प्रभु जा रहे हैं विश्राम करने.. - जयाकेतकी


-देवशयनी एकादशी पर विशेष
प्रभु जा रहे हैं विश्राम करने..
(देवशयनी एकादशी से चातुर्मास प्रारम्भ)
  सदियों से यह मान्यता है कि देवताओं के अधिपति देवता भगवान विष्णु इस दौरान शयन करते हैं। अन्य देवतागण ध्यान में लीन रहते हैं। नक्षत्राधिपति भगवान विष्णु हैं इस कारण चार्तुमास में विवाह, गृहप्रवेश, देवप्रतिष्ठा जैसे मांगलिक कार्य निषिद्ध हैं। सतयुग में मान्धाता नगर मे एक चक्रवती राजा राज्य करता था। एक बार उनके राज्य में तीन वर्ष तक का सूखा पड गया था राजा के दरबार में प्रजा ने दुहाई मचाई राजा सोचने लगा कि मेरे से तो कोई बुरा काम नही हो गया जिससे मेरे राज्य में सूखा पड गया राजा प्रजा का दुःख दूर करने के लिए जंगल मे अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुँचे मुनि ने राजा का आश्रम आने का कारण पूछा राजा ने कर-बद्ध होकर प्रार्थना की, भगवान मैंने सब प्रकार से धर्म का पालन किया है फिर भी मेरे राज्य में सूखा पड गया। तब ऋषि ने आषाढ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करने को कहा इस व्रत के प्रभाव से अवश्य वर्षा होगी ।
  वैज्ञानिक मानते हैं कि शरीर का समस्त संचालन पाचन शक्ति पर निर्भर करता है। पाचन शक्ति को आधार किरणों से मिलता है। वर्षाकाल में सूर्य बादलों से ढक जाता है। मनुष्य की जठराग्नि मंद रहती है, जिसके कारण लीवर तंत्र अच्छी तरह काम नहीं करता। इसलिए उपवास करना तथा रात्रि में कम से कम भोजन करना शरीर के लिए हितकर रहता है। सामान्य अवस्था में भी यदि भगवान सो जाएँ तो सृष्टि नहीं चलेगी। वर्षाऋतु जैसे महत्वपूर्ण काल में जब समस्त सृष्टि की जल और अन्न की व्यवस्था करनी होती है तब भगवान सो जाएँ तो कैसे काम बनेगा? इसलिए कई लोगों को भगवान के सो जाने की बात कथा लगती है।
  आषाढ शुक्ल एकादशी को देवशयनी एकादशी कहते है। इस दिन से भगवान विष्णु चार मास तक पाताल लोक में निवास करते हैं। इसी कारण इसे देवशयनी एकादशी कहते है। आषाढ मास से कार्तिक मास तक के समय को चातुर्मास कहते हैं। २१ जुलाई से १७ नवम्बर तक भगवान क्षीर सागर की शेषशैया पर शयन करेंगे। इसलिए इन चार महीन में विवाहादि शुभ कार्य नहीं होंगे। इन चार महीनों में साधु एक ही स्थान पर रहकर तपस्या करते हैं, इसे चातुर्मास कहते हैं ।
  नर्मदा के पावन तट पर चातुर्मास करने साधु-संत पहुँच गए हैं। जाबालि ऋषि की तपोभूमि में कल्पवास करने का विशेष महत्व है। हर वर्ष यहाँ दूर-दूर से संत पहुँचते हैं और एक ही जगह निवास कर चार महीने साधना में लीन रहते हैं। दरअसल देवशयनी एकादशी से देवउठनी एकादशी तक की अवधि को अशुद्धकाल माना जाता है। पावस ऋतु के इस काल में धरती मटमैले कीचड से ढँक जाती है। इस दौरान एक ही जगह स्थित होकर की गई पवित्र साधना को कल्पवास कहा गया है।
  चातुर्मास के दौरान साधना की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। महर्षि दुर्वासा ने महारानी कुंती के पिता के यहाँ महा चार्तुमास व्रत किया था। कुंती ने अपनी बाल्यावस्था में दुर्वासा ऋषि की परम श्रद्धा के साथ सेवा की। चार्तुमास समाप्त होते ही दुर्वासा ने कुंती की सेवा से प्रसन्न होकर प्रसाद स्वरूप एक सिद्ध माला प्रदान की। इस माला के प्रताप और सूर्य के प्रभाव से कुंती ने कर्ण को जन्म दिया । यह परंपरा आज भी कायम है और संत गण पवित्र नदियों के तट और तीर्थ स्थानों में निवास कर चातुर्मास करते हैं।
  चार्तुमास कठोर तप, नियम व संयम की अवधि होती है। रात्रि में विचरण, रात्रि में भोजन, एक स्थान से दूसरे स्थान जाना निषिद्ध है। इस अवधि में साधु-संत देवशयनी एकादशी या गुरूपूर्णिमा के दिन संकल्प धारण करके चार महीने तक एक ही जगह पर तपस्या करते हैं। इस समय आसन शुद्धि तथा आहार शुद्धि का विशेष ध्यान रखा जाता है। प्राचीन समय में चार वर्ग के लोग चार्तुमास में अपने स्थान को नहीं छोडते थे, राजा, भिखारी, व्यापारी और तपस्वी वर्षाकाल के पश्चात ही अपना निवास छोडते थे।
