एस.आर. हरनोट की कहानी - नदी गायब है















टीकम हांपता हुआ घर के नीचे के खेत की मुंडेर पर पहुंचा और जोर से हांक दी,

‘पिता! दादा! ताऊ! बाहर निकलो। नदी गायब हो गई है।

हांक इतने जोर की थी कि जिस किसी के कान में पडी वह बाहर दौड आया।

टीकम अब खेत की पगडंडी से ऊपर चढ कर आंगन में पहुंच गया था। उसका माथा और चेहरा पसीने से भीगा हुआ था। चेहरे पर उग आई नर्म दाढी के बीच से पसीने की बूंदे गले की तरफ सरकर रही थी। आंखों में भय और आश्चर्य पसरा हुआ था जिससे आंखों का रंग गहरा लाल दिखाई दे रहा था। उसका पिता और दादा सबसे पहले बाहर निकले और पास पहुंच कर आश्चर्य से पूछने लगे,

टीकू बेटा क्या हुआ ? तू ऐसे क्यों चिल्ला रहा है ? सुबह-सुबह क्या गायब हो गया ?

उसकी सांस फूल रही थी। ओंठ सूख रहे थे। जबान जैसे तालू में चिपक बई हो। कोशिश करने के बाद भी वह कुछ बोल नहीं पा रहा बस ओंठ हिल रहे थे। तभी उसकी अम्मा हाथ में पानी का लोटा लिए उसके पास पहुंच गई। स्नेह से उसके बाल सहलाते हुए लोटा उसकी तरफ बढा दिया। टीकम ने झपट कर ऐसे लोटा छीनकर पूरा पानी गटक गया मानो बरसों का प्यासा हो। कुछ जान में जान आई थी। अब तक कुछ और घरों के लोग भी आंगन में इकट्ठे हो गए थे और पूरी बात जानना चाहते थे।


बरसात के शुरूआती दिन थे। सुबह के तकरीबन सात बजे का समय होगा। इस वक्त तक पूर्व के पहाडों के पीछे से सूरज की किरणों की उजास गांव पर सुनहरी चादर बिछा देती थी। पर आज उन पर काले बादलों का डेरा था। पहाड आसमान का हिस्सा लग रहे थे। उत्तरी छोर के पर्वतों के ऊपर बादलों की कुछ डरावनी आकृतियां थी। हवा के साथ पूर्व के बादल कभी छितराते तो भोर की लालिमा ऐसे दिखती मानो भयंकर आग में बादल जल रहे हों। इसी बीच कई धमाके हुए और आंगन में खडे सभी लोग चक गए। समझ नहीं आया कि यह बिजली चमकी है या कुछ और है। कई घरों की खिडकियों के शीशे टूट गए थे। गौशाला से पशुओं और भेड बकरियों के रम्भाने-मिमियाने की आवाजें आने लगी थीं।


टीकम कुछ सहज होकर सभी को बता रहा था।

‘मैं रोज की तरह नदी किनारे घराट में पहुंचा। गेहूं-फफरा की बोरी एक किनारे उतार कर रख दी और चक्की चलाने को कूहल फेरने चला गया। लेकिन उसमें पानी नहीं था। मैंने सोचा कूहल कहीं से टूट गई होगी। मैं नदी की तरफ हो लिया। वहां पहुंचा तो हतप्रभ रह गया। कुछ समझ नहीं आया कि जिस नदी का पानी कभी सूखा ही नहीं वह रात-रात में कैसे सूख गई। कुछ देर मैं ऐसे ही खडा रहा। कई बार आंखे मली कि धोखा तो नहीं हो रहा है। लेकिन नहीं पिता, नहीं दादा, वह धोखा नहीं था। नदी सचमुच गायब हो गई है। उसका पानी सूख गया है।


टीकम की बातें सुन कर सभी सकते में गए थे। उसकी मां उसके पास आकर उसे समझाने लगी थी, ‘देख टीकू! तू रात को बहुत देर तक जागता रहा है। कितनी बार बोला कि टेलीवीजन मत इतनी देर देखा कर। तेरी नींद पूरी नहीं हुई है न। फिर मैंने तेरे को तडके-तडके अधनींदे जगा दिया था। जरूर कुछ धोखा हुआ होगा।


