रचनाकार परिचय
साँवर दइया (जन्म 10 अक्टूबर, 1948, बीकानेर राजस्थान। निधन-30 जुलाई, 1992) आधुनिक राजस्थानी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर। राजस्थानी कहानी को नूतन धारा एवं प्रवाह देने वाले सशक्त कथाकार। राजस्थानी काव्य में जापानी हाइकू का प्रारम्भ करने वाले कवि। राजस्थानी भाषा में व्यंग्य को विद्या के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले व्यंग्य कलाकार।विविध विद्याओं में 18 से अधिक कृतियों का प्रणयन मुख्य हैं- आखर री औकात, मनगत, दर्द के दस्तावेज (काव्य), असवाड़ै-पसवाड़ै, धरती कद तांई धूमैली, ऐक दुनिया म्हारी, ऐक ही जिल्द में (कहानी-संग्रह)। निधनोपरांत-हुवै रंग हजार, आ सदी मिजळी मरै (काव्य), पोथी जिसी पोथी (कहानी-संग्रह), उस दुनिया की सैर के बाद (हिन्दी कविता-संग्रह), स्टेच्यू (श्री अनिल जोशी के गुजराती निबंध संग्रह का राजस्थानी अनुवाद, साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित)।अनेक कहानियों के गुजराती, मराठी, तमिल, अंग्रेजी आदि भाषाओं में अनुवाद।राजस्थान साहित्य अकादेमी, मारवाड़ी सम्मेलन, मुम्बई, राजस्थानी ग्रेजुएट नेशनल सर्विस ऐसोसिएशन, मुम्बई सहित अनेक साहित्यिक संस्थाओं से पुरस्कृत एवं सम्मानित।
(यह बहुत कम पाठकों को पता है कि राजस्थानी के प्रख्यात कथाकार कवि श्री सांवर दइया ने मूल हिंदी में भी जीवन के अंतिम वर्षों में कविताएं रची, यहां बानगी रूप कुछ कविताएं प्रस्तुत है ।)
(हम आभारी हैं श्री नीरज दइया जी के जिन्होंने स्व. सांवर दइया जी की हिंदी कविताएँ उपलब्ध करवा कर हमारे साथ-साथ राजस्थानी तथा हिंदी साहित्य का मान बढ़ाया | सम्पूर्ण साहित्य जगत की ओर से हम उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुवे धन्यवाद प्रेषित करते हैं)
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हां वही सुख
छिप नहीं सकता वह सुख
तृप्ति बन तिर-तिर
चेहरे पर घिर-घिर
आता हैं फिर-फिर
लुनाई लुटाता
अंगों में आलोक भरता
देह में देवत्व जगाता
वही
हां, वही सुख
जो हरा करता ।
***
यह देह ही
मेरी देह
तलाशती फिरती है तेरी देह
जैसे सूर्य के पीछे धरती
धरती के पीछे चंद्रमा
मेरी देह
व्याकुल तेरी देह के लिए
जैसे सागर की लहरें
पूनम के चांद के लिए
या तरसता है जैसे
मोर बादल को
सीप स्वाति बूंद को
यह देह ही है
जो जगाती है देवत्व भाव मुझमें
तेरी देह के प्रति
दुनियावालो !
मेरे पतन की पहली देहरी है देह
मेरे उत्थान का चरम शिख्रर भी इसे ही जानो ।
***
नए साल की सुबह : एक चित्र
इकतीस दिसम्बर की रात
की जमी हुई झील को पार कर
पूर्व की देहरी
की ओर जा रहे सूरज संग चली
नव वर्ष की भोर-दुल्हन
देहरी तक पहुंचते-पहुंचते
ठर कर अचेत हो गई
लगा है सूरज
अपनी देह से उसकी देह गरमाने
लो,
धीरे-धीरे छंटने लगा कोहरा
फूटने लगा हल्का-हल्का उजास
सुगबुगाहट-सी हुई देख देह में
संतोष की सांस ली सूरज ने
खिल-खिल उठे लोग
भोर-दुल्हन के दर्शन कर
छ्त-आंगन और चौक में
खेलने लगे बच्चे
खिलखिलाती धूप में
खिलखिलाने लगे बच्चे !
***
सपना संजो रहे
नहीं
कुछ फर्क नहीं पड़ेगा
यदि ये शिलाएं न लगे राम मंदिर में
नहीं
कुछ फर्क नहीं पड़ेगा
यदि ये पत्थर न लगे बाबरी मसिजद में
लाओ,
इधर लाओ
ये शिलाएं
ये पत्थर
यह सीमेंट
यह चूना
यह गारा
ये सब इधर लाओ
यहां हम
हर आदमी के लिए
घर बनाने का सपना संजो रहे हैं
आओ
इधर आओ
हमारा सपना सच बनाने में जुट जाओ
यह आग्रह गलत तो नहीं है ना ?
चुप क्यों हो ?
कुछ तो बोलो......
इधर तो आओ......।
***
अपने ही रचे को
पहली बरसात के साथ ही
घरों से निकल पडते हैं बच्चे
रचने रेत के घर
घर बनाकर
घर-घर खेलते हुए
खेल ही खेल में
मिटा देते हैं घर
अपने ही हाथों
अपने ही रचे को मिटाते हुए
उन्हें नहीं लगता डर
सुनो ईश्वर !
सृष्टि को सिरज-सिरज
तुम जो करते रहते हो संहार
बने रहते हो-
बच्चों की ही तरह निर्लिप्त-निर्विकार ?
