डॉ. अजय पाठक के गीत


डॉ. अजय पाठक
रचनाकार परिचय
नामः डॉ. अजय पाठक
जन्मतिथिः १४ जनवरी १९६०
शिक्षाः विज्ञान, पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातक, प्राणी शास्त्र, हिन्दी साहित्य, समाज शास्त्र, भारतीय इतिहास में स्नातकोत्तर। इतिहास विषय में पीएच. डी. की उपाधि।
गीतसंग्रह
प्रकाशित कृतियां: (१) यादों के सावन (२) महुए की डाली पर उतरा बसंत (३) जीवन एक धुएं का बादल (४) गीत गाना चाहता हूं (५) आँख का तारा नहीं हूं (६) सुधियों के आरपार (७) जंगल एक गीत है- (भारत सरकार द्वारा ’’मेदिनी पुरस्कारसे  सम्मानित) (८) देहरी पर दीप रख दो (९) यक्षप्रश्न (१०) बूढे हुए कबीर (११) उड चल मानसरोवर (१२) ’’मुगलकालीन शिक्षा, साहित्य और ललित कला‘‘ (शोधग्रंथ)
संपादनः काव्य संग्रह ’’मंजरी‘‘, ’’छत्तीसगढ के सरस स्वर‘‘ (छत्तीसगढ के प्रतिनिधि गीतकारों की रचनाओं का संग्रह), अनियतकालिक पत्रिका ’’छत्तीसगढ की माटी से‘‘ का संपादन।
साहित्य पत्रिका ’’नये पाठक‘‘ (त्रैमासिक) के संपादक।
प्रकाशनाधीनः ’’कथा पचीसी‘‘(कहानी संग्रह), ’’दशमत‘‘(उपन्यास), साथ ही एक व्यंग्य संग्रह
विडियो एलबम्सः भक्तिपरक गीतों का ऑडियों एलबम ’’अब के अरज हमार‘‘ एवं ’’तोर जोत जले‘‘ गीत एवं गजलों का विडियो एलबम ’’अहसास‘‘ शीर्षक से जारी
संप्रतिः छत्तीसगढ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के कार्यकारी अध्यक्ष, अनेक साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी, अनेक संस्थाओं द्वारा साहित्यिक उपलब्धियों के लिये सम्मानित। संयुक्त नियंत्रक, नापतौल विभाग, छत्तीसगढ शासन, रायपुर।
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दास कबीर

लिये लुकाठी हाथ
मिले थे कल ही दास कबीर!

देशकाल का पूछ रहे थे मुझसे पूरा हाल
यह बतलाया मैने सबकी हालत है बेहाल

गिरहकटों की बाबा लेकिन
बदल गई तकदीर!

बटमारों ने और ठगों ने लूटी नगरी काशी
कोतवाल जी सोये-सोये लेते रहे उबासी

कल के चोर उच्चके अब हैं
मनसबदार अमीर!

अपनी ऊंगली पर संतों को नचा रही है माया
उन्हे सुहाने लगी रूपसी की कंचन सी काया

सुविधा भोग रहे कोठारी
साधु-संत-फकीर!

नहीं हुए हैं एक अभी तक मिट्टी के भांडे
अलग राह पकडी मुल्ला ने, अलग राह पांडे

बात-बात पर लड जाते हैं
बांके और बशीर!

तख्तों से चिपके बैठे हैं, मायावी सुल्तान
जुल्मजोर से तंग रियाया मुल्क हुआ शमसान

खून-चूसती नौकरशाही
करते ऐश वजीर!

लिये लुकाठी चले राह पर
दुखिया दास कबीर!
*******

हम

सच को झूठ
झूठ को सच
कहने के आदी हम।

हमने खुद के उजडे घर को
आलीशान कहा,
अपने को ही अपने मुंह से
श्रेष्ठ-महान कहा

जबकि भूखी जनता की
आधी आबादी हम!

