‘‘आज तो तुम पकडे गये दीपू भैया!’’ अंजु चहकते हुए बोली।
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘तुम्हें क्यों बताऊँ!’’
‘‘क्या बात है अंजु? दीपक को क्यों तंग रही है?’’
‘‘मम्मी, दीपू ने एक लडकी पसन्द की है, बडी खूबसूरत है। आज मैंने पिकनिक हट में इन दोनों को देखा था।’’ क्या नाम है भैया उसका? जरा बताना तो मम्मी को.........’’
‘‘अंजू.......!’’ दीपक झेंपा।
‘‘क्यों उसे बोलने से रोक रहा है, अच्छा तू ही बता वह कहां रहती है? हम उसके मां-बाप से उसकी शादी तेरे साथ करने की बात करेंगे।’’
‘‘सच मम्मी?’’ दीपक को जैसे विश्वास न हुआ।
‘‘हाँ बेट।’’
‘‘तुम कितनी अच्छी हो मम्मी!’’
कुछ दिन बीते.
‘‘लो, सम्हालो अपनी लाडली बेटी को मम्मी।’’
‘‘क्यों, क्या हुआ? क्यों लाया है तू इसे मारते हुए?’’ दीपक की मां ने अंजू को उठाते हुए पूछा।
‘‘पूछो अपनी लाडली बेटी से। प्रेम करने लगी है। अपने प्रेमी से पार्क में बतिया रही थी।’’
दीपक की मम्मी ने अंजू की चुटिया खींचते हुए दो-तीन चांटे उसके गाल पर मारे और कहा, ‘‘क्या कहा तूने! ऐ री कलमुंही! तू ऐसे ही अपने मां-बाप का नाम रोशन करेगी? अगर कोई देख देता तो लोग क्या कहते। तू हमारी नाक ही कटवाकर रहेगी?’’
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नारी
नीरज के भैया अपनी ससुराल से पत्नी को लेकर आए थे। उनके साथ दो बच्चे भी थे, एक लडकी करीब ४ महीने की थी.एक लडका दो साल का था।
नीरज की मां ने उस छोटी बच्ची को प्यार से गोदी में लिया और प्यार से दुलारते हुए बोली, ‘‘अरी, तूने पहचाना मुझे! तेरी दादी हूं, पहचान ल!. घूर-घूर कर क्या अजनबियों की तरह देख रही है।“ लडकी उसे टिमटिमाती आँखों से देखे जा रही थी।
दादी आगे बोली ‘‘मुझे तो तुझ पर मिसमिसी आ रही है। अरी तू मर क्यों नहीं गई! तू मर जा, पीछा छूटे तुझसे. बेकार में इतना खर्चा कराएगी’’।
नीरज ने फौरन अपनी बहन से भतीजे को लिया और दुलारते हुए बोला ‘‘अरे, तू ठीक ठाक है! मैंने तो सोचा था तू मर गया।’’
‘‘नीरज...........’’ माँ चीखी, ‘‘ऐसे बोलते हैं. तुझे शर्म भी नहीं आती इस तरह बोलते हुए। तू अब नादान ही रह गया है।’’
‘‘लेकिन मम्मी, मैं तो प्यार से कह रहा था।’’
‘‘भाड में जाए तेरा प्यार। खबरदार! जो इस तरह के आगे से इस तरह के अपशब्द मुंह से निकाले।’’ मां ने कहते हुए नीरज की गोद में से लडके को छीन लिया।
‘‘लेकिन मम्मी, इसमें बुरा क्या है! आप भी तो माही से बोल रही थीं।’’
दोनों ही कहानियाँ बेहतरीन हैं.. पर मेरा सोचना है कि अगर दूसरी कहानी में अंत में पञ्च लाइन ''मम्मी पर आप भी तो लड़की.......'' रखते तो और भी ज्यादा प्रभावी होती.. बधाई..
दोनों ही लघुकथाएं बेहतरीन हैं ... हिन्दू समाज की विसंगतियों पर कड़ा प्रहार है ... ये सच है की आज औरत ही औरत का दुश्मन बन बैठी है .... इतने मर्मस्पर्शी कहानियों से रूबरू करने के लिए शुक्रिया !
चौहान जी, वाकई इन लघु कथाओं द्वारा आपने जो समाज को आयना दिखाया है काबिल-ए-तारीफ है। यह आज का कड़्वा सत्य है। इन कथाओं ने दिल की टीस को हवा दे दी। बहुत अच्छे! बहुत खूब!!
कैलाश भाई, आपकी "नारी" लघुकथा पढी, सच में बहुत ही सुंदर रचना लिखी है आपने जो हमारी दोमुंही मानसिकता के जम कर बखिये उधेड़ती नजर आती है ! इस सशक्त रचना के लिए आप बधाई के पात्र हैं ! लेकिन इसको थोडा और चुस्त और स्मार्ट बनाया जा सकता है ! कहानी में नीरज का आपने भतीजे को कहना "अरे तू ठीक ठाक है ! मैंने तो सोचा तू मार गया !" बड़ा अटपटा सा लग रहा है ! मैं ये नहीं कह रहा कि कोई ऐसा नहीं कह सकता - बिलकुल कह सकता है ! लेकिन यहाँ बात कहानी कला की है, अत: इसकी जगा अगर नीरज सिर्फ इतना ही कह देता कि "अरे तू तो बड़ा मोटा हो गया है या "अरे तू तो फूल कर कुप्पा हो गया है मोटे !" तब भी माँ की प्रतिक्रिया उतनी ही तीखी होती !
