प्रताप सहगल की कविता - कबूतर और मैं


प्रताप सहगल परिचय













मेरे घर के आँगन में
एक कबूतर आ कर
मेरे पास बैठ गया
पास, बिल्कुल पास
मैंने उसे बाजरा खिलाना चाहा
वह फ़ुर्र से उड़ गया
फ़िर कोई और कबूतर आ कर बैठा
उससे मैंने संवाद करना चाहा
वह भी फ़ुर्र से उड़ गया
इस तरह से जो भी कबूतर मेरे पास आता
वह मुझे हरक़त में आते देखते ही फ़ुर्र हो जाता
यह मेरे लिए एक परेशानक़ुन बात थी
प्यार तो बाँधता है
प्यार तो जोड़ता है
फ़िर हर कबूतर
मेरे पास आते-आते फ़ुर्र क्यों हो जाता है
तभी मुझे बचपन में सुनी
एक बहेलिए और बहुत सारे             
कबूतरों की कहानी याद आई
आदमी कब बहेलिया हो जाए
कबूतर को क्या पता
शायद हर कबूतर ने
उस बहेलिए की कहानी सुन ली है
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
जिसने दाना डाल कर                                    
बिछाया था जाल
और कबूतर को कबूतर होने से भी
महरूम कर दिया था
तभी से शायद
कबूतर ने आदमी पर
विश्वास करना छोड़ दिया है।            
(1)
मेरे घर के बड़े से ड्राइंग-रूम के बाहर
एक मध्यम-कद का
कूलर टँगा है
गर्मियों की तपन को
सोख कर हल्की-हल्की
ठंडी थपकियाँ देता है
यह मध्यम-कद का कूलर।
सर्दियाँ जब उतरती हैं
आँगन में तो इसे
झाड़-बुहार कर
वहीं छोड़ दिया जाता है
कि यह भी आराम करेगा
अगली गर्मियाँ उतरने तक।
होली निपटते ही
हर साल की तरह
इस बार भी गर्मी
दरवाज़े के बाहर बैठी है
इस इंतज़ार में कि
मैं कब दरवाज़ा खोलूँ
और  वह
ड्राइंग-रूम के सोफ़ों पर
पसर जाए।
ना भी खोलूँ दरवाज़ा
तब भी वह दरवाज़ों की चीथों से
प्रवेश कर ही लेगी
तैयारी ज़रूरी है कि
उसे घर में आराम से बिठा सकूँ
ज़रूरी है कि आराम फ़रमाते
मध्यम-कद कूलर को समझाऊँ
कि उसके हरक़त में आने का
समय आ गया है
जाता हूँ मैं उसके पास
यही बात समझाने कि
लो वहाँ तो एक कबूतरी ने
बसेरा कर लिया है
कुछ तिनकों की सेज बिछाकर
उस सेज पर दो
छोटे-छोटे अंडों में
करवट लेने को तैयार हो रहे हैं
दो जीवन
गर्मी की जगह अब
यह चिन्ता सताने लगी है
क्या होगा इन अंडों में
धड़कते जीवन का ?
(2)
आज अंडे फ़ूट रहे हैं
एक-एक करके फ़ूटे हैं वे
और दो माँस के लोथड़ों ने
दस्तक दे दी है
इस दुनिया के कपाटों पर
गर्मियों के आने के साथ
अब सुबह-शाम
देखता हूँ उन बच्चों को
बड़ा होते हुए
कबूतरी घंटों बैठी रहती है
उन्हें ममता का स्पर्श देती
चौकस सी देखती रहती है
किसी संभावित हमले को लेकर
परेशानी है
उसकी आँखों में
नहीं चाहती कबूतरी कि
किसी की नज़र भी पड़े
उसके उन दो बच्चों पर
उन्हें पंख लगने तक
(3)
आज शाम
कबूतरी उस मध्यम-कद कूलर की
छत पर आ बैठी है
उसकी नज़र है मेरी तरफ़
मैं मशग़ूल दिखते रहना चाहता हूँ
अपनी किताब के साथ कि
वह बेख़ौफ़
अपने आशियाने में दाख़िल हो जाए
उसकी निगाह मेरी ओर है
मैं उसे नज़र उठा कर देखता हूँ
उसकी रत्ती भर आँख में
स्नेह का अपार समुद्र है
इतनी छोटी सी आँख में
लहराता हुआ इतना बड़ा समुद्र
पहले मैंने कभी नहीं देखा
वह लगातार मुझे देख रही है
शायद आश्वस्त होना चाहती है
कि अपने बच्चों के पास
जाने से पहले
कोई देख तो नहीं रहा
उसके घर का पता
कोई कव्वा
कोई बिल्ली या कोई आदमी
बड़े जतन से बड़े हो रहे बच्चों को
सँभाल कर रखे है कबूतरी
मैंने मुल्तवी कर दी है
कूलर की साज-सफ़ाई
और रहूँगा प्यारी गर्मी के साथ
जब तक है वहाँ
एक माँ और दो बच्चे।
******* 
- प्रताप सहगल

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13 Responses to प्रताप सहगल की कविता - कबूतर और मैं

  1. कबूतर और मैं : वास्तविकता है

    ReplyDelete
  2. बेहतरीन कविता का उदाहरण। बहुत-बहुत बधाई।

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  3. बहुत सुन्दर कविता है ... बिलकुल दृश्य जैसा दिख गया सब कुछ ...

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  4. प्रिय प्रताप,
    कविताएं सहज ऒर मार्मिक हॆं । विशेष रूप से ३ मन को छू गई ।
    बधई । -- दिविक रमेश

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  5. बहुत दिनों बाद इतनी बढ़िया कविता पड़ने को मिली.... गजब का लिखा है

    ReplyDelete
  6. सर, आपकी कविता सच में सोचने पर मजबूर करती है। यही किसी भी महत्वपूर्ण रचना की कसौटी होती है। बधाई।

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  7. कविताओँ की अंतर्कथा द्रवित करती है।संवेदना के सूक्ष्म बिम्ब किसी को भी भावुक करने मे सक्षम हैँ।चिँतन का व्यापक फलक प्रभावित करता है।बधाई!

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  8. sahaj chitran per marmik arth samete huye hai ....achha laga pad ker

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  9. SUNDAR AUR SAHAJ BHAVABHIVYAKTI KE LIYE BAADHAAEE
    AUR SHUBH KAMNA.

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  10. महत्वपूर्ण रचनाएं हैं जो मन को छू गईं.
    महावीर शर्मा

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  11. प्रताप जी से रुबरु हो कर अच्छा लगा.

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  12. Bahut hi sundar kavitaye hai... Narendraji ke dvara yaha pahucha hu... unka bhi dhanyavad
    Pankaj Trivedi

    ReplyDelete

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