलची कुछ समझता
गेंद इससे पहले ही जाल के बाएं कोने में उलझी नाच रही थी
और घाना इस गोल का जश्न मना रहा था
हताश, मायूस अमेरिकी
जाल में तैरती गेंद को
बस देख भर रहे थे
इस एक गोल से घाना इतिहास का हिस्सा बन गया था
और अमेरिका हार कर
मुक़ाबले से बाहर हो गया था
आमने-सामने और बराबरी की लड़ाई में
व्यक्ति हो या देश
सुपर पावर की आंखों में आंखें डाल कर
उसकी बाहें मरोड़ कर
उसे मुक़बाले से बाहर कर देता है
जैसा उस दिन घाना ने किया था
कभी-कभी ही कोई तारीख़
बन जाती है इतिहास
और याद रह जाती है
सालों तक
***
फ़ज़ल इमाम मल्लिक
4-बी, फ्रेंड्स अपार्टमेंट्स, पटपड़गंज,
दिल्ली-110092।
एक खेल तारीख जो अमेरिका को खली
ReplyDeleteदूसरी खेल तारीख घाना ने खलाई
दोनों जगह अमेरिका ही हारा भाई।
एक विचारोत्तेजक कविता ! फ़ज़ल साहिब आपने ठीक फरमाया, अब जंग के समीकरण बदल गए हैं।
ReplyDeletegood work by aakhar kalash towards hindi sewa mission
ReplyDeleteकविता समय चक्र के तेज़ घूमते पहिए का चित्रण है। कविता की पंक्तियां बेहद सारगर्भित हैं।
ReplyDeleteफ़जल भाई, आपकी कविता स्पष्ट विचार लिये हुए है और बधाई के काबिल है लेकिन एक बात जो मुझे खटक रही है वह है इसकी लंबाई। यूँ तो कविता की कोई निश्चित लंबाई निर्धारित नहीं है लेकिन अब समय आ गया है फ़ास्ट फ़ूड का और कविता भी दिमाग़ के लिये भोजन का ही एक रूप है इसलिये अब अपेक्षा रहती है कि कविता आये, सीमित शब्दों में अपनी बात कहे और आनंद लेने या सोचने के लिये छोड़ जाये।
ReplyDeleteप्रिय भाई फजल, धूमिल ने कभी कहा था कि कविता एक सार्थक बयान है लेकिन बाद में आलोचकों ने उनके बयान को खारिज कर दिया. आप का यह सार्थक बयान पढ़कर अच्छा लगा लेकिन इसे कविता कहने में थोडा संकोच होता है. यह कविता हो न हो लेकिन आजकल सार्थक बयान भी तो बहुत कम दिखते हैं. सचाई बयान करने के लिये बधाई.
ReplyDeletewah, kya baat hai .
ReplyDeleteआवश्यकता अनुसार कविता लम्बी भी हो सकती है लेकिन यहाँ कविता की लम्बाई इसके मूल भाव की वाहवाही लूटे जा रही है.
ReplyDeleteimam sahb apne apni baat ko kavita ke sanche jis khubsurt andaz me paish ki h us ke liye mubarakbad
ReplyDeleteबेहतर...
ReplyDeleteमल्लिक साहब, आपकी सोच आपके शब्दों से मुखरित हुई है, आपकी कविता में वक्त की सच्चाई बेपर्दा है, शतरंज के मोहरों के समान बने छोटे देश बडे खिलाडियों के हाथों में खेलने को विवश हैं, बन्दरों के झगडे में बिल्लियों ने सदा ही रोटी खाई है,अविश्वास के कुए में धंसे तीसरी दुनिया के बासिन्दे हक्केबक्के हैं, उनका ना कोई तारनहार है और ना ही दूर तक साहिल नजर आता है, आपकी कविता की रोशनी में किसी को रास्ता मिलेगा यही आशा है, एक बार पुन बधाई ऐसी बेहतरीन रचना के लिए
ReplyDeleteअमेरिकी गोलची कुछ समझता
ReplyDeleteगेंद इससे पहले ही जाल के बाएं कोने में उलझी नाच रही थी
और घाना इस गोल का जश्न मना रहा था
यह खेल अभूतपूर्व था जो सालों साल याद किया जाता रहेगा ......साथ ही इस पर लिखी इस तरह की कवितायेँ भी इतिहास का एक हिस्सा होंगीं ......
फ़जल इमाम जी बधाई .....!!
अमेरिकी गोलची कुछ समझता
ReplyDeleteगेंद इससे पहले ही जाल के बाएं कोने में उलझी नाच रही थी
और घाना इस गोल का जश्न मना रहा था
यह खेल अभूतपूर्व था जो सालों साल याद किया जाता रहेगा ......साथ ही इस पर लिखी इस तरह की कवितायेँ भी इतिहास का एक हिस्सा होंगीं ......
फ़जल इमाम जी बधाई .....!!
Rachana behad sashakt hai,par haan,lambai zara-si adhik lagi. Yah bhi sach ki,taareekh aur itihaas kaa aisa warnan kabhi nahi padha!
ReplyDeleteफ़जल भाई आपकी लघुकथाएं एक जमाने में खूब पढ़ीं हैं। यह कविता सचमुच वर्तमान का एक बयान है। सच तो यह है कि बयान पढ़ने और सुनने के लिए धीरज चाहिए होता है। अगर हमारे पास धीरज नहीं होगा तो हम इस बयान को आत्मसात ही नहीं कर सकेंगे। बधाई। और सुनील जी का इस कविता से रूबरू कराने के लिए।
ReplyDeleteफ़ज़ल साहब समय की रफ़्तार से वाकिफ़ है ... बहुत सामयिक लिखा है ....
ReplyDeleteपर जहाँ ९/११ एक तारीख है वहीं २६/११ बस दर्द का इतिहास
मित्रों,
ReplyDeleteकविता पर आप लोगों की टिप्पणी पढ़ कर अच्छा लगा। कोशिश भर थी अपनी बात को सामने रखने की। मैं नहीं जानता यह कविता है यह नहीं, यह काम आलोचकों का है। मेरा काम लेखन है। बस यह समझ कर कि ‘शायद कि उतर आए तेरे दिल में मेरी बात’ कुछ लिखता हूं। बस।
हालांकि लंबी कविताएं नहीं लिखता हूं। लेकिन यह कविता लंबाई की मांग करती थी, इसलिए कविता लंबी हो गई। तमाम मित्रों का आभार, जिन्होंने टिप्पणी की। उनका भी आभार जिन्होंने कविता पढ़ी।
यार फजल! विषय तो काफी गंभीर है और तुम ने अपनी बात ढंग से कही भी है जो सोचने पर उकसाती है. मगर तुम्हें इस बात का खुद अहसास है कि लम्बाई कुछ ज़ियादा हो गई है इस लिए मैं कुछ नहीं कहूँगा. हाँ इतना ज़रूर कहूँगा कि तुम्हारी रचनाएँ आखर कलश पर आइन्दा भी नज़र आती रहनी चाहियें.
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