tag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post8016634236356973791..comments2024-01-02T22:07:29.922-08:00Comments on आखर कलश: गोविन्द गुलशन की ग़ज़लेंNarendra Vyashttp://www.blogger.com/profile/12832188315154250367noreply@blogger.comBlogger34125tag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-20208179858258861152011-03-12T23:04:01.130-08:002011-03-12T23:04:01.130-08:00उनके बयाँ जब बर्छीले हो जाते हैं
बस्ती में ख़ंजर ग...उनके बयाँ जब बर्छीले हो जाते हैं<br />बस्ती में ख़ंजर गीले हो जाते हैं<br />तुच्छ स्थानीय राजनीति पर गहरा कटाक्ष है और बयॉं है एक ऐसी परिस्थिति का जिसमें कुछ ज़हर उगलने वाले लोगों के बयॉं वैमनस्यता की ऐसी स्थिति पैदा कर देते हैं कि कई लोग बेमौत मारे जाते हैं और खंजर खून से सन जाते हैं (गीले हो जाते हैं)।तिलक राज कपूरhttps://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-27635001393120398352011-01-20T06:29:08.752-08:002011-01-20T06:29:08.752-08:00---ज़नाब गोविन्द जी की गज़लें पढीं,सुन्दर, पुर-सुकून...---ज़नाब गोविन्द जी की गज़लें पढीं,सुन्दर, पुर-सुकून तो हैं हीं, पुष्ट भी हैं...नरेन्द्र व्यास जी व जौहर जी की समालोचनायें भी स्वस्थ परम्परा में ही हैं, गोविन्द जी का उत्तर..<br />”हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी<br />जिसको भी देखना हो कई बार देखना ’ ....अति-सुन्दर बन पडा है<br /><br />---बाकी बहुत सी अशोभनीय टिप्पणियां कूडा करकट समझ कर भूल जाना चाहिये---टिप्पणियों का भी अपना नियम,अपनी शोभा होनी चाहिये जो असाहित्यिक्ता से परे नहीं जानी चाहिये...<br /><br /><br />"बस्ती में ख़ंजर गीले हो जाते हैं"----खन्जर गीले होने का अर्थ मुझे भी समझ में नहीं आया.... shyam guptahttps://www.blogger.com/profile/11911265893162938566noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-9202603135547551192010-12-05T09:37:06.733-08:002010-12-05T09:37:06.733-08:00@अश्विनी कुमार रॉय जी
रचना पर पाठक के सुझाव या आपत...@अश्विनी कुमार रॉय जी<br />रचना पर पाठक के सुझाव या आपत्ति दर्ज कराने के अधिकार को अविवादित रखते हुए मेरा मत यह है कि सुझाव या आपत्ति सारगर्भित और प्रामाणिक आधार पर होना चाहिये अन्यथा किसी के सृजन पर कुछ भी कह देना नैतिक रूप से ठीक नहीं लगता। मर्यादाओं के पालन से परस्पर सम्मान बना रहता है और कटु स्थितियॉं निर्मित नहीं होती हैं।<br /><br />जहॉं तक एक ग़ज़ल में परस्पर विरोधी सोच का प्रश्न है, मैं भी मानता हूँ कि शायर की सोच स्पष्ट रूप में सामने आना चाहिये लेकिन अपने ही एक शेर के माध्यम से एक उदाहरण देना चाहूँगा:<br /><br />देख कर ये रूप निर्मल गंग का<br />पाप मैं संगम पे अब धोता नहीं।<br /><br />एक ही शेर में दो परस्पर विरोधी आशय निकल रहे हैं। एक सामान्य अर्थ में है जिसमें शायर गंगा के निर्मल रूप को अपने पापों से दूषित नहीं करना चाहता है; दूसरा अर्थ कटाक्ष के रूप में देखें तो शायर कह रहा है कि तथाकथित निर्मल गंगा का रूप ऐसा हो गया है कि मैं इसमें पाप धोने का साहस नहीं कर पाता हूँ, मुझे विश्वास नहीं होता कि इसमें मेरे पाप धुल सकेंगे। <br />इस समस्या का सहज निराकरण इसमें है कि हम ग़ज़ल विधा की इस बात को ध्यान रखें कि हर शेर स्वतंत्र कविता है और कविता वैचारिक प्रस्तुति है जो देश काल और परिस्थिति के अतिरिक्त और भी बहुत से आधारों से जन्म लेती है। <br />काव्य विधा का मुझे ज्ञान तो नहीं तो नहीं लेकिन मेरा मानना है कि बिम्ब तलाशना पाठक का काम होता और जरूरी नहीं कि रचनाकार जो बिम्ब प्रस्तुत करना चाह रहा है वही पाठक को भी यथावत् दिखे। <br />यह केवल स्वस्थ चर्चा के उद्देश्य से है किसी टिप्पणी विशेष के संदर्भ में नहीं।तिलक राज कपूरhttps://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-12009051108565221802010-12-05T04:21:14.169-08:002010-12-05T04:21:14.169-08:00Govind ji ki gazlen padhi .. adhbhut gazlen
khas k...Govind ji ki gazlen padhi .. adhbhut gazlen<br />khas kar pahli gazal mujhe bahut pasand aayi ..<br />Matla kamaal aur lafz bewafa sunne ke baad patthar bane rah jana .. kamaal laga ..<br /><br />tay hua na fasla do kinaaron ka bahut atoot satay sher mein dhala hai <br /><br />4th gazal ka matla bhi bahut khoob laga..<br />zahreele aur neele ka sambhandh bahut khoobश्रद्धा जैनhttps://www.blogger.com/profile/08270461634249850554noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-11625325390030192532010-12-04T09:52:33.973-08:002010-12-04T09:52:33.973-08:00@तिलक राज कपूर जी,