कुर्बानी देकर बेटों की
चुप रह जाते हैं,
दुश्मन के नापाक इरादों को
सह जाते हैं

अपने गाल तमाचे खाकर
भी फरियादी हम!

किसी बात पर कहीं अकडकर
हम तन जाते हैं
घुडकी खाकर गांधीवादी
भी बन जाते हैं

अपने हाथों, अपने गुलशन
की बर्बादी हम!

झूठ-मूठ ही गीत सुहाने
गाते रहते हैं
इसी तरह, हम लोगों को
भरमाते रहते हैं

नये कसीदों के उन्नायक
मुल्ला-सादी हम!
*******

बोधिसत्व

मुझको बोधिसत्व
आजकल बहुत सताता है।

कहां गयेआनंद
पूछता दिन में बीसों बार
कहां गया जीवक, यशवर्धन
प्यारा चुन्दलुहार
खीर कटोरा लिये हाथ में
कहां सुजाता है ?

वैशाली में क्यों घुस आया
डाकू अंगुलिमाल
राजपथों पर लूटपाट कर
करने लगा बवाल
सुनता हूं कि वह जनता का
रक्त बहाता है।

धम्मचक्र पर गति अवरोधक
किसने खडे किये
किस पातक ने मद्यपान के
झंडे बडे किये
राजपुरूष क्या व्यसन बेचकर
धन उपजाता है ?

बिंबसार ने हिंसा करना फिर से
सीख लिया ?
कल ही की है बात उसी ने
मुझसे भीख लिया
आम्रपालि के रंगमहल को
फिर से जाता है ?

राहुल राजकुमार हो गया
सुनकर हर्ष हुआ
लेकिन उसके चाल-चरित्तर का
अपकर्ष हुआ
मेरा बेटा सुंदरियों से
मन बहलाता है ?
*******

प्रेमचंद

प्रेमचंद जी! वही कहानी
अब तक जारी है।

धनिया का शोषण करते हैं
पंडित रामाधीन
कर्ज लिया था गोबर
अब है ठाकुर के अधीन

दो रोटी के लिये मशक्कत
मारा-मारी है।

माधव-घीसू दोनों दुर्दिन में
ही जीते हैं
कफन बेचकर दोनों जमकर
दारू पीते हैं

बुधिया मरी तडपकर
अब दोनों की बारी है।

दुखिया है अंजान अभी तक
दलित चेतना से
झुरिया का नाता है केवल
व्यथा-वेदना से

दोनों के हिस्से में केवल
खिद्मतगारी है।

बूढी काकी भूख मिटाने
झूठन चांट रही
रूपा उनकी जायदाद पर
फैशन काट रही

बुद्धिराम के चाल-चरित्तर
में मक्कारी है

अलगू की अब ठनी हुई है
जुम्मन काका से
गांव हुआ दो फाड मिले सब
अपने आका से

कुछ ने मंदिर तोडा अब
मस्जद की बारी है

बंशीधर मुंशी लोगों से
रिश्वत खाता है
नही दिया तो झूठा-सच्चा
केस बनाता है

एक अकेला वह सौ लोगों
पर भारी है

हलकू ने दिन-रात किया
खेतों की रखवाली
मगर पछाडे खाकर रोती
उसकी घरवाली

समझू साहू कहता है कि
फसल हमारी है।

झगडू पूछ रहा था, ऐसा
है अपना सुराज
तो फिर इससे कही भला
था अंग्रेजों का राज

शासन है निश्चिंत
प्रशासन अत्याचारी है।
*******

सब दरपन
(डॉ. भगवती प्रसाद द्विवेदी को पढते हुये)