इसी बीच देवता का पुजारी भी पहुंचा था। उसे टीकम की बातों पर कुछ विश्वास होने लगा। उसने सभी को समझाया कि यहां आंगन में बहसबाजी करने से क्या लाभ ? सभी चल कर अपनी आंखों से देख लेते हैं कि क्या बात है। पुजारी की बात मान कर सभी नदी की ओर चल पडे।


थोडी देर में सभी नदी के किनारे पहुंच गए। टीकम की बात सच निकली। नदी खाली थी। मानो किसी ने पूरे का पूरा पानी रात को चुरा दिया हो। किसी को कुछ समझ नहीं आया कि क्या करें। इसी बीच नीचे की ओर से भी लोग ऊपर को आते दिखे।  वे भी इसी उधेड बुन में थे कि नदी का पानी आखिर कहां गया ?


लोग नदी के किनारे-किनारे से पहाड की ओर चढने लगे। वहां से नदी नीचे बहती थी। नदी छोटी थी लेकिन आज तक कभी उसका पानी नहीं सूखा था। कितनी गर्मी क्यों पडे, उसका पानी बढता रहता। वह जिन ऊंचे पर्वतों के पास से निकलती थी वे हमेशा बर्फ के ग्लेशियरों से ढके रहते थे। उन पहाडों पर कई ऐसे हिमखंड थे जो सदियों पुराने थे। इस छोटी सी नदी से कई गांवों की रोजी-रोटी चलती थी। इसी के किनारे किसानों के क्यार थे, जिसमें वे धान, गेहूं बीजते और सब्जियां उगाते। अभी भी पहाडों के इन गांवों में कोई पानी की योजना नहीं थी, इसलिए लोगों ने जरूरत के मुताबिक गावों को छोटी-छोटी कूहलों से पानी लाया था। लेकिन आज तो जैसे उन पर पहाड ही टूट गया हो।


अभी तकरीबन एक किलोमीटर ही सब लोग ऊपर पहुंचे थे कि तभी इलाके का प्रधान पगडंडी से नीचे उतरते दिखाई दिया। उसके साथ कुछ अनजाने लोग थे जो पहाडी नहीं लगते थे। लोगों ने उसे देखा तो कुछ आसरा बंधा। वही तो उनके इलाके का माई-बाप है। इतने लोगों को साथ देखकर वह पल भर के लिए चौंक गया। फिर पुजारी से ही पूछ लिया,


‘पुजारी जी! सुबह-सुबह कहां धावा बोल रहे हो। खैरियत तो है न।


पुजारी के साथ लोगों ने जब प्रधान को देखा तो थोडी जान में जान आई। पुजारी कहने लगा,


‘प्रधान साहब! अच्छा हो गया कि आप यहीं मिल गए। क्या बताएं आपको ? देखो हमारी नदी का पानी ही सूख गया। पता नहीं कहीं देवता  हमसे नाराज तो नहीं हो गया है ?‘


पुजारी के कहते ही प्रधान की हंसी फूट पडी थी। उसके साथ जो अजनबी थे वे भी हंस पडे। किसी और को उनकी हंसी में कुछ लगा हो पर टीकम को हंसी अच्छी नहीं लगी। उसमें जरूर कुछ ऐसा था जो उसको भीतर तक चुभ गया। वैसे भी वह इक्कीस बरस का जवान मैट्रिक पढा था और पुलिस में नौकरी के लिए हाथपांव मार रहा था। गरीब परिवार से था इसलिए पढने कॉलेज शहर नहीं जा सका। पर घर रह कर ही पत्राचार से बीए की पढाई कर रहा था। वैसे भी गांव के लोग उसे परधान ही कहा करते क्योंकि वह हर समय लोगों के लिए कुछ कुछ करता रहता। कभी किसी की अर्जी-चिट्ठी लिख देता। कभी किसी का कोई काम कर देता। लोगों को उनके अधिकारों के बारे में बताता रहता। बोल-चाल में भी उसका कोई मुकाबला नहीं था। लोग तो उसे इलाके के भावी प्रधान के रूप में देखने लगे थे, परन्तु उसका इस तरफ कोई ध्यान नहीं था। उसे पता नहीं क्यों पुलिस की नौकरी का शौक था।


