ओ पुरुष !
(1)
ओ पुरुष ! तू पिता
तू भाई
तू पति
तू मित्र-सा संरक्षक
फिर भी हर पग पर
क्यों डर लगता है
तेरा ही
जो मुझे बनाता है कमज़ोर-सा
(२)
ये मेरी भूल है
य कोई भ्रम
कि तुझसे
कंधे से कन्धा मिलाकर
चलने की चाह है
तू मखौल भी
उड़ाता है मेरे भ्रम का
फिर भी अपेक्षा क्यों
कदम से कदम मिलाने की
ओ पुरुष !
(३)
वो दिन कब आएगा
जब बेतहाशा
अंधेरी सडकों पर
बेधड़क
तुझसे न डरते हुए
ओ पुरुष !
(४)
तूने सदा मुझे
अपनी जूती तले दबाया
और मैंने हमेशा
तुम्हारी धमनिओं में
बहना चाहा
तू न जाने क्यों
मुझे देखते रहे
बेचारी समझ कर
और बंद करके
उस कोटडी में
वीरता के परचम
फहराते रहे
इतना दंभ था
पुरुष तुझमें
फिर भी तेरा माथा
झुकता रहा
कभी तिलक के बहाने
तो कभी
आर्शीवाद के बहाने
कभी तेरी कलाई
मेरे सामने आ गयी
याचना बन कर
रक्षा की
मैं तेरी रक्षा के लिए
तेरे सिर से लेकर
पाँव तक
बहती रही
और जब पहुंची पाँव तक
तो तू समझ बैठा
मुझे पाँव की चीज़
पर मैं तो
तेरे हर अंग की
हर नस की
रक्षा में हूँ
ओ ! पुरुष !
*******
- संगीता सेठी
रक्षक के भक्षक रूप का चित्रण बहुत ही गहराई से किया है, जिसके साथ भय ना हो, उसीके साथ आगत का भय!
ReplyDeleteवाह, बहुत कुछ कह दिया
संगीता जी,
ReplyDeleteहमारी सामाजिक व्यवस्था और प्रचलित धारणाओं के कारण कहीं-कहीं आज भी ऐसा होता है जो आपके कथ्य में समाया है, लेकिन अब बदलाव आ चुका है आज नारी-पुरुष के संबंध काफ़ी हद स्वस्थ हैं और दोनों परस्पर सम्मान पर आधारित हैं। मूल प्रश्न होता है स्वीकार्यता का, समाज में वही प्रवृति बढ़ती है जो स्वीकारी जाती है।
हमारी सामाजिक व्यवस्था में नारी ने समर्पित होकर ही आनंद की अनुभूति प्राप्त की, जहॉं तक पुरुष के दंभ का प्रश्न है वह तो एक विकार है और हर विकारग्रस्त प्राणी दया का पात्र है, उससे शिकायत कैसी?
आपकी रचना इस दृष्टि से सफ़ल है कि प्रतिक्रिया के लिये प्रेरित करती है, स्वाभाविक है कि प्रतिक्रिया होगी तो पूर्व चिंतन भी होगा और जब चिंतन होगा तो सकारात्मक बदलाव आयेगा ही।
बधाई।
आप ने इन पंक्तियों के द्वारा पुरुष के ओछेपन का चित्रण किया .....बहुत खूब
ReplyDeleteसंगीता जी, आपकी कविताओं की प्रतिक्रिया में अपनी बात अपनी कविता ...समर्पण.... में कहना चाहूँगा.. माँ / बहिन / बीवी / बेटी / और न जाने / कितने रूपों में / तू / समर्पित है / तेरा जीवन / सबके लिए / अर्पित है / ममता उड़ेलती / प्यार बांटती / तू / अंतत: / बंट जाती है / पांच तत्वों में / और / हो जाती है लीन / ब्रह्म में / बुनती ताना बाना / नारी ! तुझे हर रूप में / पड़ा है / कड़वा घूँट पीना / फिर भी / छोड़ा नहीं है तूने / बार बार जीना / ......
ReplyDeleteमनभावन विचारोत्तेजक।
ReplyDeleteआपके कृतित्व का विस्तृत परिचय भी साथ में होना चाहिये था।
क्या आपने अभी हाल ही में हंस में प्रकाशित शीबा असलम फहमी के कुछ लेख देखे हैं?
यदि नहीं तो देखियेगा।
इन कुछ पंक्तियों में अपने पुरुष के सभी स्वभाव को व्यक्त किया है.
ReplyDeleteअच्छी अभिव्यक्ति ..
VIKAS PANDEY
WWW.VICHAROKADARPAN.BLOGSPOT.COM
स्त्री, पुरुष,अनेक रूप, आपसी सम्बन्ध,स्त्री होने का दर्द सभी कुछ सहेजे है ये रचना बधाई
ReplyDeleteसंगीता जी की रचनाओं में परिपक्वता झलकती है..बहुत बहुत बधाई! आखर कलश टीम हिंदी साहित्य की जो सेवा कर रही है...सच में दिल से बधाई की पात्र है. यहाँ एक से बढ़कर एक उम्दा रचनाकारों की उम्दा रचनाएँ पढने को मिली...बहुत आभार..!!
