डॉ.अभिज्ञात |
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डॉ.अभिज्ञात |
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इनसान ने डंसने की रवायत संभाल ली
ReplyDeleteसांपों को शर्म आयी जहर छोड़ना पड़ा।
Abhgyaat Ji,
Aap ki gazalen dekhin. Behadd achhi lagin. kuch shayar to sach moch kamaal hain.
Thanks for sharing.
दहशत के लिए ..... डर छोड़ना पड़ा का जवाब, अब तो मिला .... हुनर छोड़ना पड़ा की मजबूरी और इनसान ने डसने ....जहर छोड़ना पड़ा की आज की इंसानी फितरत का जवाब नहीं।
ReplyDeleteऔर सबसे उपर
जो न पूछे तो तेरा ज़िक्र करूं
कोई पूछे तो मैं मुकर जाऊं।।
का अंदाज़ काबिल्र तारीफ़ है।
बधाई।
बहुत बढ़िया लगा आपका ग़ज़ल! एक से बढ़कर एक शेर हैं! इस उम्दा प्रस्तुती के लिए बधाई!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति भाषा, लय, प्रवाह, उन्माद,विरह औए मर्म सब कुछ एक साथ!!!!!!!!!!!!!! .सभी गज़लें एक से बढ़ कर एक पर पहली वाली
ReplyDelete"सौ बार सरे-राह सफ़र छोड़ना पड़ा" एक एक शब्द एक एक बात सीधे दिल पर वार कर गयी और सिर्फ ये ही नहीं आर पर भी निकाल गयी बहुत बेहतरीन .आभार नरेन्द्र जी का भी इस लाज़वाब प्रस्तुती के लिए
bhaut achhhi lagi abhigyaat ji apki teeno gazale..
ReplyDeletec
manjil pe har parind ko,par Chodna pada,bahut khoob,behtareen panktiyan.
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