वर्षा ऋतु में सृष्टि का सौंदर्य पूर्ण रूप से निखर उठता है। मानव को नवजीवन मिलता है, किसान को भरपूर फसल मिलती है और सर्वत्र आनंद का वातावरण बना रहता है। भगवान की इस कृपा से सिंचित हुआ कृतज्ञ बुद्धि का मानव देवमंदिरों में जाकर प्रभु के गुणगान गाता है। तब प्रभु उसे समझाते हैं कि यह वैभव और समृद्धि तेरे पसीने, परिश्रम और पुरुषार्थ का परिणाम है। काम करते समय सतत जागते रहना और फल आए तब अंजान होकर सो जाना इससे बढकर हृदय की विशालता और क्या हो सकती है। इससे यह सीख मिलती है कि कर्म करो परंतु अभिमान न करो। कर्म करते समय आत्ममुग्धता की समाधि लगा दो, अपने अहं को दबा दो।
  वर्षा ऋतु में पृथ्वी पर कीचड की अधिकता होती है। विषैले जीव-जन्तुओं के कारण तपस्या के नियम कठोर बनाए गए। साधनाकर्ता लिप्त हो जाता है, लुप्त हो जाता है, समाधिस्थ हो जाता है, वही कृति श्रेष्ठ बनती है। सृष्टि सुंदर लगती है क्योंकि उसका सर्जक उसमें एकरूप हो गया है। आज हमें कीर्ति और स्तुति कितनी अच्छी लगती है! कोई स्तुति करे तब सो जाने की बात तो दूर रही किंतु यदि कोई सोया हुआ भी हो तो उसके पास जाकर उसे जगाकर उसकी आराधना करने हैं। यह कोई विशिष्ट कर्म नहीं, जिससे अहंकार हो? अहंकार से किया हुआ कर्म काल के गाल में समा हो जाता है। काल उसका भोग कर लेता है। ऋषि-मुनियों ने वेदों पर नाम नहीं लिखे क्योंकि उन्हें कीर्ति की कामना नहीं थी। शिल्पियों ने कृतियों पर अपने नाम नहीं लिखे। वेद अमर हैं और कृतियाँ चिरंजीवी। आज भी वे मानव का मार्गदर्शन करने में समर्थ हैं क्योंकि उसे अहं की समाधि लगाकर कर्म किया गया है।
  कर्म की दृष्टि से देखने पर उसी को श्रेष्ठ गिना जाएगा जहाँ महान कर्म दिखाई द और कार्यकर्ताओं को ढूँढना पडे। कर्म किसने किया जानने के लिए परिश्रम करना पडे। सच्चे कार्यकर्ता चमकने के बजाय मंदिर की नींव में दब जाने में धन्यता का अनुभव करते हैं। जो स्वयं खो जाता है, वही कुछ प्राप्त करता है और जो कुछ प्राप्त करता है वही जगत को कुछ दे जाता है। इस पर्व की ओर देखने की दूसरी भी एक दृष्टि है विश्वास की। अविश्वास से भय होता है और भय से नींद भाग जाती है। विश्वास से शांति मिलती है और शांति में नींद आती है। मानव के विश्वास से निश्चिंत होकर भगवान यदि सोते होंगे तो यह मानव का परम सौभाग्य है। जीवन व्रतनिष्ठ होना चाहिए।
  कदाचित वर्षा ऋतु में सबसे ज्यादा व्रत आते हैं। व्रतनिष्ठ जीवन जीकर सतत जागरूक रहकर, सृष्टि का सौंदर्य और सुगंध बढाते रहें तो भगवान आराम से सो सकेंगे। भगवान की ऐसी स्वस्थ नींद के लिए उनको निश्चिंत बनाने की शक्ति और वृत्ति प्रदान करें। भारत में यह समयावधि जून से सितंबर मानी गई है । मानसूनी हवाओं, बारिश, पानी, हरियाली एवं पर्वों की बहुलता के कारण सभी इस ऋतु के आगमन की प्रतीक्षा करते हैं। ज्येष्ठ मास वर्षा के आगमन का संकेतक कहा गया है। भीषण गरमी के बावजूद वृक्षों में पानी चढने लगता है। बादल धरती को संतुष्ट करने की होड लगाते हैं। कृषक और आम जनता राहत की साँस लेती है। भला साहित्यकार चुप कैसे बैठ सकते हैं। वे पावस की सतरंगी दुनिया को अपनी लेखनी के माध्यम से समेटने का प्रयास करते हैं। चौमासे में प्रायः लोग यात्राएँ कम ही करते हैं। सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक  उत्सवों की अधिकता रहती है ।
  इन दिनों वर्षाकालीन बीमारियों का भय रहता है। असावधानी बीमारी को आमंत्रण दे देती है । शायद इसी कारण इस ऋतु में बुजुर्गों ने अन्य ऋतुओं की अपेक्षा व्रत एवं उपवास कुछ ज्यादा ही बनाए। देश में विभिन्न जातियों, समुदाय तथा भाषा के लोग निवास करते ह। श्री हरि के शयन काल में व्रत परायण होकर वर्षा के चार महीने अर्थात चौमासा व्यतीत करने से यज्ञ का फल मिलता है। चौमासे में व्रत पालन से रोगमुक्त होने के साथ सुखमय जीवन होता है।
-जयाकेतकी

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3 Responses to प्रभु जा रहे हैं विश्राम करने.. - जयाकेतकी

  1. आभारी हूँ इस जानकारी के लिये। ऐसे ही एक लेख की प्रतीक्षा ही ऐसे हर अवसर पर रहेगी।

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  2. जया जी,
    हमारे पूर्वज इन पर्वो त्योहारो के माध्यम से हमे अपने पर्यावरण एवं प्रकृति कि रक्षा की प्रेरणा देते है...पट नही कब हम इन त्योहारो का सही अर्थ समझ कर उसे जीवन में उतारे गे...!!! जानकारी के लिये शुक्रिया...!!!

    ReplyDelete

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