ReplyDeleteआपकी कविता उद्वेलित करती है .
ReplyDeleteवैसे तिलक राज कपूर जी से सहमत हूँ .स्त्री पुरुष के परस्पर सम्बन्ध ' समता ,समानता और परस्पर सम्मान और विश्वास ' पर ही आधारित हों .
आज डा. लोहिया जी के जन्म शती पर यही कहूँगा की उनके जैसे कुछ ही रहे जिन्होंने भारत की हर नारी की पीड़ा को कहा बताया और जीवन भर संघर्ष रत रहे .
संभव हो तो मेरे ब्लॉग पर ' राम की व्यक्ति परीक्छा ' पढ़ लें . वह मेरी लम्बी कविता का अंश है. ब्लॉग पर कुछ दुखी सज्जनों को जबाब दे थकने के बजाय शीघ्र ही लघु पुस्तिका के रूप में आयेगी .
संगीता जी आप की कविताओं में जो पुरुष -पीड़ा है वह अपनी स्वभावाविक संवेदना के कारन सहज विश्वसनीय है.आप को बधाई.
ReplyDeleteसंगीता जी,
ReplyDeleteआपकी कविताओं से मैँ बहुत प्रभावित हुआ और टिप्पणी भी की मगर प्रकाशित नहीँ हुई।ऐसा इस लिए हुआ क्योँ कि मैँ इंटरनैट की कार्य प्रणाली नहीँ जानता और शायद कोई तकनीकी गलती कर गया।कई बार एक सी दो दो टिप्पणियां भी लग जाती हैँ जो प्रबुद्दजनोँ को अखरती भी हैँ।
*आपकी कविताओँ का शिल्प बेहतरीन व शब्दोँ का चयन लाज़वाब था।भाषा की तरलता पाठक को बांधने मेँ सक्षम थी। सूक्षम संवेदनाओँ के बिम्ब बखूबी मुखरित होते हैँ।बधाई!
omkagad.blogspot.com
सुश्री संगीता सेठी जी!
ReplyDeleteआपके तर्क जायज हैं। आपने नारी के मौन को स्वर दिया है। यही आपके काव्य की सार्थकता है। वस्तुतः बर्बर युग में एक सामाजिक अवधारण स्थापित हुई थी -‘धरती वीरों की भोग-वस्तु है’। इस आवधारणा अंर्तगत नारियाँ और सूद्र दोनों बलशालियों की भोग-वस्तु बनाए जाते रहे हैं। उस युग के लक्षण आज भी हमारे समाज में व्याप्त हैं। बलशालियों के दंभ-दंशों से नारियों और सूद दोनों में छटपटाहट है। वे मुक्ति की चाहते हैं। काश ! संसार में बल के स्थान पर विवेक का छत्र स्थापित हो। युगों-युगों से चली आ रही जड़ता टूटे। मनुष्य-मनुष्य के मध्य सह-अस्तित्व की भावना प्रगाढ़ हो। स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक बने।
सुश्री संगीता सेठी जी!
ReplyDeleteसब पुरषों को इक जैसा क्यूं, आप समझती हो"सेठी"
पाँचों उंगली एक बराबर , मानव कि नही होती जी
चार कदम आगे है औरत, पुरषों को पीछे छोड़ा
गुजरे वक्तो की बातें हैं औरत थी सब सह लेती
संगीता जी आपने जो व्यक्त किया वह बहुत सरल और सहज है। लेकिन यह डर तो स्त्री के अंदर ही है। वह अपने अंदर ऐसा कुछ पाती है जिसे खोने का डर है। अगर वह एक बार उससे मुक्ति पा ले फिर देखे कि पुरुष उसके लिए क्या है। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteमैं तेरी रक्षा के लिए
ReplyDeleteतेरे सिर से लेकर
पाँव तक
बहती रही
और जब पहुंची पाँव तक
तो तू समझ बैठा
मुझे पाँव की चीज़
पर मैं तो
तेरे हर अंग की
हर नस की
रक्षा में हूँ....
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति संगीता जी!
लंबे अंतराल के बाद आपको यहां पढना अच्छा लगा
ओ पुरुष....
ReplyDeleteकविता .हो या नज़्म ग़ज़ल हो या अदब कि कोई भी विधा ...सम्बोधन का अपना एक महत्व होता है....
न जाने क्यूँ आपकी इन तमाम कविताओं में ये सम्बोधन ...मुझे थोडा अखरा ....ओ पुरुष कि जगह ए पुरुष होता तो भी कर्ण प्रिय होता ....
समाज के एक घिनोने चहरे को आपने बे-झिझक कागज़ के सीने पे उतार दिया .........वाकई ये सच्चाई तो है .....
वो दिन कब आएगा
जब बेतहाशा दौडूंगी
अंधेरी सडकों पर
बेधड़क
ख़ुदा करे हमारे मुल्क में ये ओ पुरुष ....थोडा संजीदा हो जाये ....
regards