आपकी यह बात कि “यह अविवादित है...@तिलक राज कपूर जी, <br />आपकी यह बात कि “यह अविवादित है कि ग़ज़ल का हर शेर स्वातंत्र कविता होता है।“ से मैं भी इत्तेफाक रखता हूँ. लेकिन जब कोई पाठक दो शे’रों को तसल्सुल में पढता है तो उसे इस किस्म की कुछ खामी सी लगती है कि दोनों बातें एक दूसरे का विरोध कर रही हैं. बहरहाल इस मसले को जनाब गुलशन जी ने पहले ही खत्म कर दिया है. इसलिए इस मसले पर ज्यादा जिरह से कोई फायदा भी नहीं है. मैं आपकी दूसरी बात से भी सहमत हूँ कि “टिप्पेणियों पर वार-प्रतिवार उचित नहीं।“ मगर जो आपने कहा है कि एक ही ग़ज़ल में शायर के परस्पहर विरोधी तेवर होने पर किसी पाठक की “आपत्ति उचित नहीं है।“ शायद सही न होगा. क्योंकि किसी भी रचना पर पाठक अपना सुझाव या आपत्ति तो दर्ज करा सकता है और ये उसका अधिकार भी है. लेकिन पाठक को यह कैसे मालूम हो कि अमुक आपत्ति उचित है या अनुचित? इसलिए साहित्य सृजन में हर प्रकार की टिप्पणी एवं सुझाव का स्वागत होना ही चाहिए, ऐसी मेरी मान्यता है. हाँ, बाद में भले ही इन आपत्तियों को गैर जरूरी मान कर खारिज कर दिया जाए.अश्विनी कुमार रॉय Ashwani Kumar Royhttps://www.blogger.com/profile/01550476515930953270noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-71248980380548887902010-12-04T08:08:34.584-08:002010-12-04T08:08:34.584-08:00मैं उपर्युक्त विवाद के हवाले से दो बातें कहना चाहत...मैं उपर्युक्त विवाद के हवाले से दो बातें कहना चाहता हूँ . पहली तो यह कि नफरत का सफर एक कदम या दो कदम. आप भी थक जायेंगे और मैं भी. मोहब्बत का सफर ...कदम दर कदम ..न आप थकेंगे और न हम. दूसरी बात मेरी मरहूम वालिद साहिब मुझे हर दम याद दिलाते रहते थे वो ये कि बा अदब बा नसीब, बे अदब बे नसीब. इस के अलावा मुझे नहीं लगता कि मेरे लिए कुछ कहने को बचा है. मेरी और से आप सब को शुभकामनाएं.अश्विनी कुमार रॉय Ashwani Kumar Royhttps://www.blogger.com/profile/01550476515930953270noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-82271521261920332852010-12-03T04:15:32.381-08:002010-12-03T04:15:32.381-08:00व्यासजी
आपका मेल मुझे मिल गया है।
मैं अपनी आलोचनाओ...व्यासजी<br />आपका मेल मुझे मिल गया है।<br />मैं अपनी आलोचनाओं से घबराने वाले लोगों में से नहीं हूं। घबराने का काम वही लोग करते हैं कुकुरमुत्तों की तरह उग जाते हैं और अपने आपको नामवर सिंह का पूज्यनीय पिताजी समझने लगते हैं।<br />मुझे दुख इस बात का है कि आप दो महान लोगों की टिप्पणियों को तो प्रकाशित कर दिया था लेकिन मेरी टिप्पणी धरी रह गई।<br />मैं साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा लेकिन साहित्यकारों के चोचलों को बखूबी समझता हूं।<br />मेरा आग्रह है कि आप बहस को चलने दे। गुलशनजी रचनाओं के बहाने ही सही इन कथित साहित्यकारों का चेहरा बेनकाब हो जाएगा।<br />आशा है आप मेरी बात पर विचार करेंगे।राजकुमार सोनीhttps://www.blogger.com/profile/07846559374575071494noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-8595479771822328102010-12-03T02:39:04.573-08:002010-12-03T02:39:04.573-08:00गोविन्द गुलशन जी की शायरी में पहले भी बड़े खूबसूरत...गोविन्द गुलशन जी की शायरी में पहले भी बड़े खूबसूरत प्रयोग देखे हैं, इस बार भी हैं।<br />ग़ज़ल विधा का दुर्भाग्य ही कहूँगा कि इस पर निरर्थक विवाद बहुत होते हैं। यह स्थापित तथ्य है कि ग़ज़ल की बह्र में हर शायर कहीं न कहीं कुछ छूट अवश्य लेता है। शायद ही कोई शायर हो जिसने बह्र में छूट कभी न ली हो। इसलिये बह्र को अलग रख दें तो बात बचती है रदीफ़ और काफि़या के पालन की जिसमें से रदीफ़ की त्रुटि तो सीधे सीधे शेर को खारिज करने योग्य बना देती है। काफिया के पालन में कुछ दोष रह जाते हैं तो ग़ज़ल दोष के साथ स्वीकार की जाती है। यह अवश्य है कि कोई ग़ज़ल खालिस तभी कही जा सकती है जब उसमें कोई दोष न हो, न शिल्प का न व्याकरण का। अदबी ग़ज़ल का हर शेर खालिस होना जरूरी है।