हरीश बी. शर्मा की कविताएँ

हर रंग

कविता क्या है
मन की कल्पना
तन की अल्पना
प्रकृति के रंगों की रंजना
टेढे-मेढ़े पथरीले रस्तों पर चलता कोई अनमना
यही कवि का परिचय है
-----------
अपनापा
मैं
हाथ तेरा हाथ में ले
पवन बांधू साथ
चलूं सागर सात,
सातो भौम
अपनापा रचूं।
मैं रचूं एक-एक अणु में आस्था
भाव भर दूं
सूत्र-से साकार दूं
कुछ पैहरन बेकार
वो उतार दूं
हो वही मौलिक

कि जितना रच रहा
आवरण सारे वृथा उघाड़ दूं
-----------
तृप्तिबोध
तृप्तिबोध
तूने दिया
तूने बताया मैने पीया हलाहल
अब बच नहीं पाऊंगा
.....
तुझे क्या पता
तेरा यही रूप देखने
जी रहा था मैं
हां, अतृप्त
-----------
चेहरे चार
1.
सात समंदर-सात आसमां
सात शत्रु हैं मेरे
सभी दिशा-दरवाजे देखे
खुले सातवें फेरे
इतने जतन सत् शोधन को
कितने हुए सवेरे
सूरज बोला
निकल अंधेरे
देखले सच्चे चेहरे
2.
भाषा तेरी
भाषण मेरे
चेहरे पर हैं चेहरे
कौन दोस्त, किसे दुश्मन मानें
पहचानें पर संकट जानें
आस्तीन को कौन खंगाले
संकर हुए सपेरे
3.
रेत का सागर, तपते धोरे
सपने सीझे मुंह अंधेरे
सुबह जगें तो जलते खीरे
पानी बहुत है गहरे
पानी बहुत है गहरे
4.
रतजगे मेरे
भाव घनेरे
कैसे प्रकटूं तेरे-मेरे
तीजे नाम पे तलपट हो गई
इतने तेरे-उतने मेरे
टूटे सारे पहरे
-----------
कई बार
मुझे कई बार उतरना पड़ा है
सैलून की सीट से
थर्ड की टिकट-खिड़की पर
नंबर आते-आते
कई बार धकेला गया हूं मैं
पीड़ा हर बार हुई
मलहम लगाकर छुट्टी की
कभी कुरेदा ही नहीं
नासूर बनने नहीं दिए ऐसे घाव
क्योंकि माना गया जिसे नियति
उससे उलाहना क्या
फिर ऐसे लोगों की
स्टोरी भी तो नहीं बनती
-------------------
न बाहर, न बाद
ढाणियों पर राज को
बांटने समाज को
चलती है तलवारें
रिश्तों की गर्मी पिघल जाती है रोज
खुलते हैं अपने-अपने क्षेत्र
कह दें कुरुक्षेत्र
रचती है महाभारत
पीढ़ियां पढ़ाने के लिए
घड़ दिया जाता है इतिहास
द्रोपदी की लाज, पांडवों का वनवास
कृष्ण का अघोषित रास
आज भी बिकता है।
कृष्ण की गवाही पर पांडव बरी
शकुनि की कोशिशें नाकाम
दुर्योधन बदनाम
त्रियाचरित्र के क्लाईमैक्स के साथ
खत्म होती है महाभारत
सत्यवती से द्रोपदी तक सबूत ही सबूत
महाभारत खत्म होती है
भीष्म को मिलता है
लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड
शिखंडी यहां भी नहीं होता है
अन्न के कांसेप्ट पर झुक जाते हैं सबके शीश
फिर कौन पूछे भीष्म से महाभारत का कारण
आज भी छाती ठोककर कहता है वेदव्यास
न जयसंहिता से बाहर, न है कुछ भी इसके बाद
दोहराई जाती है द्रोपदी
सम्मान पाते हैं देवव्रत साहब।
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बुलबुले
काले झंडे, मुर्दाबाद की तख्तियां
कसकर बांधी मुट्ठियां
अतिरेक में इनकलाबी
लगता है दूर नहीं आजादी
असली आजादी
फिर सब सामान्य
नियंत्रण में लगता है माहौल
मिल जाते हैं अधिकार
मिल जाती है आजादी
हर बार मिलती है यह आजादी
असली आजादी
फिर एक दिन तख्तियां निकल आती हैं
मुट्ठियां भिंच जाती हैं
आजादी मांगी जाती है
पूछलें-पिछली का क्या हुआ
जवाब होगा-खा-पीकर खत्म की
---------------------
क्योंकि आदमी हैं हम
1.
मैं सरयू तट पर नाव लेकर
आरण्यक में एक से दूसरी शाख पर झूलते
लंका में अस्तित्त्वबोध के शब्द को संजोए
अपनी कुटिया में रामनाम मांडे
अलख जगाए-धूनी रमाए
प्रतीक्षा करता हूं-प्रभु की
और निष्ठुर प्रभु आते ही नहीं।
2.
चाहता हूं प्रभु
फिर तुम्हें एक लंबा वनवास मिले
अपने परिवार से होकर अलग
तुम वन-वन भटको
रात-रात भर सीते-सीते करते जागो
फिर जब सीता मिले
उसको भी त्यागो
3.
हे राम!
पुरुषोत्तम की यह उपाधि
तुम्हे यूं ही नहीं दी गई है
मर्यादा के, साक्षात सत्य के अवतार थे तुम तो
तभी तो तुम पुरुषोत्तम कहलाए।
विश्वसुंदरी की तरह चलवैजयंती भी नहीं है यह उपाधि
जो हर साल किसी और को मिल जाए
क्या तुम्हें इतना भी पता नहीं है!
4.
प्रभु!
इतने स्वार्थी मत बनो
मानवता के नाते आओ
हे अवतार! हे तारणहार!
हमें इन अमानुषों
समाजकंटकों से बचाओ
कब तक हम
इन दानवों से लड़ सकते हैं
आखिर तो बाल-बच्चेदार हैं
परिवार-घरबार, भरापूरा संसार है
कैसे बिखरती देख सकती हैं
मेरी इंसानी आंखें यह सब
5.
वादा रहा
आपका संघर्ष व्यर्थ नहीं जाने दूंगा
मंदिर बनवाऊंगा, मूर्तियां लगवाऊंगा
मानवता के प्रति आपकी भूमिका के पेटे
एक वाल्मीकी, हाथों-हाथ अपॉइंट करवा दूंगा
वक्त-जरूरत
तुलसीदास जैसों की सेवाएं भी ली जाएंगी
आप आइये जरूर खूब महिमा गाई जाएंगी।
--------------------------
शहर मेरा
पहला
हॉर्न होते हैं संक्रामक
बजते ही जाते हैं
मेरा शहर, जहां नहीं है वन-वे
जाने क्यों फिर भी
लोग नहीं टकराते हैं
तुम कह सकते हो सहिष्णु हैं
टकराकर भी कहते हैं जाने भी दो यार
या के इतने हो गए हैं ढीठ
जानते हैं, होना क्या है
ये शहर ऐसे ही चलेगा
किस-किस से करेंगे तकरार