सूखी सब सरिता
उमंग की
कुम्हला गये सुमन
कहां निहारें अपनी सूरत
दरके सब दरपन।

आंगन में तुलसी का बिरवा
फिर कुम्हलाया है
पुरवैया के भीतर गहरा
दर्द समाया है

अमरैया की छांह खडी
फैलाकर अपना फन।

मार झपट्टा बाज ले गया
सारे आस-हुलास
मन-पांखी काखोंताउजडा
चटक गया विश्वास

कटी नेह की डोर अचानक
टूट गये बंधन।

नाव पुरानी डगमग डोले
बीच बहे मझधार
मल्लाहों का भेश बनाकर
बैठे हैं बटमार

छला गया अपनापन
आहत करती है चितवन।

चलते-चलते तन-मन टूटा
किंतु वही ठहराव
रोज-रोज का जीना मरना
अब बन गया स्वाभाव

कब निकलेगी तमस काटने
कोई ज्योति-किरण? 
**************
संपर्क: एल-३, विनोबानगर, बिलासपुर छत्तीसगढ- ४९५००४
दूरभाष- ०७७५२-४०९२१७ मो. ९८२७१-८५७८५
ई-मेल& kavi_ajaypathak@yahoo.co.in


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13 Responses to डॉ. अजय पाठक के गीत

  1. अजय जी आप की दो कविताएं अच्छी लगी।

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  2. डा,अजय पाठक की 'बोधिसत्व'और 'प्रेमचंद' कविताएं अच्छी हैँ।'दास कबीर' व'हम' कविताएं समाचार सरीखी हैँ।
    इस समष्टि मेँ सब कुछ हमारे समक्ष प्रदर्शित है और जो घटित होता है उसके भी कई बार हम द्रष्टा होते हैँ,तो क्या इस सब के आंखोँ देखे हाल के प्रकटिकरण को हम कविता कह देँगे।शायद हरगिज नहीँ।कुछ तो होगा जो यथार्थ व बिम्बोँ के प्रदर्शन को कविता बनाता है।यही समझ कविता का सिरजन व उसका विस्तार करती है।कविता का कौशल उसके कथानक से कहीँ ज्यादा बुनघट मेँ झलकता है।किसी बात को कविता कहना हो तो इस के लिए कहानी पर्याप्त है। खैर।अन्यथा न लेँ।
    अजय जी को उनकी कविताओँ के लिए बधाई!

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  3. अजय जी की सभी रचनायें बहुत ही बेहतर हैं .....!!

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  4. Sabhi rachnayen prabhavit karti hain.badhai.

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  5. achchha laga Ajay bhai ko padhna.. aur kavitaaon ke madhyam se unke man ke aandolanon ko janna

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  6. बहुत बढ़िया लगा सभी कवितायेँ! बेहतरीन प्रस्तुती!

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  7. ऐतिहासिक संदर्भों पर आधारित कथ्‍य कहने के लिये पहले तो अच्‍छा अध्‍ययन और फिर उसे वर्तमान से जोड़ पाना और फिर काव्‍य रूप देना, यह क्षमता तो आपकी कविताओं में खुलकर सामने है। इतिहास पुनरावृत्ति अवश्‍यंभावी है, रूप बदल जाते हैं।
    बधाई।

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  8. अपने हाथों, अपने गुलशन की बर्बादी हम...
    वाह बहुत खूब.
    प्रेमचंद कविता बहुत प्रभावित करती है.

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  9. एक से बढ़ कर एक कवितायेँ हैं और भाषा भी आसान.अच्छा लगा पढ़ कर बेहतरीन अभिव्यक्ति बहुत गहरी बातें

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  10. गीत अजय जी के रुचे, साधुवाद के पात्र.
    शिल्प-कथन में कसावट, होता अनुभव मात्र.
    कथ्य, भाव, लय, शब्द का चोखा कच्चा माल.
    'सलिल' गीत की अजय ने उत्तम करी सम्हाल.

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  11. अजय जी की सभी रचनायें बहुत ही बेहतर हैं

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  12. सभी कविताएं प्रभावशाली हैं।

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  13. तख्तों से चिपके बैठे हैं, मायावी सुल्तान
    जुल्मजोर से तंग रियाया मुल्क हुआ शमसान
    Ajay ji ko padkar soch bhi udaan bharne lagti hai..unki abhivyakti mein gagar mein sagar wali baat rahti hai.

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