<br />इसके बाद बात आती है कहन की स्पष्टता की, इसके लिये सही शब्द चयन और विराम चिन्हों का सही उपयोग जरूरी है। ग़ज़ल 1 के शेर 2 में इंगित यह दोष गुलशन जी ने टंकण दोष के रूप में स्वीकार किया है इसलिये इसपर भी किसी विवाद की स्थिति नहीं रहती। <br />कहन की अपनी अपनी शैली होती है <br />इक लफ़्ज़ ‘बेवफ़ा’ कहा उसने फिर उसके बाद<br />मैं उसको देखता रहा पत्थर बना हुआ<br />को अगर अन्य रूप में कहा जा सकता है तो वर्तमान स्वरूप निरर्थक नहीं हो जाता है। <br /><br />यह अविवादित है कि ग़ज़ल का हर शेर स्वतंत्र कविता होता है, ऐसे में एक ही ग़ज़ल में शायर के परस्पर विरोधी तेवर होने पर आपत्ति उचित नहीं है। <br />मुझे लगता है कि एक सामान्य पाठक का सरोकार रचना से निकलती कहन के आनंद पर केन्द्रित होना चाहिये। टिप्पणियों पर वार-प्रतिवार उचित नहीं।तिलक राज कपूरhttps://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-20684620886687282112010-12-03T00:49:25.461-08:002010-12-03T00:49:25.461-08:00पंकजजी और अन्य विद्धान साथियों,
मैं आप लोगों के ब्...पंकजजी और अन्य विद्धान साथियों,<br />मैं आप लोगों के ब्लाग पर इसलिए नहीं आया था कि मुझे लड़ने या भिंडने में मजा आता है। हां इतना जरूर है कि सच को डंके की चोट पर सच कहने में मुझे अच्छा लगता है। कल मैंने दो टिप्पणियां भेजी थी लेकिन मेरी उन टिप्पणियों को प्रकाशित नहीं किया गया। आपने टाईवाले बाबा को प्रतिबद्ध खिलाड़ी और न जाने किस तरह का धैर्य रखने वाला महान आदमी बनाने की चेष्टा कर डाली है। <br />आप मेरी पूर्व की दोनों टिप्पणियों को गौर से देखेंगे तो पाएंगे कि मेरा इशारा उसी यू-टर्न वाले मसले पर ज्यादा है। हां इस बात को कहते-कहते मैं ज्ञान बघारने वाले श्रीमानजी को ज्ञानचंद कह गया।<br />बहस को यूं ही समाप्त करने का जुमला फेंककर आपने शायद अच्छा नहीं किया।<br /> मैं अपनी मुर्गी की तीन टांग बताने वालों में से नहीं हूं लेकिन इन खोखले साहित्यकारों और भाषा वैज्ञानिकों के पांखड को अच्छी तरह से समझता हूं। मेरी पूर्व की दो टिप्पणियो के प्रकाशन नहीं होने से मुझे थोड़ी निराशा हुई है। मुझे यह लग रहा है कि आप सब लोग जिसमें श्रीमान टाईवाले बाबा, राय साहब और भी अन्य लोग शामिल है वे मठाधीशी पर यकीन रखते हैं और साहित्य के नाम पर गिरोह का संचालन करते हैं। यह टिप्पणी भेज रहा हूं अच्छी लगे तो प्रकाशित कर दीजिएगा। मेरी ओर से अभी बहस समाप्त नहीं हुई है।राजकुमार सोनीhttps://www.blogger.com/profile/07846559374575071494noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-19451483123624715732010-12-02T10:05:53.530-08:002010-12-02T10:05:53.530-08:00नेट की समस्या के चलते आज यहाँ कुछ नहीं लिख पाया......नेट की समस्या के चलते आज यहाँ कुछ नहीं लिख पाया...गोविन्द जी और पंकज जी को मेरा विलम्बित किंतु हार्दिक अभिवादन पहुँचे...अन्य समस्त सम्मानित साथियों को भी!<br /><br />कल एक-दो आवश्यक बातें करूँगा...यदि मौक़ा मिल सका...शुभरात्रिजितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauharhttps://www.blogger.com/profile/06480314166015091329noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-83217333411586182612010-12-02T08:58:11.899-08:002010-12-02T08:58:11.899-08:00गोविन्द गुलशन जी की रचना के सन्दर्भ में कुछ बात......गोविन्द गुलशन जी की रचना के सन्दर्भ में कुछ बात...<br /><br />(१)श्री जौहर जी ने अपनी बात में ईन रचनाओं की सराहना जरूर की है, साथ ही कुछ वाजिब टिप्पणी भी की है | इसे हम स्वस्थ मन से की गयी आलोचना भी कहें तो बेहतर होगा | <br /><br />(२) जौहरजी ने रौशनी की याचना करने की बात और दूसरे शेर में चराग हूँ मै... यु-टर्न लेने की बात | सच कहूं तो एक सजग पाठक हो या जौहरजी जैसे जानकार-अभ्यासी यही कहेंगे | मैं उनके साथ सहमत हूँ | उन्हों ने गोविन्दजी की सराहना की तो आलोचना भी बड़ी सहजता से की है | मेरे ख्याल से एक सर्जक और अच्छे इंसान की यही निशानी है | जौहरजी ने यहाँ भाषा के लिए टूल- शब्द का ईस्तमाल किया है | यह भी सही है, क्यूंकि अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करना, कलात्मकता से करना और फिर उसके स्वरूप को समझकर करना | यह सम्पूर्ण प्रक्रिया परिपक्वता से आती है | प्रत्येक इंसान को परिपक्वता की समझ अपनेआप होती है | <br /><br />(३) श्री राजकुमार सोनी जी की विद्वता पर भी आशंका नहीं है | उनकी आलोचना का