दूजा
मुझे लगता है
सुकून-सिर्फ आरओबी पर मिलेगा
सबसे ऊंची जगह
दिखती है सिर्फ दौड़ती गाड़ियां
मैं रुकता हूं
रात कुछ बाकी
कुछ कोल्ड... कुछ ड्रिंक्स
सबकुछ अपने मन जैसा
अचानक, कोई पुकारता है
हरीश!
मैं झल्लाता हूं....
यार, ये शहर इतना छोटा क्यों है

तीजा
उन्हें चाहिए कान्वेंट की कविता
और मैं मारजा की दी ईंट को
हाथ पर रखे
घोटता पाटी
जूझता हूं कविता से
कवायद कविता की नहीं
चाहत, अंतर पाटने की है
इस कोर्ट मैरिज में
मैं कहीं सुन ही नहीं पाता
अंतरपट दो खोल
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जिंदगी
जीवन को
धूप-छांव का सहकार कहो
या दाना चुगती चिड़ियों के साथ
नादां का व्यवहार
पागल के हाथ पड़ी माचिस-सी होती है जिंदगी
दीवाली की लापसी, ईद की सिवइयां
क्रिसमस ट्री पर सजे चॉकलेट्स से
बहुत मीठी होती है जिंदगी
जिसे जीना पड़ता है
लेकिन सुधी पाठक ज्यादा माथा नहीं दुखाते
किताब बंद करते होते हैं
जब समाप्त लिखा आता है।
पेपरवेट
फड़फड़ाते कागजों के हाथों
'आखा' देकर, पवित्रता की पैरवी करती
दंतकथाएं सुनाती बुढ़ियाएं
कितनी ही तीज-चौथ करवा चुकी है
लेकिन अब ये पेपरवेट कम होने लगे हैं
उड़ने लगे हैं कथा के कागज
चौड़े आने लगा है चंदामामा से धर्मेला
तीज-चौथ आज भी आती है
भूखे पेट रहकर, आखा हाथ मे रखकर
बची-खुची बुढ़ियाएं तलाश, कथाएं फिर सुनी जाती है
फिर होती है ऐसे पतियों पर बहस
घंटों चलती है - उस जमाने पर टीका-टिप्पणी
सीता और द्रोपदी के दुख-सुख पर चटखारे
चलनी की आड़ से देखे चांद की
खूबसूरती भी शेयर की जाती है
'हम ही क्यों रखें व्रत'
ऐसी सुगबुगाहट भी होती है
कुछ ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देते
कहते हैं-बाकी है अभी बहुत कुछ
कुछ कहते हैं-खेल ही अब शुरू होगा बराबरी का
जब कुछ भी नहीं रहेगा चोरी-छाने
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