मायामृग की पाँच कविताएँ


रचनाकार परिचय 
नाम: मायामृग
जन्‍म: 26 अगस्त, 1965
प्रकाशन: शब्द बोलते हैं (1988, कविता प्रकाशन, बीकानेर)
...कि जीवन ठहर न जाए (1999, बोधि प्रकाशन, जयपुर)
पता: बोधि प्रकाशन
एफ-77, सेक्टर-9, रोड नं.-11, करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस  गोदाम, जयपुर
********************************************************************* 
(1)
प्यासी माँ
(रेगिस्तान में अन्तःसलिला की अवधारणा पर आधारित)

ओ मरु माँ!
तुम प्यासी हो ना?
सदियों से अनबुझी है
ये तुम्हारी प्यास मां
लेकिन अभी तू
मत हो निरासमां
तू जन्मदात्री है
जानती है मां
प्रसव-पीडा बिन भला
जीवन जन्मता है क्या?
पीडा को झेल मां
समझ ले इसे तू
नव जीवन का खेल मां
किलकारियों का ध्यान कर
आँख बंद कर ले
सांस तेज होने दे पर
सिसकि मंद कर ले
आँखों में सपने ले ले
होंठों को भींच ले मां
आंसू का नीर पी ले
भीतर को सींच ले मां
सदियों सही है पीडा
बस झेल और पलभर
रेतीली कूख से मां
तू जीवन पैदा कर।
*******
(2)
नदी फिर नहीं बोली

नदी पहली बार
तब बोली थी
जब तुम्हारी नाव
उसका पक्ष चीरकर
सुदूर बढती गई थी,
लहरों ने उठ-उठ विरोध दर्शाया
पर तुम्हारे मजबूत हाथों में थे
चप्पुओं ने विरोध नहीं माना,
तब तुमने
लौह का, विशाल दैत्य-सा
घरघराता जहाज
उसकी छाती पर उतार दिया,
तुमने खूब रौंदा
उसकी कोमल देह को।
लहरों के साथ
दुहाई में उठे पार
तुमने नहीं सुना।
फिर कितने ही युद्धपोत
कितने ही जंगी बेडे
इसके अंग-अंग में बसा
इसकी देहयष्टि को
अखाडा बना, क्रूर होकर
पूछा तुमने, बोलो!
क्या कहती हो?
नदी नहीं बोली
नदी फिर कभी नहीं बोली।
*******
(3)
जीने और जी सकने के बीच

अनंत फैला सागर
तुम्हारे पास था
और मेरे हिस्से में आया
प्यास का कुआँ।
नेह का जल बांटते हुए
हर बार
मेरी प्यास की परिभाषा
तुमने खुद की।
तुम्हारे पुचकार भरे होंठों से
निकली गोलाइयां
परिधि माप कर खींची गईं।

बडी परवाह से
मुझे सिखाई गई
लापरवाही।

नैतिकता का देवरथ
जो उतारा गया-आसमान से
उसका
सबसे आखिरी पहिया
मेरे माथे के
बीचोंबीच टिका।
असुरों ने उछल-उछल कर
कब्जाया देवरथ
और पहिये गड्ढों में धचक गये।

तब भी मैं
तुम्हारे
उपकार तले दबा
कराहता रहा।
*******
(4)
पगडंडी से सडक तक

पगडंडी
रोज कराहती है।
सुबह से शाम तक
किसी आहट की इंतजार में
अपने टेढे-मेढे
कच्चे-गलते शरीर को
रोज निहारती है।
पर नहीं आता कोई
कांधे पर हल रखे
गुनगुनाता,
कूदता-फांदता
कोई भी रसीला क्षण!
कोई भी पल
नहीं देता उसे
सुवासित कल की गंध!
विरहणी-सी
रात-रातभर
करवटें बदलती है-
इसे देख
अब कोई नहीं कहता
पगडंडी चलती है।

सडक
रोज चीखती है।
सुबह से शाम तक
भीड के रेले, वाहन-ठेले
हॉर्न के शोर
और कील वाले बूटों की
ठक-ठक
अपनी छाती पर झेलते
भीतर ही भीतर टीसती है।
पर नहीं आता
कोई भी पल,
जब वह मिल ले
अकेली अपने आप से।
धूल-धूप-धुआं
सूंघते-फांकते
नसें तनने लगी हैं
सब कहते हैं
सडक
बहुत चलने लगी है!
*******
(5)
साँप और आदमी

भीतर जागा साँप!
फुत्कारा- जहर उगला,
भीतर सब नीलाहो गया!
आँखों पर, पलकों में
कालिख उतर आई,
जुबान पर पहले से कहीं ज्यादा
मिठास आ गई!
भीतर फैलता जहर
मीठा लगने लगा,
आदमी शनैः शनैः मरने
लगा,
साँप शनैः शनैः बढने लगा!
******* 

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7 Responses to मायामृग की पाँच कविताएँ

  1. भाई मायामृग चिँतनशील कवि हैँ।हर पल उनके हृदय मेँ कुछ न कुछ उथल पुथल मची रहती है।उनकी चिँताओँ मेँ व्यष्टि भी है और समष्टि भी,चेतन है तो जड़ भी है।वे कहीँ से भी सम्बन्धित हो जाते है और सुक्षम संवेदना उकेर जाते हैँ।इनकी कविताओँ मेँ भीतरी व बाहरी लय देखते-पढ़ते और सुनते ही बनती है।यह उनकी कविताओँ की विशिष्टता है।यहां इनकी पाँचोँ कविताएं बेहतरीन हैँ।बधाई!

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  2. बेहतरीन कविताएँ
    'सांप और आदमी' कविता पढ़कर अज्ञेयजी की कविता याद हो आई
    सभी रचनाएँ प्रभावशाली हैं.
    बधाइयाँ.

    ReplyDelete
  3. बहुत ही गहरा भाव लिए है मायामृग जी की ये रचनाएँ, धन्यवाद!

    ReplyDelete
  4. आपकी प्रस्तुति हमेशा संग्रहणीय होती हैं।
    इस बार भी है।
    उत्तम!

    ReplyDelete
  5. सुनील जी, नरेन्द्र जी, आदाब
    आखर कलश ब्लॉग के माध्यम से
    नियमित रूप से आप
    बेहतरीन रचनाएं पाठकों तक पहुंचा रहे हैं...
    इसके लिये आपका आभार....
    मायामृग जी की सभी कविताएं प्रभावशाली हैं.
    ’पगडंडी से सडक तक’ और
    ’साँप और आदमी’ खास तौर पर पसंद आईं.

    ReplyDelete
  6. Shayad in kavitaaon ko shabdon me paribhashit nahi kiya ja sakta......par nadi to boli.......ek vish kanya ke samaan apna raudra roop dikha kar leel gayi sab kuchh............

    ReplyDelete
  7. Shayad in kavitaon ko shabdon me paribhashit nahi kiya ja sakta.........par nadi boli........raudra roop me vish kanya ban leel gayi.......na jaane kya kya!!!

    ReplyDelete

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