दायरा थोड़ा सा फ़ैल गया है | उन्हें जो बात कहनी थी या कही है - अगर यह सब लिखते वक्त उनकी थोड़े से शांत होते तो इससे भी बेहतर आलोचना हमें मिल पाती और "आखर कलश" के सभी पाठको और इस चर्चा में हिस्सा लेनेवालों को अलग और सकारात्मक परिणाम मिलता | कईबार मानव स्वभाव के अनुसार हम जल्दबाजी करके आक्षेप करते हैं, ऐसे समय एक सर्जक होने के कारण हमारा उत्तरदायित्त्व बनाता है की सब्र करते हुए और ईश्वर को साक्षी रखकर खुद ही समझ लें की हमारी समझदारी में परिपक्वता हैं या नहीं | अगर हैं भी तो इसका कैसे उपयोग करें ? सर्जन करना और आलोचना करना- बच्चे पैदा करना और उसकी परवरिश करना जैसा है | प्यार और बलात्कार जैसा फर्क है यह |<br /><br />(४) श्री जौहरजी का चेलेंज उनकी प्रतिबद्धता और आत्मविश्वास दर्शाता है | तो श्री अश्विनी कुमार ने आसान तरीका लिया और बहस को पीछे छोड़ दिया है | <br /><br />(५) ईस गर्मजोशी भरी चर्चा के बाद "आखर कलश" परिवार की ओर से मैं ईस मंच पर उपस्थित नामी-अनामी सभी विद्वानों का हृदयपूर्वक आभार प्रकट करता हूँ और सभी को नम्र अपील करता हूँ की बहस को हमे विराम देना उचित रहेगा | "आखर कलश" पर इस चर्चा करने और उसे अपना ही मानकर सहयोग देने वाले सभी सर्जकों का भी हम आभारी हैं | <br /><br />आपका स्नेही,<br /><br />- पंकज त्रिवेदीPankaj Trivedihttps://www.blogger.com/profile/10063320631434883552noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-52485816352593977552010-12-02T07:09:08.392-08:002010-12-02T07:09:08.392-08:00बहुत-बहुत शुक्रिया इस्मत ज़ैदी जी आपका
मैं बहुत मम...बहुत-बहुत शुक्रिया इस्मत ज़ैदी जी आपका<br />मैं बहुत ममनून हूँ कि आपने ग़ज़ल को पसंद किया<br />दुआओं में याद रखिएगाGOVIND GULSHANhttps://www.blogger.com/profile/01140648535118496417noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-80706646782978137652010-12-01T22:49:49.816-08:002010-12-01T22:49:49.816-08:00मेरा किसी से बैर नहीं है और किसी के प्रति मैं मैल ...मेरा किसी से बैर नहीं है और किसी के प्रति मैं मैल भी नहीं रखता। हो सकता है कि जिस फार्मूले पर आप लोग जिन्दगी को जीते हो उस फार्मूले पर मैं जिन्दगी नहीं जीता।<br />आखिरी बात भाषा के महान शिल्पियों....<br />जो मेरा दिल कहता है मैं वहीं करता हूं।<br />आप माने या न माने लेकिन यह सच है कि<br />दिल की बात समझने के लिए किसी भाषा की जरूरत कभी नहीं होती। दिल की भाषा में अल्प विराम, पूर्ण विराम और समीक्षा की आवश्यकता नहीं होती।<br />मिलते हैंराजकुमार सोनीhttps://www.blogger.com/profile/07846559374575071494noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-23686942435852024472010-12-01T22:38:54.572-08:002010-12-01T22:38:54.572-08:00तो लाट साहबों
आप लोगों ने मेरी टिप्पणियों को निजी ...तो लाट साहबों<br />आप लोगों ने मेरी टिप्पणियों को निजी बताकर खुद को पवित्र बताने का जो उपक्रम जारी रखा है उस पर थोड़ी बात हो जाए।<br />श्रीमानजी मेरी टिप्पणी गुलशनजी की रचना को लेकर ही थी। उनकी दिल को छू लेने वाली रचना पर जब मैंने खलल देखा तो मुझे अच्छा नहीं लगा। जब कोई एकायक आपका प्रिय बन जाए और कोई दूसरा उसे डंडा मारे तो आप क्या करेंगे। मुझे नहीं लगता कि आपको सार्वजनिक मंच पर ज्ञान बघारने की जरूरत थी। अपनी ज्ञान की आंखों का मीनाबाजार आप गुलशनजी या व्यास जी को मेल भेजकर भी लगा सकते थे, लेकिन नहीं साहेब आपको तो यह बताना है कि मैं तोपचंद हूं। देखो मैं कितना पढ़ता-लिखता हू। मैं उघानचंद हूं। मैं रामवृक्ष बेनीपुरी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नामवर सिंह, मैंनेजर पांडेय और परमानंद श्रीवास्तव का बाप हूं।<br />तो साहेब लोगों आप लोगों को यह जानकार शायद हैरत होगी कि इस देश में आलोचक कुकुरमुत्ते की तरह उगते हैं। लुद्दी के माफिक पैदा होने वाले आलोचकों को लोग सम्मान की निगाह से इसलिए भी नहीं देखते क्योंकि इनका जीवन से कोई वास्ता नहीं होता।