प्रधान ने जेब से सिगरेट निकाली और लाइटर से सुलगा कर पुजारी से बतियाने लगा,


‘बई पुजारी जी, सुबह सुबह इतने परेशान होने की जरूरत नहीं है। तुम्हारी नदी कहीं नहीं गई। अब वह बिजली बन गई है। इलाके में बिजली बन कर चमकेगी। तुम्हारे लिए नए-नए काम लाएगी। गांव के लोग मेरे को हमेशा बोलते थे कि प्रधान ने कुछ नहीं किया। आज हर घर से एक आदमी को कम्पनी काम दे रही है। मैं तो इसलिए ही तुम्हारे पास रहा था।

‘मतलब.......

टीकम ने बीच में ही प्रधान को टोक लिया। प्रधान हल्का सा सकपकाया। उसे टीकम कभी फूटी आंख नहीं सुहाया था। सुहाता भी क्यों, पढा लिखा समझदार था। प्रधान के लिए खतरे की घंटी कभी भी बजा सकता था।


‘मतलब यह बचुआ कि तू तो पढा लिखा है रे। अखबार नहीं पढता क्या ? सपने तो ठाणेदार बणने के देखता है। बई पुजारी जी! पहाड के साथ जो दूसरा जिला लगता है उसकी सीमा पर पिछले दिनों हमारे मुख्यमंत्री ने बिजली की नई योजना का उद्घाटन किया है। तुम्हारी वह नदी एक सुंरग से वहीं चली गई है। वहां उसकी जरूरत है। वह वहां बिजली तैयार करेगी।


‘पर हमारा क्या होगा प्रधान जी। इतने गांवों के खेत-क्यार सूख जाएंगे। घराट बन्द हो जाएंगे।

‘पानी रहेगा पुजारी जी। रहेगा। बरसात का पानी इसी में रहेगा। बई वह पहाड पर तो नहीं चढेगा न। फिर अब घराट-घरूट कौन चलाता है। बिजली से चक्कियां चलेगी। क्यों रे टीकम, क्यों नहीं लगाता एक दो चक्कियां। सरकार लोन दे रही है। काहे को पुलिस की नौकरी के चक्कर में पडा है।


इतना कह कर प्रधान ने वहां से खिसकना ही ठीक समझा। टीकम भले ही सारी बातें समझ गया हो पर लोगों की समझ में कुछ नहीं आया था। टीकम ने ही सभी को समझाया था कि इस पहाडी नदी को एक सुरंग से दूसरी तरफ ले जाया गया है और अब वह यहां लौटेगी नहीं। उधर उसके पानी से बिजली पैदा होगी।


नदी गायब होने के साथ उनके गांव पर एक और संकट खडा हो गया था। उनका गांव ऐसे पर्वतों की तलहट्टी में था जहां ग्लेशियरों के गिरने का खतरा हमेशा बना रहता था। अब रोज डायनामाइटों के धमाकों से टनों के हिसाब से उस नदी में चट्टाने गिरनी शुरू हो गई थी और नदी के किनारे जो घराट थे वे तो पूरी तरह नष्ट हो गए थे। जिस नदी में नीला साफ पानी बहता रहता उसमें मिट्टी पत्थर भरने लगे थे। सबसे ज्यादा खतरा टीकम के गांव को ही था। लोग जानते थे कि धमाकों के शोर से पहाड पर सदियों से सोया ग्लेशियर जाग गया तो उनके गांव को लील लेगा। इसलिए उन्हें कुछ करना होगा। इस योजना का जितना काम हो गया वह ठीक है पर इससे आगे होने से रोकना होगा।


टीकम ने गांव के लोगों की एक समिति का गठन किया था और एक आवेदन पत्र बना कर उस पर सभी के हस्ताक्षर करवाए थे। उसका मानना था कि प्रधान के पास जाने से कोई फायदा नहीं होगा। उन्हें विधायक और मुख्य मन्त्री से मिलना होगा। इसलिए सबसे पहले दस-बीस लोग टीकम की अगुवाई में पहले विधायक को मिले। लेकिन विधायक ने बजाए उनकी तकलीफ सुनने के उल्टा विकास का लम्बा चौडा भाषण दे दिया था। जब वहां बात बनी तो वे लोग जैसे-कैसे मुख्यमंत्री के पास गए और अपना दुखडा रोया। लेकिन वहां से भी खाली हाथ लौटना पडा था।