कैलाश जी आपकी दोनो लघुकथाएं अच्छी हैं। पितृसत्तात्मक समाज का आईना हैं। साथ ही योगराज प्रभाकर के सुझाव से भी सहमत हूं। आखर कलश अच्छा मंच है पर इस पर सामग्री लोड कैसे करते हैं यह बताएं तो अच्छा रहेगा। एक बात और मैंने सुना है सरिता में आपकी काफी रचनाएं छपी थीं। मैं भी उन्हें पढना चाहता हूं। क्या वे फेश बुक या किसी और माध्यम से मुझे पढने को मिल सकती हैं?-राज वाल्मीकि
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चेहरों का
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...
मन की उन्मुक्त उड़ान को शब्दों में बाँधने का अदना सा प्रयास भर है मेरा सृजन| हाँ, कुछ रचनाएँ कृत्या,अनुभूति, सृजनगाथा, नवभारत टाईम्स, कुछ मेग्जींस और कुछ समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई हैं. हिन्दी साहित्य, कविता, कहानी, आदि हिन्दी की समस्त विधाएँ पढने शौक है। इसीलिये मैंने आखर कलश शुरू किया जिससे मुझे और अधिक लेखकों को पढने, सीखने और उनसे संवाद कायम करने का सुअवसर मिले। दरअसल हिन्दी साहित्य की सेवा में मेरा ये एक छोटा सा प्रयास है, उम्मीद है आप सभी हिन्दी साहित्य प्रेमी मेरे इस प्रयास में मेरा मार्गदर्शन करेंगे।
दोनों ही कहानियाँ बेहतरीन हैं.. पर मेरा सोचना है कि अगर दूसरी कहानी में अंत में पञ्च लाइन
ReplyDelete''मम्मी पर आप भी तो लड़की.......''
रखते तो और भी ज्यादा प्रभावी होती.. बधाई..
असमानता के मकड़जाल पर सशक्त प्रहार है |
ReplyDeleteसुधा भार्गव
अच्छी लघुकथाएँ...बेटा बेटी के प्रति अलग अलग मानसिकता को दर्शाति!
ReplyDeleteदोनों ही लघुकथाएं बेहतरीन हैं ... हिन्दू समाज की विसंगतियों पर कड़ा प्रहार है ... ये सच है की आज औरत ही औरत का दुश्मन बन बैठी है ....
ReplyDeleteइतने मर्मस्पर्शी कहानियों से रूबरू करने के लिए शुक्रिया !
भई वाह...दोनों लघु-कथाएँ सशक्त हैं..बधाई
ReplyDeleteKailash ji, dono kahanion ke liye sadhuwaad sweekar karein..sach dikhana bhi zaroori hai..bhale kitna bhi kaduwa kyun na ho..!!
ReplyDeleteSaadar
इस दोहरी मानसिकता से समाज कब आज़ाद होगा? ये प्रश्न आज भी उतना ही ह्रदय को आंदोलित करता है।दोनो ही कहानियाँ आज की सोच पर करारा प्रहार हैं।
ReplyDeleteचौहान जी,
ReplyDeleteवाकई इन लघु कथाओं द्वारा आपने जो समाज को आयना दिखाया है काबिल-ए-तारीफ है। यह आज का कड़्वा सत्य है। इन कथाओं ने दिल की टीस को हवा दे दी। बहुत अच्छे! बहुत खूब!!
DOHREE MANSIKTA PAR ACHCHHEE LAGHU KATHAAYON
ReplyDeleteKE LIYE LEKHAK KO BADHAAEE.
दोनों ही लघु कथाएं अच्छी है और समाज कि विसंगतियों को दर्शाती हैं
ReplyDeleteapani dohri mansikata ke dwaara jo sanskaar hum nav pedi ko de rahe hai unka spasht chitran hai aapki kahaniyo mai .......aabhar sweekar kare
ReplyDeleteकैलाश भाई, आपकी "नारी" लघुकथा पढी, सच में बहुत ही सुंदर रचना लिखी है आपने जो हमारी दोमुंही मानसिकता के जम कर बखिये उधेड़ती नजर आती है ! इस सशक्त रचना के लिए आप बधाई के पात्र हैं ! लेकिन इसको थोडा और चुस्त और स्मार्ट बनाया जा सकता है ! कहानी में नीरज का आपने भतीजे को कहना "अरे तू ठीक ठाक है ! मैंने तो सोचा तू मार गया !" बड़ा अटपटा सा लग रहा है ! मैं ये नहीं कह रहा कि कोई ऐसा नहीं कह सकता - बिलकुल कह सकता है ! लेकिन यहाँ बात कहानी कला की है, अत: इसकी जगा अगर नीरज सिर्फ इतना ही कह देता कि "अरे तू तो बड़ा मोटा हो गया है या "अरे तू तो फूल कर कुप्पा हो गया है मोटे !" तब भी माँ की प्रतिक्रिया उतनी ही तीखी होती !
ReplyDeleteकैलाश जी आपकी दोनो लघुकथाएं अच्छी हैं। पितृसत्तात्मक समाज का आईना हैं। साथ ही योगराज प्रभाकर के सुझाव से भी सहमत हूं। आखर कलश अच्छा मंच है पर इस पर सामग्री लोड कैसे करते हैं यह बताएं तो अच्छा रहेगा।
ReplyDeleteएक बात और मैंने सुना है सरिता में आपकी काफी रचनाएं छपी थीं। मैं भी उन्हें पढना चाहता हूं। क्या वे फेश बुक या किसी और माध्यम से मुझे पढने को मिल सकती हैं?-राज वाल्मीकि