<br />आप लोग साहित्य के बहुत बड़े उखाड़ फेंक हैं। क्या आप लोगों को यह नहीं मालूम कि साहित्यकारों को अपनी पुस्तकें छपवाने के लिए क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं। मैं दावे के साथ कहता हूं कि इस देश के अस्सी फीसदी साहित्य के लेखकों को अपनी किताबें प्रकाशकों को पैसे देकर छपवानी पड़ती है। (मेरे ख्याल से आप भी उन साहित्यकारों और आलोचकों में से एक है)<br />जब लेखक की किताब छपकर आ जाती है तो उसे महान बताने के लिए समीक्षा कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। जो लेखक आलोचकों को दारू पिलाने की ताकत रखता है वह महान लेखक हो जाता है। दूसरों की रचनाओं पर मीन-मेन निकालने से ज्यादा जरूरी है जीवन को समझना। गुलशनजी की हर रचना जीवन के करीब है। गुलशनजी ने निंदा फाजली का शेर कोड किया है- हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी।<br />हे साहेब लोगों.. आप लोग अपनी भाषा का बैरोमीटर अपने पास रखें। अरे हां एक उघानचंद बनाम ज्ञानचंद ने गोबर वगैरह का उल्लेख कर यह तो बता दिया ही दिया है वह खुद के द्वारा घोषित किया समीक्षक है। महोदय यदि मैंने गोबर कर ही दिया है तो आप साफ कर दीजिए... क्योंकि इस देश के कथित समीक्षक दूसरों की गोबर साफ करने का ही काम कर रहे हैं और हां ऐसे महान समीक्षकों को खुद की गोबर नहीं दिखती। वे अपने गोबर पर चूना छिड़ककर काम चला लेते हैं।राजकुमार सोनीhttps://www.blogger.com/profile/07846559374575071494noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-62621619068676550482010-12-01T20:55:55.025-08:002010-12-01T20:55:55.025-08:00गोविंद गुल्शन जी की सभी ग़ज़लें ख़ूबसूरत हैं कुछ अ...गोविंद गुल्शन जी की सभी ग़ज़लें ख़ूबसूरत हैं कुछ अश’आर तो बहुत पसंद आए जैसे<br /><br />वो क्या था और तुमने उसे क्या बना दिया<br />इतरा रहा है क़तरा समंदर बना हुआ<br /><br />चराग़ हूँ मैं , ज़रूरत है रौशनी की तुम्हें<br />बुझा दिया था तुम्ही ने तुम्ही जलाओ मुझे<br /><br /><br />उसकी क़ीमत समन्दर से कुछ कम नहीं<br />कोई क़तरा अगर रेगज़ारों में है<br /><br />बहुत ख़ूब!ख़ूबसूरत शायरी है !<br />ये तो हुई कलाम की बात ,इतनी लंबी बहस के बाद गोविंद जी ने जो ’ख़त’ लिखा है वो भी क़ाबिल ए तारीफ़ है ये इंकेसार साबित करता है कि वो एक अच्छे शायर ही नहीं अच्छे इन्सान भी हैं .इस्मत ज़ैदीhttps://www.blogger.com/profile/09223313612717175832noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-11604140018404955412010-12-01T09:33:49.629-08:002010-12-01T09:33:49.629-08:00श्री गोविन्द गुलशन जी ने टिपण्णी पोस्ट नहीं हो पान...<b>श्री गोविन्द गुलशन जी ने टिपण्णी पोस्ट नहीं हो पाने के कारण अपनी प्रतिक्रिया मुझे मेल द्वारा प्रेषित की जो आपके समक्ष है :-</b><br />आदरणीय नरेन्द्र जी सादर अभिवादन,<br />मैंने आखर-कलश पर टिप्पड़ी देनी चाही थी मगर error आ गया<br />इस लिए अपनी प्रतिक्रिया आपकी माध्यम से दे रहा हूँ<br /><br />********************************<br />क्षमा प्रार्थी हूँ कि मैं यहाँ देर से पहुँचा ,साथ ही शुक्रगुज़ार हूँ सभी मित्रों का जिन्होंने अपनी<br />प्रतिक्रिया आखर-कलश के पटल पर रखी.<br />जनाब शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' साहब बहुत बहुत शुक्रिया कि आपने अपनी दुआओं से नवाज़ा<br /> .<br />****************************************************************************************<br />जनाब जितेन्द्र जौहर जी आपकी प्रतिक्रिया पड़कर बहुत ममनून हूँ कि आपने अपनी <br />बेबाक़ राय पेश की और अपना क़ीमती वक़्त ख़र्च किया, मैं इस बात से मुत्तफ़िक़ हूँ<br />कि ‘लफ़्ज़’ शब्द के स्थान पर ‘बेवफ़ा’ शब्द को इन्वर्टेड कॉमा के अन्दर बंद करना चाहिए था...<br />ऐसी ग़लतियाँ टाइपिंग में अक्सर हो जाया करती हैं इसके लिए मुझे खेद है और आभार <br />व्यक्त करता हूँ आपका कि आपने याद दिलाया.<br /><br />आपने दुरुस्त फ़र्माया कि ग़ज़ल न० के 4 शे’र न० 6 कुछ छूट गया है<br />एक लफ़्ज़ ’ही’ टाइप नहीं हो पाया है, मुकम्मल शे’र इस तरह पढ़ा जाए<br /><br />रंग - बिरंगे सपने दिल में ही रखना<br />आँखों में सपने गीले हो जाते हैं ....................यहाँ भी टाइपिंग में ग़लती हुई है ...... शुक्रिया<br />*******************************************<br />भटक रहा हूँ अँधेरों की भीड़ में कब से<br />दिया दिखाओ कि अब रौशनी में लाओ मुझे<br /><br />चराग़ हूँ मैं , ज़रूरत है रौशनी की तुम्हें<br />बुझा दिया था तुम्ही ने तुम्ही जलाओ मुझे<br /><br />आपने कहा है<br />"अभी जो ग़ज़लकार ऊपर वाले शे’र में रौशनी की याचना कर रहा था, वह अचानक एक यू-टर्न-सा <br />मारकर रौशनी का स्रोत यानी ‘चराग़’ बना दिखा दे रहा है...