निराश-हताश वे लौटकर गांव चले आए थे। बिजली योजना का काम जोरों पर था। अब तो गांव के नीचे से एक सडक भी निकल रही थी जिसकी खुदाई और ब्लास्टों से उनके गांव के नीचे की पहाडी धंसने लगी थी। कई बीघे जमीन तो धंस गई थी। अब इस काम को रोकना उनकी प्राथमिकता थी।


सभी जानते थे कि प्रधान और विधायक से लेकर ऊपर तक कोई उनकी मदद नहीं करेगा। क्योंकि जिस कम्पनी को वह काम मिला था वह बहुत बडी कम्पनी थी जिसने अरबों रूपए इस योजना के लिए लगा दिए थे। उन्हें इससे कोई मतलब था कि उनके काम से नदी गायब हो रही है, या जंगल नष्ट हो रहे हैं या गांव की जमीन धंस रही , या गरीबों की रोजी-रोटी छीनी जा रही है। उनके लिए तो पहाड सोना थे और प्रदेश की सरकार विकास के नाम पर उस कम्पनी पर बहुत ज्यादा महरबान भी थी। मगर लोगों के पास अब कोई रास्ता बचा था।


पुजारी ने ही लोगों को सुझाया कि क्यों देवता का आशीर्वाद लिया जाए। वैसे भी उनके गांवों के देवता की दूर-दूर तक मान्यता थी। यहां तक कि चुनाव होने से पहले मुख्य मंत्री तक वहां मथा टेकना नहीं भूलते थे। वह प्राचीन मन्दिर था जिसकी भव्यता देखते ही बनती थी। दो मंजिले इस मन्दिर की एक मंजिल जमीन के नीचे थी जिसमें लाखों-करोडों का साज-सामान रखा हुआ था। मन्दिर के तकरीबन सभी कलश और मूर्तियां सोने की थी। किवाडों पर गजब की नक्काशी थी। यानी उस इलाके का वह सर्वाधिक भव्य मन्दिर था। देवता भी शक्तिशाली था।


देव पंचायत ने देवता का आहवान किया तो देवता नाराज हो गया। प्रधान, विधायक और मुख्यमंत्री पर बरस पडा। विनाश की बातें होने लगी। निणर्य हुआ कि विधायक को यहां बुलाया जाए। देवता की तरफ से फरमान जारी हुआ लेकिन विधायक नहीं आया। फिर मुख्य मन्त्री को फरमान गया। मुख्य मंत्री ने सहजता से उत्तर भी दिया कि वे देवता का अपार आदर करते हैं लेकिन विकास के मामले में देवता को बीच में लाना कोई विपक्षी राजनीति है। लोग निराश हो गए।


अब निणर्य हुआ कि मिलकर इस लडाई को लडा जाए। कम्पनी का काम रोका जाए। इसलिए उस गांव के साथ कई दूसरे गांव के लोग भी इकट्ठे हो गए और बडे समूह में विरोध करते हुए कम्पनी के काम को रोक दिया गया। लोग वहीं धरने पर बैठे रहे। दूसरे दिन उन्हें भनक लगी कि शहर से हजारों पुलिस जवान रहे हैं। टिकम पुलिस की ज्यादतियों से वाकिफ था। विचार-विमर्श हुआ। तय किया गया कि देवता का सहारा लिया जाए। कुछ लोग वापिस लौटे और देवता का पारम्परिक विधि-विधान से श्रृंगार किया गया। उनके पास यह अपने गांव, नदी और जमीन को बचाने का आखरी विकल्प था।


