संत शर्मा की कविताएँ

क्षेत्रीयता

क्यों बिखरती जा रही है रोज कडिया,
एकता,
विश्वास और आत्त्मियता की ?
है कौन वो,
जो बो रहे है शूल,
राष्ट्र के सीने में, क्षेत्रीयता की ?


जनतंत्र का ये गर्व भारत,
सदियों से बैरी रहा,
जिसका जमाना,
है शान से कहते रहे हम,
कुछ बात है हममे,
जो मिटता है नहीं,
ये आशियाना


क्या बात है हममे,
सिवाए एकता,
विश्वास और अत्त्मियता के ?
क्या बात है हममे,
सिवाए संस्कृति,
सिद्धांत और राष्ट्रीयता के ?


है विश्वास अपना,
की अतिथि देव होते है,
है विश्वास अपना,
की परहित धर्मं होता है


है विश्वास आपना,
की एकता में शक्ति होती है,
है विश्वास आपना की,
सर्वधर्म सम्मान ही,
सच्ची भक्ती होती है


यह विश्वास ही तो है,
जिसके सामने,
दिग्गजों के भी,
मनोबल टूट जाते है,
यह शक्ति ही तो है,
जिसके सामने,
शत्रु हार जाते है,
दुश्मनों के पसीने छुट जाते है


फिर कौन है वो,
जो सदियों से संचित,
इस शक्ति को,
नष्ट करने पर तुले है ?,
फिर कौन है वो जो,
भटक गए है,
मंजिल की राह भूले है ?


क्या हम चुप चाप,
बैठे देखते रहेंगे,
उनकी गुस्ताखियो को ?
या बढेंगे कुछ हाथ,
उनको रोकने को,
समझाने को,
राह दिखने को


कही देर ना हो जाये,
की राही भटक जाये,
रास्ता दिखाना शेष ना रहे,
कही देर ना हो जाये,
की मंजिल खो जाये,
फिर शायद,
इस राष्ट्र को बचाना शेष ना रहे

*******

सेवा ब्रत, शूल का पथ है

सेज नहीं है,
यह फूलो की,
नहीं,
समृद्धि का रथ है,
आग्नि क्षेत्र से,
पड़े गुजरना,
सेवा ब्रत,
शूल का पथ है


जब नर,
निज हितलाभ द्वंद से,
ऊपर उठ जाता है,
सकल लोक कल्याण हेतु,
उर,
ज्योति जला पाता है


जब कोई नयन,
सहज ही,
और के,
दर्द बहा जाता है,

जन समुद्र में,
फिर कही,
कोई,
मोती उभर पाता है


जटिल बड़ी यह राह,
गृहस्थ हों,
हों छद्म वैरागी,
चल पाते है,
इस पथ को,
होते है,
वे बडभागी

*******

आलोचक संतुष्ट नहीं होते

लाख जतन कर लिज्ये,
सुधा जल में ही भले धर दिज्ये,
नीम,
कड़वाहट नहीं खोते,
आलोचक,
संतुष्ट नहीं होते


ईश् ने,
जो ग्रीष्म की दी धुप,
आलोचकों के,
मोम तन जलने लगे


मेघ बरसाए,
जलन कुछ शांत हों,
जलमग्नता से,
त्राहि वे करने लगे


दी शरद,
हों धुप ना जलमग्नता,
ठिठुरन बढ़ी,
तो ईश् भी अब क्या करें ?


दुर्मति की जड़ जमाई मैल,
मौषम भला कब धोते ?,
आलोचक,
संतुष्ट नहीं होते


आलोचना,
गर हों श्रृजन हेतु,
तो वो स्वीकार्य हों,


पथ-भ्रष्ट को,
गर राह दिखलाये,
तो वो शिरोधार्य हों,


आलोचना, गर द्वेष दर्शाए,
तो तुम दिल की सुनो,
कुछ लोग,
हरदम ही मिलेगे रोते,
आलोचक,
संतुष्ट नहीं होते

*******
- संत शर्मा

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One Response to संत शर्मा की कविताएँ

  1. बहुत ख़ूबसूरत कविता ! इस शानदार, लाजवाब और उम्दा कविता के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!

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