भले ही वह चराग़ अभी बुझा है !"<br /><br />यहाँ मैं अपने दिल की बात आप तक पहुँचाना चाहता हूँ <br />मुझे एक शे’र जनाब निदा फ़ाज़ली साहब का याद आ रहा है<br /><br />”हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी<br />जिसको भी देखना हो कई बार देखना ’ <br /><br />कोई शायर या रचनाकार सिर्फ़ अपने लिए शायरी नहीं किया करता<br />शायर कब किसके खयाल में डूब जाये उसे ख़ुद ख़ब्रर नहीं होती<br />प्रतुत दोनों शे’र अलग-अलग किरदार की सोच के प्रतीक हैं,मेरा ख़याल है कि<br />मेरी बात आप तक ज़रूर पहुँची होगी. उम्मीद करता हूँ दुआओं में बनाए रखेंगे<br />****************************************************************************<br />जनाब प्रवेश सोनी साहब और जनाब सुमन'मीत' साहब बहुत बहुत शुक्रिया आपका <br />यूँ ही मुहब्बतें बाँटते रहिएगा<br />*******************************************************<br /><br />जनाब राजकुमार सोनी साहब मैं शुक्रगुज़ार हूँ आपका कि आपने<br />अपने भाव व्यक्त किये,मैं आपकी भावनाओं की क़द्र करता हूँ<br />सच्चा रचनाकार वही है जो हर एक प्रतिक्रिया को सकारात्मक सोच में शामिल करले<br />इसलिए मैं भी सकारात्मक सोचते हुए चाहता हूँ कि बहस यहीं ख़त्म हो जाए<br />दुआओं में शामिल रखिएगा...शुक्रिया<br /><br />************************************************************<br /><br />जनाब अश्विनी कुमार रॉय साहब बहुत-बहुत शुक्रिया आपका<br />कि आपने अपनी राय पेश की<br /><br />************************************************************<br />जनाब सुनील गज्जाणी साहब बेहद शुक्रगुज़ार हूँ आपका कि आपने बड़ी सहजता से <br />अपनी बात सबके सामने रखी,सच तो ये है कि हम सब शहरे-अदब के बाशिन्दे हैं <br />हमें अदब का खयाल रखना चाहिए , मेरी राय और आपकी राय एक जैसी हैं<br />इसलिए चाहता हूँ कि इस बहस को यहीं विराम दे दिया जाए.<br /><br />स्नेही भाई नरेन्द्र व्यास जी का बहुत- बहुत शुक्रिया कि उन्होंने मुझे यहाँ की सूरत-ए हाल से वाक़िफ़ कराया<br />अगर मेरी किसी बात से किसी मित्र का दिल दुखा हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ मुझे यक़ीन है कि तमाम दोस्त -एह्बाब<br />दुआओं में बनाए रखेंगे<br />शुक्रियाNarendra Vyashttps://www.blogger.com/profile/12832188315154250367noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-11190401433249331142010-12-01T09:02:41.712-08:002010-12-01T09:02:41.712-08:00गोविन्द जी ,
आपको पहली बार पढ़ा है...बहुत ही ताज़ा त...गोविन्द जी ,<br />आपको पहली बार पढ़ा है...बहुत ही ताज़ा तरीन गजलें ..हर शेर एहसासों की खुशबू से लबरेज.....तकनीकी ज्ञान मुझे नहीं गज़ल का लेकिन भाव दिल तक पहुंचे.....<br /><br />इक ’लफ़्ज़’ बेवफ़ा कहा उसने फिर उसके बाद<br />मैं उसको देखता रहा पत्थर बना हुआ<br /><br />बहुत भावपूर्ण शेर ...<br /><br />तुम्हारे पास वो सिक्के नहीं जो बिक जाऊँ<br />मेरे ख़ुलूस की क़ीमत नहीं बताओ मुझे<br /><br />क्या बात है.... बहुत उम्दा...<br /><br />जेब में जब गर्मी का मौसम आता है<br />हाथ हमारे , ख़र्चीले हो जाते हैं<br /><br />सटीक....सभी का अनुभव है ये...<br /><br />अच्छा लगा आपको पढ़ना..<br /><br />मुदितामुदिताhttps://www.blogger.com/profile/14625528186795380789noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-61005483023824615282010-12-01T08:02:44.876-08:002010-12-01T08:02:44.876-08:00@ राजकुमार सोनी,
हाऽऽ...हाऽऽऽ...फिर वही बचकानापन.....@ राजकुमार सोनी,<br />हाऽऽ...हाऽऽऽ...फिर वही बचकानापन...फिर वही गोबर टपकाकर चलते बने ...हाऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ...! <br /><br />यार...जब शऊर नहीं है (जिसकी संभावना ख़ुद दर्शा गये हो), तो क्यों टिप्पणी करने आ गये...और यदि लाये ही गये थे(जैसा कि ख़ुद बता रहे हो), तो कुछेक तर्क व तथ्य लेकर प्रकट होते...यूँ सार्वजनिक स्थान पर क्यों अपनी कलई खुलवाने पर तुले हो...एकबार गोबर कर ही गये थे...दुबारा फिर वही गोबर...? <br /><br />माना कि मदांधता और अग्रहणशीलता के चलते कुछ नया नहीं सीख पाये हो...तो किसी सक्षम या जानकार से विमर्श ले लिया होता...अब अगर आना, तो कुछ तर्क लेकर आना...यह बात मैंने पहले भी कही थी, पुनः कह रहा हूँ!<br /><br />हाँ... यूँ व्यक्तिगत होना शुरू कर दूँ...