देवता अपने बजंतर के साथ पहली बार एक अनोखे अभियान के लिए निकला था। विरोध के लिए निकला था। आज कहीं देव जातरा थी और कोई देवोत्सव। किसी के घर कोई शादी-ब्याह था किसी की इच्छा  ही पूरी हुई थी।  दोपहर तक देवता विरोध स्थल पर पहुंच गया। देवता के साथ असंख्य लोग थे। सौ से ज्यादा लोग तो पहले ही कम्पनी के काम को रोके बैठे थे। देवता और सरकारी पुलिस तकरीबन-तकरीबन एक साथ पहुंचे थे। लोगों को विश्वास था अब कोई ताकत उनके विरोध को कुचल नहीं सकती। उनके साथ देवता है। उसकी शक्ति है।


स्थिति गंभीर बनती जा रही थी। लेकिन कम्पनी अपने काम को किसी भी तरह से रोकने के पक्ष में नहीं थी। यदि सडक निर्माण का यह काम रूक गया तो अरबों का नुकसान हो सकता था। इसलिए सरकारी आदेश भी ऐसे थे कि किसी तरह से लोगों को वहां से भगाया जाए।


पुलिस के एक बडे अधिकारी ने लाउडस्पीकर पर कई बार हिदायतें दीं कि लोग पीछे हटते जाएं। लेकिन लोगों का जलूस देवता के सानिध्य में बढता चला गया। सबसे आगे देवता का रथ था। सोने-चांदी के मोहरों से सजा हुआ। साथ उसके निशान थे। बाजा-बजंतर था। स्थिति जब नहीं संभली तो पुलिस को लाठी चलाने के आदेश दे दिए गए। वे शिकारी कुत्तों की तरह लोगों पर टूट गए। उस विरोध में मर्द, औरतें, जवान, बूढे और बच्चे भी शामिल थे।


लोगों की भीड पर पुलिस की लाठियां बरस रही थीं। पर लाठियों का  असर कोई खास नहीं हो रहा था। पहाडी शरीर, मिट्टी-गोबर से पुष्ट उन देहातियों पर जब लाठियां असरदार नहीं रहीं तो बंदूकें तन गई। फिर एकाएक गोलियां चल पडीं। पहली गोली देवता के एक बुजुर्ग कारदार को लगी थी। वह पहाडी से लडखडाता नीचे गिर गया। दूसरी गोली पुजारी को लगी। वह जोर से चीखा। उसके हाथ से फूल-अक्षत और सिंदूर की थाली नीचे गिर गई और बेहोश हो गया। लोग बहुत घबरा गए थे। अब गोलियों का सामना करना कठिन हो रहा था। वे पीछे हटने लगे। भागने लगे। लेकिन उनका भागना बेअसर साबित हुआ। रास्ता संकरा था जिससे ऊपर भागने में कठिनाई हो रही थी। आर-पार ढांक थे। दाईं तरफ गहरी खाई। नीचे असंख्य पुलिस वाले हाथों में लाठियां और बदूंके ताने ऊपर की ओर बढ रहे थे। दो युवाओं को भी गोली लगी थी। उन्होंने वहीं दम तोड दिया था। एक लडकी अन्तिम सांसे गिन रही थी। कई लोग घायल हो गए थे। रास्तों और झंखाडों में गिरे-पडे थे।





टीकम जेसे-कैसे देवता को बचाने में लगा था। रथ का मुंह पीछे मोड कर कारदारों को वहां से भागने के लिए चिल्ला रहा था। देवता श्रृंगार में था। लोगों के कन्धों पर था। उनके रथ छोडते बन रहा था और भागते हुए। देवता भी लाठियां-गोलियां नहीं रोक पाया। अपने हक की लडाई में लोग अपार विश्वास और आस्था के साथ उसे अपने साथ लाए थे। देवता के साथ यह अपनी तरह का अनूठा विरोध था पर गोलियों के आगे वह भी असहाय हो गया था। देवता के साथ लाने से लोगों में एक अतिरिक्त उत्साह पैदा हो गया था। उनके साथ देवता की शक्ति थी। कोई उनका कुछ नहीं कर सकता था। उनकी यह सोच गलत साबित हुई थी। देवता चुपचाप देखता रहा। गूर में कोई देवछाया नहीं आई। सहायक गूर भी नहीं खेले। पंचो की कोई पंचायत नहीं हुई। ढोल-नगाडे पहाडयों से नीचे लुढक गए। देवता गोलियां रोक पाया, अपने कारकुनों लोगों का जीवन बचा सका। कुछ युवाओं ने हिम्मत दिखा कर मरे हुए लोगों की लाशों उठा लीं थी।



