मुरलीधर वैष्णव की दो लघुकथाएं



(अक्षय-तुणीर) मुरलीधर वैष्णव
संक्षिप्त परिचय
नामः मुरलीधर वैष्णव
जन्मः ०९ फरवरी १९४६, जोधपुर।
शिक्षाः बी.ए., एलएल. बी.
प्रकाशनः देश की लब्ध प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में आलेख, कथाएं, लघुकथाएं एवं कविताओं का सतत प्रकाशन। राजस्थानी भाषा में चंद कविताएं प्रकाशित। हिन्दी एवं अंग्रेजी में कानून तथा सामाजिक सरोकार संबंधी विषयों पर अनेक आलेख प्रकाशित। दो नुक्कड नाटक की भी रचना जिसमें एक का मंचन।
कृतियां: कहानी संग्रह, ’पीडा के स्वर‘, लघुकथा संग्रह अक्षय-तुणीर। दो बाल कथा संग्रह। एक काव्य संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।
आत्म कथ्यः जीवन में जैसा देखा, भोगा, उसे ईमानदारी से अभिव्यक्ति देते हुए यही पाया कि अनुभव ज्ञान से कोसों आगे है।
सज्प्रतिः न्यायाधीश, जिला उपभोक्ता फोरम, जोधपुर (राज.)
पताः गोकुल‘, ए-७७ रामेश्वर नगर, बासनी प्रथम फेस, जोधपुर (राज.) ३४२००५
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भागीदारी 
रोजाना की तरह आज फिर वह कटोरा लिए ट्रेन के डब्बे में चढ गया। डब्बा यात्रियों से भरा था। भिखारी भजन गाते हुए हाथ में पकडा कटोरा यात्रियों के आगे फैलाने लगा।
    ‘‘ये रिजर्वेशन के डब्बे में भिखारी आ कैसे जाते है? आप इन्हें रोकते क्यों नहीं?’’ मैंने टी.टी.ई. से पूछा।
    ‘‘अरे साब, क्या करें? इनके साथ जबर्दस्ती भी तो नहीं कर सकते। झगडा करने लग जाते हैं ये। यूनियन तक बना रखी है इन्होंने।’’ टी.टी.ई. ने लाचारी जतलाई।
    ‘‘सब मिलीभगत का खेल है’’ टी.टी.ई. के जाते ही एक दूसरे यात्री ने उबासी लेते हुए कहा।
    इस बीच मैं टॉयलेट के लिए उठा। वहां मुझे जानी-पहचानी खुसुर-फुसर सुनाई दी। ’’इस कटोरे की कसम साब, इस बार पूरे चालीस भी नहीं मिले। फिर भी पच्चीस तो दे ही रहा हूं, आपको।‘‘ भिखारी गिडगिडा रहा था।
    ‘‘स्साले रेट खराब कर रहा है मेरा। अभी आगे के डब्बों से भी तो कमाएगा। ला, बीस का नोट और निकाल।’’ टी.टी.ई. की आवाज सुनाई दी।
    टॉयलेट से बाहर आया तो देखा, पास ही जुडे हुए डब्बे से भिखारी के भजन गाने की आवाज आ रही थी। टी.टी.ई. नदारद था।
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नीम और टाट
पति-पत्नी दोनों ही शहर के जाने-माने डॉक्टर थे। अपने विशाल नर्सिंग होम के मालिक। लेकिन डॉक्टर ने बूढे माता-पिता को अपने बंगले के गैरेज में रख छोडा था। बिछाने के लिये उन्हें राली (पुराने छीतडों से बना बिछौना) तथा आढने के लिये पुरानी टाट (जूट से बना बारदाना) का कंबल दे रखा था। दोनो समय दाल-रोटी या बचा-खुचा खाना वे अपने नौकर के साथ वहीं गैरेज में भिजवा देते थे।
    डॉक्टर दम्पती का इकलौता बेटा विशाल स्कूल से लौटते ही प्रायः दादा-दादी के पास चला आता। गैरेज के आगे एक नीम का पेड था, जिसके नीचे दादा-दादी दिन में प्रायः सुस्ता लेते थे। दादा उसे कभी कन्धे पर बैठा लेते तो दादी उसे कहानी सुना देती। दोनों उसे बेहद प्यार करते थे।
    ‘‘यह क्या हो रहा है, भई?’’ सोनू को गीली मिट्टी में कुछ बनाते देख कर डॉक्टर बोला। ‘‘मकान बना रहा हूं, पापा।’’ विशाल अपनी धुन में मग्न पापा की ओर देखे बिना ही बोला।
    ‘‘मकान के आगे नीम का पेड तो तुमने बडा सुन्दर लगाया है, बेटे। लेकिन अब तुम इस डिबिया में ये पुरानी गन्दी टाट के टुकडे क्यों रख रहे हो?’’ विशाल की मम्मी टाट के टुकडों की तरफ हिकारत से देखते हुए बोली।
    ‘‘ये सब आप दोनों के लिए ही तो बनाया है मैंने। जब आप दोनों दादा-दादी की तरह बूढे हो जाओगे तब इस नीम के नीचे आराम करना। और हाँ, ये टाट के टुकडे नहीं हैं, मम्मी! आप दोनों के आढने के कंबल हैं।’’
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-मुरलीधर वैष्णव