तो बहुत कुछ सामने है, कहने को! कुल मिलाकर मुझे लगता है कि कभी किसी समीक्षक ने समूचे लेखन-प्रयास को तौलकर धर दिया होगा...शायद तभी से मन में एक चिढ़-सी पैदा हो गयी होगी...! <br /><br />आपादमस्तक दर्प का भोंड़ा कायिक अनुवाद-सा बनकर घूमने वाले अधकचरे लोगों को कौन ज्ञान दे सकता है...वे स्वयं ‘परमज्ञानी’ होते हैं...स्वयंभू ही सही! ...और फिर, ज्ञान दे ही कौन रहा था? मेरे प्रमाणसम्मत तर्क अभी भी इस मंच पर टिप्पणी-रूप में दर्ज हैं...आगे भी रहेंगे ही! यदि कभी भी उन तर्कों को स+तर्क काट सको , तो ज़रूर आना...स्वागत करूँगा! <br /><br />मोतियाबिन्दीय आँखों का जाला हटा/हटवाकर मेरी वह संदर्भित टिप्पणी पुनः पढ़ो...‘ध्यानचंद’ बनकर! फिर... मन-ही-मन सोचो कि उस ‘ज्ञानचंद’ ने आख़िर कितने मनोयोग से...कितनी बारीकी से गोविन्द गुलशन जी को पढ़ा होगा...तब जाकर टिप्पणी दर्ज की...हर टिप्पणी-कर्ता राजकुमार सोनी की तरह सतही,व्यक्तिगत, निरर्थक, निस्सार, निराधार एवं अप्रमाणिक बातें नहीं कर सकता है।जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauharhttps://www.blogger.com/profile/06480314166015091329noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-40324794739356043032010-12-01T07:25:13.030-08:002010-12-01T07:25:13.030-08:00आदरणीय सोनी जी को मेरा कोटि-कोटि प्रणाम! आप मेरी ट...आदरणीय सोनी जी को मेरा कोटि-कोटि प्रणाम! आप मेरी टिप्पणियों के सन्दर्भ में जितना अधिक नाराज़ होंगें उतना ही अधिक हमें आपके ज्ञान का प्रकाश मिलेगा, ऐसा मेरा विश्वास है. अल्प विराम और पूर्णविराम न केवल साहित्य में मिलते हैं अपितु हमारे दैनिक जीवन में भी इनका सर्वाधिक महत्व है. यदि हम उचित स्थान पर विराम न लें तो दुर्घटना तक की आशंका बन जाती है. साहित्य सृजन में कोई भी टिप्पणी अपनत्व तथा रचना से प्रेम के वशीभूत ही होती है. यदि किसी रचना के लिए कोई भी टिप्पणी प्राप्त न हो तो इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि रचना नीरस थी और यह पाठकों को किसी भी प्रकार की टिप्पणी के लिए आकर्षित या प्रेरित नहीं कर पाई. अगर हम रचनाओं को केवल इसलिए ब्लॉग पर पोस्ट करते हैं कि लोग पढ़ें और चले जाएँ तो यह काम तो बहुत सी पत्रिकाओं में भी हो सकता है जिन्हें लोग पढ़ कर (बिना किसी टिप्पणी के) रद्दी में फेंक देते हैं. ज़ाहिर है ब्लॉग पर हमें पढ़ने के साथ साथ चिंतन, आत्म-मंथन और टिप्पणी लेखन जैसे कई विकल्प भी प्राप्त होते हैं. अब रही बात टिप्पणी की, तो मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि यह केवल रचना पर होती है न कि रचयिता के विषय में. यह अत्यन्त खेद का विषय है की वर्तमान प्रकरण में रचनाकार तो मौन है (संभव है कि गुलशन जी इस ब्लॉग में दी गई टिप्पणियों से इत्तेफाक रखते हों) परन्तु सोनी जी, अन्य पाठकों से उनकी टिप्पणियों पर स्पष्टीकरण की मांग कर रहे हैं. वैसे इसमें भी कोई बुराई नहीं है परन्तु इस बहस को व्यक्तिगत न लेते हुए सार्थक एवं सटीक तर्क देकर सब को अपनी बात रखने का अधिकार होना चाहिए. जहां तक मेरा सम्बन्ध है, मैं तो हिन्दी पढ़ने वाला एक अदना सा विद्यार्थी हूँ. भला मुझ में भाषा का वैज्ञानिक कहलवाने का सामर्थ्य कहाँ? यदि आपने ऐसा मजाक-मजाक में कहा है तो ठीक है क्योंकि आपको ऐसा कहने का पूर्ण अधिकार है. रही बात जौहर साहेब की, तो इनकी उपर्युक्त टिप्पणी से मैं पूर्णतया सहमत हूँ. इनकी विभिन्न रचनाएं मैं अन्यत्र भी पढता ही रहता हूँ तथा मुझे हमेशा इनसे नई बातें सीखने को मिलती हैं ...बस इतना ही जानता हूँ. आपने अपने बारे में पता लगाने को कहा है...सो अब इसकी आवश्यकता ही नहीं रही क्योंकि आपका परिचय तो मुझे आपकी इस सुन्दर लेखनी से ही मिल गया है. मैंने स्वयं के विषय में अब तक कोई श्रेष्ठता प्रमाण पत्र प्रस्तुत नहीं किया है लेकिन हां...मैं आज आपकी श्रेष्ठता के आगे अवश्य ही नतमस्तक हो गया हूँ. यदि अभी भी आपके मन में मेरे प्रति कोई मैल है तो मैं इसके लिए खेद व्यक्त करता हूँ.अश्विनी कुमार रॉय Ashwani Kumar Royhttps://www.blogger.com/profile/01550476515930953270noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-66510134998249802342010-12-01T04:34:25.003-08:002010-12-01T04:34:25.003-08:00सुधि पाठकगणों की प्रतिक्रियायें पढ़ी, सम्मानीय शायर...