लोग निराश हताश लौट रहे थे। घरों में औरतें और बच्चे इन्तजार कर कर रहे थे। मुश्किल से लोग गांव तक पहुंचे थे। उनके साथ एक कारदार, पुजारी और दो युवाओं की लाशें देख सभी का कलेजा मुंह को गया था। इस हादसे ने पूरे गांव और इलाके को दहला दिया था। देवता के गूरों और कारदारों को कुछ नहीं सूझ रहा था। युवा आक्रेाश में थे। उन्होंने देवता के रथ को कारदारों से छीन लिया और मंदिर के प्रांगण में रख दिया। साथ बचे हुए ढोल, नगाडे, करनाले और दूसरे वाद्य भी। एक युवा घर से मिट्टी का तेल ले आया। देवता के रथ को जलाने में अब कुछ ही देर थी। लेकिन टीकम ने उन्हें उन्हें समझा-बुझा कर रोक दिया था। जैसे कैसे लोग शान्त हुए तो देवता को कोठी में बन्द कर दिया गया। यह अविश्वास की परिकाष्ठा थी। आज कई भ्रम टूटे थे। आस्थाएं मरी थीं। देवता मन्दिर में चुपचाप पडा था। शक्तिविहीन। कहां गई उसकी शक्ति। क्यों उसने सहायता नहीं की। क्यों कोई चमत्कार नहीं हुआ। क्यों उसने अपना विराट रूप नहीं दिखाया। फिर किस लिए उसका बोझ गांव -परगने के लोग सदियों से ढोते रहे.....? ऐसे अनेकों प्रश्न थे जो लोगों के दिल में बार-बार उठ रहे थे।



बात आग की तरह पूरे इलाके में फैली गई थी। पुलिस की ज्यादतियों से लोग खिन्न थे। आश्चर्य चकित थे। देवता के होते हुए जो कुछ हुआ उसे देख कर हतप्रभ थे। जब देवता कुछ नहीं कर सका तो उनका कौन अपना होगा ? हताशाएं चारों तरफ थ। अन्धकार चारों तरफ था। परियोजना की बलि चढ जाएगा उनका गांव। पशुओं को पानी खेतों को पानी। जंगल की हरियाली नदी का शोर। कुछ भी नहीं। शेष रह जाएगा तो डायनामाइटों का शोर.... गिरते-दरकते पहाड। पिघलते ग्लेशियर..........


पुलिस वाले अब निश्चिन्त हो गए थे। उनकी गोलियों के आगे देवता की भी नहीं चली। वे मस्ती में खा पी रहे थे। उन्होंने सरकार के साथ कम्पनी के अफसरों को भी खुश कर दिया था। बकरे कट रहे थे। कम्पनी के लोगों ने सारे इंतजाम उनके लिए किए थे। पुलिस और कम्पनी के लोग पहले देवता के नाम से अवश्य डरते थे। उसके सुने हुए चमत्कारों से डरते थे। लेकिन अब महज ये किवदन्तियां ही थीं। जब पुलिस ने गोलियां दागीं तो वही परम शक्तिशाली देवता लोगों की पीठ पर भाग खडा हुआ था।


लेकिन अगले ही दिन यह समाचार सुर्खियों में था कि उस रात इस हादसे के शिकार हुए ग्रामीणों ने रात को शराब और मांस के उत्सव में मदहोश हुए पुलिस कम्पनी के लोगों पर धावा बोल दिया था और सुबह तक उनका वहां कोई नामोनिशान नहीं था। मौकाए वारदात से महज कुछ बंदूकें, दस-बीस लाठियां, दर्जनों शराब की टूटी हुई बोतलें, बकरों के कटे सिर और उधडी खालें और फटी हुई बर्दियों के टुकडे बरामद हुए थे। शायद जिस देवता को पुलिस के आतंक ने भगौडा बना दिया था वही ग्रामीणों में सामुहिक रूप से प्रकट हो गया था और ग्रामजनों ने अपने आक्रोश से शासन की दमनकारी शक्तियों को तहस-नहस कर दिया था।
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