***
रचता हुआ मिटता
जितना रचना है
उतना मिटना भी है शायद
यह अलग बात है
रचता हुआ मिटता
है नहीं जो दिखता
दिखता जैसे अंखुआ
बनता लकदक पेड
लेकिन बीज फिर नहीं रह जाता
कुछ मिटाना ही
कुछ रचना है !
***
सुनो मां !
पहले मैं एक सपना था
जिसे संजोया तुमने
सांसों से साधा
दुनिया भर का जहर पीकर
बूंद-बूंद अमृत पिलाया
जुड़ा रहा जब तक गर्भनाल से मैं
दुनिया में आते ही
मेरे होठों की हरकत के साथ ही
उमड़- उमड़ आय तुम्हारी
छातियों में हिलोरें लेता क्षीर सागर
फ़िर मेरे सामने खुली जो दुनिया उसमें
गर्मी ऐसी कि चमड़ी झुलसा दे
सर्दी ऐसी कि रक्त जमा दे
बदलती ॠतुओं के साथ
आंधी-ओले भी दिखाते अपना असर
लेकिन
न जाने कितने-कितने घातों-प्रतिघातों से
बचाकर अक्षुण्ण ही रखा मुझे
तुम्हारी छातियों की छतनारी छांव ने !
***
सच बता….
कितना अच्छा था वह दिन
भले ही अनजाने में लिखे थे
और अक्षर भी ढाई थे
लेकिन उनमें समाई दिखते थी
पूरी दुनिया
और आज
कितना स-तर्क होकर
रच रहा हूं पोथे पर पोथे
झलकता तक नहीं जिसमें
मन का कोई कोना
सच बता यार !
ऐसे में क्या जरूरी है मेरा कवि होना ?
*******
द्वारा-
नीरज दइया
एक नई दृष्टि देती। भावों को शब्दों में कुशलता से पिरोती समूची कविताएं।
ReplyDeleteमेरे पतन की पहली देहरी है देह
ReplyDeleteमेरे उत्थान का चरम शिख्रर भी इसे ही जानो ।
जीवन के कई रंग बिखेरती कविताएं यह बताती हैं कि जब जीवन में हर परिस्थिति का सामना करना ही है तो प्रेम से सामना क्यों न करें?
बहुत सुन्दर कविताएं है नीरज दइया जी की। "सपना संजो रहे" तो बहुत ही खूबसूरत कविता है।
ReplyDeleteसुन्दर कविताएं है नीरज दइया जी की .... बस इतना ही कहना है .... शुक्रिया इन रचनाओं का ....
ReplyDeletein kavitaon mein samvedna ke tantu asarkaari hain. doosri aur kuchh prashn hain samaj ke saamne jo kavi ne rekhankit kiye hain. inhe main achchhi kavitaon ki shreni mein hi rakhna chahunga.
ReplyDeletejiwan ke sabhi rango se saji indradhanush sa abhas de rahi hain neeraj ji kee kavitayen... khas taur par ye panktiyan jiwan darshan ko sahajta se vyakt kar rahi hain... "सुनो ईश्वर !
ReplyDeleteसृष्टि को सिरज-सिरज
तुम जो करते रहते हो संहार
बने रहते हो-
बच्चों की ही तरह निर्लिप्त-निर्विकार ?"
bahut sunder rachna.. aakhar kalash team ko badhai achhi rachna padhwane ke liye !
SUNDAR AUR SAHAJ BHAVABHIVYAKTI MUN KO ACHCHHEE
ReplyDeleteLAGEE HAI.
छ्त-आंगन और चौक में
ReplyDeleteखेलने लगे बच्चे
खिलखिलाती धूप में
खिलखिलाने लगे बच्चे !
sanvar ji ko naman!
- prithvi
17.07.10 की चिट्ठा चर्चा में शामिल करने के लिए इसका लिंक लिया है।
ReplyDeletehttp://chitthacharcha.blogspot.com/
भाई नरेन्द्र व्यास और सुनील गज्जाणी, सम्पादक द्वय को इतनी अच्छी कवितायें देने के लिये मेरी बधाई। सांवर दइया जी के साहित्य से मैं पहले से ही परिचित हूं। कविता कोश पर उन्हें पढा है। वे जीवन को बहुत नजदीक से देखते हैं। कविता उनके हाथ में आकर दर्शन को जिस सहजता से शब्दों में ढालती है, वह अद्वितीय शिल्प केवल उनका है। इन लाइनों में कितनी बड़ी बात कितनी सहजता से कह दी गयी है।
ReplyDeleteमेरे पतन की पहली देहरी है देह
मेरे उत्थान का चरम शिख्रर भी इसे ही जानो ।
मैं जल्द ही आप को रचनायें भेजूंगा। इस ब्लाग को भी मैं अपनी पसन्द में शामिल कर रहा हूं।
ReplyDelete....सांवर जी की हिंदी कविताएँ पढ़वाने का शुक्रिया
ReplyDeleteस्वर्गीय सांवर दइया जी देश के सशक्त कथा हस्ताक्षर रहे हैं । आप ने न केवल राजस्थानी कहानी को नई पहचान दी वरन नई शैली भी दी । आपके व्यंग्य,गजल और कविता भी सुधिजन द्वारा समान रूप से पसंद किए गए !आप राजस्थानी कहानी के पुरोधा हैन-आपको नमन !
ReplyDeleteआखर कलश के सम्पादक मंडल को इस पोस्ट के लिए साधुवाद !
समस्त रचनाएं शान्दार !
दइया जी कवितायेँ पढवाने के लिए आभार "यह देह ही" बहुत प्रभावशाली लगी
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