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12 Responses to मुरलीधर वैष्णव की दो लघुकथाएं

  1. नीम और टाट आईना बन गई समाज का.

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  2. अच्छी हैँ दोनों लघुकथाएं।पाठक पर प्रभाव छोड़ती हैँ। बधाई!

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  3. प्रभावशाली रचनाएं,धन्यवाद।

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  4. पहली कहानी में समाज की अव्यवस्था पर करारी चोट
    और दूसरी तो.........
    बहुत प्रभावशाली रचना, एक कटु सत्य ,बचपन कभी कभी परिपक्वता ऐसे ही पाठ पढ़ाता है,अब ये हम पर निर्भर हैं कि हम कितना समझ पाते हैं

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  5. सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ बहुत बढ़िया लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! उम्दा प्रस्तुती! बधाई!

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  6. मुरलीधर जी की दोनों लघु कथाएँ अच्छी हैं.`भागीदारी` जहाँ भ्रष्टाचार की हदों की उघारती है वहीँ दूसरी कहानी समय और समाज की विद्रूपता पर क़रारा व्यंग्य है.मैं इन्हें पहले भी पढ़ता रहा हूँ.

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  7. पहली कथा तो एक सुदृढ़ व्‍यवस्‍था का उदाहरण जहॉं यह कह सकते हैं कि भिखारी और टीटीई मात्र प्रतीक हैं ऐसे ही कई अन्‍य चेहरों के।
    दूसरी कथा लगभग सभी घरों में सुनाई जाती है एक आशंकित भविष्‍य को सुनिश्चित करने के लिये और एक सीख देने का प्रयास भले ही है लेकिन शायद ही आजतक किसी ने ऐसी कथा से सीख ली हो।

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  8. "भागीदारी" लघु कथा में रेलवे व्यवस्था का सजीव चित्रण किया है.... बधाई.

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  9. दोनों ही लघुकथाएं समाज और व्यवस्था पर करारा तमाचा हैं और औरों की तरह मैं भी यही कहूँगा कि दूसरी वाली कहीं ज्यादा बेहतर लगी लेकिन नए विषय का अभाव दिखा,.. ठीक यही आजकल मेरी बेचैनी है कि नए विषय खोजने में लगा हुआ हूँ ऐसे जिन पर लोगों ने या तो लिखा ही ना हो या बहुत कम लिखा हो..
    क्या आपसे ऐसी आशा करुँ तो बेमानी होगी?

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  10. bahut marmik kathayen.sandesh prasarit karti hui.sunder.

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  11. दीपकजी ,बधाई है I
    बाल मनोविज्ञान से सम्बंधित लघुकथा प्रशंसनीय है I
    सुधा भार्गव
    sudhashilp.blofspot.com

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