पुरुषोत्तम अब्बी ‘आजर’ की पाँच ग़ज़लें
















१.

निराली रुत में ढलना चाहता है
नगर पहलू, बदलना चाहता है


ये सपने हैं, तुझे कुछ भी न देंगे
कहाँ तक खुद को छलना चाहता है


छिपा रक्खा है, कब से बादलों ने
मगर चंदा निकलना चाहता है


ये संभव ही नही है, हठ है तेरी
हवा का रुख बदलना चाहता है?


सफीना दूर है साहिल से तेरा
अभी से क्यों उछलना चाहता है


सम्हलने की है‘आजर’उम्र तेरी
बता तू क्यूँ फिसलना चाहता है

२.
बनी तस्वीर या बिगडी, जहाँ में रंग भर आए
हमें जो काम करने थे, सभी वो काम कर आए


तरसता हूँ मैं मुद्दत से, तेरे दीदार को जालिम
तलब है किस कदर तेरी, कि तेरी कब खबर आए


मुकद्दर इससे बढ कर तू, हमें क्या दे भी सकता है
खुदा का जिक्र आते ही, तेरा चेहरा नजर आए


मैं सोते-जागते हरदम खुदा से यह दुआ माँगू
किसी पत्थर की हद में, अब न शीशे का नगर आए


बसा है ख्वाब में मेरे, अजब अरमान का मंजर
अभी कुछ आस है‘आजर’न जाने कब डगर आए

३.
धूप में अब छाँव मुमकिन, जेठ में बरसात मुमकिन
रात है गर दिन में शामिल, दिन में होगी रात मुमकिन


सावधानी का कवच पहनो, अगर घर से चलो तुम
प्यार मुमकिन हो न हो पर, दोस्तों से घात मुमकिन


माँए हैं ममता से गाफिल, बाप अपनी चाहतों से
कल जो मुमकिन ही नही थी, आज है वो बात मुमकिन


सोच में रह जाए केवल, याद घर का साजो-सामाँ
भूल जाएँ खुद को हम-तुम, ऐसे भी हालात मुमकिन


वक्त का पहिया चला जाता है,‘आजर’रौंदकर सब
जीतते जो आ रहे हैं, कल उन्हे भी मात मुमकिन

४.
न किसी का घर उजडता, न कहीं गुबार होता
सभी हमदमों को ऐ दिल, जो सभी से प्यार होता


ये वचन ये वायदे सब, कभी तुम न भूल पाते
जो यकीन मुझपे होता, मेरा एतबार होता


मैं मिलन की आरजू को, लहू दे के सींच लेता
ये गुलाब जंदगी का, जो सदा बहार होता


कोई डर के झूठ कहता, न ही सत्य को छिपाता
जो स्वार्थ जंदगी का, न गले का हार होता


मैं खुद अपनी सादगी में, कभी हारता न बाजी
तेरी बात मान लेता, जो मैं होशियार होता

५.
मुझको न देख दूर से, नजदीक आ के देख
पत्थर हूँ, हल्का फूल से, मुझको उठा के देख


चेहरे के दाग, ऐसे तो, आते नही नजर
दरपन के रू-ब-रू, जरा नजरें मिला के देख


शब्दों की आत्मा में, उतरता नही कोई
विपदा तू अपनी, अपने ही, घर में सुना के देख


खशबू को कैसे ले उडा, झोंका हवा का दोस्त
तू भी तो, अपने प्यार की खुशबू लुटा के देख


ये क्या कि बुत बना लिए, पत्थर तराश के
तू आदमी को आदमी,‘आजर’बना के देख
*******
पुरुषोत्तम अब्बी ’आज़र’

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5 Responses to पुरुषोत्तम अब्बी ‘आजर’ की पाँच ग़ज़लें

  1. छिपा रक्खा है, कब से बादलों ने
    मगर चंदा निकलना चाहता है


    ये संभव ही नही है, हठ है तेरी
    हवा का रुख बदलना चाहता है?

    वज़नदार गज़लें

    ReplyDelete
  2. आईये जानें ..... मन ही मंदिर है !

    आचार्य जी

    ReplyDelete
  3. हर ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी. जो शेर मुझे सबसे अच्छा लगा वो है -
    ये सपने हैं, तुझे कुछ भी न देंगे
    कहाँ तक खुद को छलना चाहता है

    खशबू को कैसे ले उडा, झोंका हवा का दोस्त
    तू भी तो, अपने प्यार की खुशबू लुटा के देख

    ReplyDelete
  4. आभार आपका आज़र साहब की लाजवाब ग़ज़लें हम तक पहुँचाने के लिए...मुमकिन वाले रदीफ़ की ग़ज़ल ने दिल में घर कर लिया...दिली दाद कबूल फरमाएं...
    नीरज

    ReplyDelete

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