सुधि पाठकगणों की प्रतिक्रियायें पढ़ी, सम्मानीय शायर जनाब 'गोविन्द गुलशन जी' की ग़ज़लों के प्रति मेरा ये मानना है कि एक विशेष विषय में पारंगत व्यक्ति अपने विषय कि लेखन में कही कोई कमी या अधूरापन कहीं भूल वश छोड दे, ये अलग बात होती है. अगर वो ही पारंगत रचनाधर्मी, अपने शिल्प, अपने व्याकरण को किनारे कर उस विषय की रचना करे .. ये हो नहीं सकता .. हाँ, अगर कहीं कमी हो तो तर्कसंगत विचार या प्रतिक्रिया रचनाकार या पाठको के समक्ष प्रस्तुत की जाए तो स्वयं का भी ''वास्तिवक ज्ञान'' हम सब के समक्ष रखने पर रचनाकार सहित हमे/पाठकों भी कुछ नया '' शब्द ज्ञान'' या शिल्प्ज्ञान प्राप्त हो. अगर स्वयं समीक्षक अधूरा ज्ञान लिए सिर्फ स्वयं को अलग दिखाने के चक्कर में या उक्त रचना को बिना समग्र ग्रहण करे मूल्विशय से अलग कमेंट्स करते हैं या व्यक्तिपरक प्रतिक्रियाएं देते हैं, उससे रचनाकार भी आहात होता है और पाठक भी भ्रमित होते है , सच्चा ज्ञान उम्र से भी नहीं होता, वरन गुणन, साधना से होता है, सिर्फ ''सतही'' से नहीं. अगर किसी साहित्यक विषय का परम्परागत ज्ञान ना होतो सीखने में भी कोई शर्म नहीं होनी चाहिए और प्रतिक्रिया देने कि ज़ल्द बाज़ी से बचना चाहिए. साथ ही किसी व्यक्ति विशेष को व्यक्तिगत इंगित ना करते हुवे सम्बंधित विधा में लिखी रचना पर प्रतिक्रिया अगर केन्द्रित हो तो सम्मान, मैत्री, ज्ञानवर्धन और विचारों का सम्प्रेषणसमभाव से बना रहता है. यही गुजारिश है. समस्त सम्मानित गुणी साहित्यिक अतिथियों व आगंतुकों का हार्दिक आभार !!सुनील गज्जाणीhttps://www.blogger.com/profile/12512294322018610863noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-8794545605337349352010-12-01T03:44:31.942-08:002010-12-01T03:44:31.942-08:00साहित्य की समझ बघारने वालों
अल्प विराम और पूर्ण वि...साहित्य की समझ बघारने वालों<br />अल्प विराम और पूर्ण विराम में जीवन की सार्थकता तलाशने वालों<br />मनुष्य और उसकी जिजीविषा से कोई बड़ा नहीं होता<br />पहले मेरे बारे में ठीक-ठाक पता लगा लो फिर अपनी घटिया समझ की लीद से आंगन को लीपने-पोतने की तैयारी करना.<br />आप महानुभावों के बारे में मुझसे व्यासजी ने निवेदन किया था... <br />हो सकता है कि मुझे टिप्पणी करने का शऊर न हो लेकिन इतना शऊर तो है कि किसकी टिप्पणियों पर जवाब देना है और किससे बहस करनी है।<br />जो लोग हर जगह अपने श्रेष्ठ होने का प्रमाण पत्र बांटते फिरते हैं, मुझसे उनसे प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं है। आप लोगों ने ज्ञान बघारा था इसलिए मुझे ज्ञानचंद लिखना पड़ा। मेरी टिप्पणी से आप जैसे मूर्धन्य उत्तेजित हुए इसका मुझे अफसोस नहीं है।<br />बाकी यदि भाषा की त्रुटि होगी तो उसे सुधारकर पढ़ लीजिएगा... हे भाषा के महान वैज्ञानिकों।राजकुमार सोनीhttps://www.blogger.com/profile/07846559374575071494noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-76872001621631911552010-11-30T23:57:31.131-08:002010-11-30T23:57:31.131-08:00अरे ये क्या...राजकुमार सोनी, कहाँ खो गये हैं आप......अरे ये क्या...राजकुमार सोनी, कहाँ खो गये हैं आप...? इतनी भी क्या शर्मिंदगी...? अब आ भी जाओ...बंधुवर! आपको डायरेक्ट ईमेल भी भेजा जा चुका है...उसे भी घोट गये हो...हाऽऽऽ...हाऽऽऽ!जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauharhttps://www.blogger.com/profile/06480314166015091329noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-7511312743182950052010-11-30T10:45:36.915-08:002010-11-30T10:45:36.915-08:00प्रिय रजकुमार सोनी,
आपको ‘आखर कलश’ के मंच पर मेरा ...प्रिय रजकुमार सोनी,<br />आपको ‘आखर कलश’ के मंच पर मेरा आत्मीय एवं खुला आमंत्रण है...बंधुवर! लेकिन आना, तो तर्कों/तथ्यों के साथ आना...अपनी पिछली प्रतिक्रिया की तरह हवा में या किसी अज्ञात अक्षांश और देशांतर पर लटकी खोखली टिप्पणी लेकर मत आना!<br /><br />@ नरेन्द्र भाई,<br />आपसे आग्रह है कि आप इन महाशय को एक बार पुनः बुलाएँ इस मंच पर...साथ ही एक ससम्मान आमंत्रण श्री गोविन्द गुलशन जी को भी दें...! <br /><br />@ अश्वनी कुमार राय जी,<br />धन्यवाद कि आपने उक्त राजकुमार सोनी की बचकानी टिप्पणी पर ग़ौर किया...और सही दर्पण दिखाया! भाई, कोई भी बात (खण्डन-मण्डन कुछ भी) तर्कों द्वारा समर्थित होनी चाहिए! यदि राजकुमार सोनी को कोई साहित्यिक समझ होती तो फिर बात ही क्या थी...! <br /><br />मैं समझता हूँ कि स्वयं गोविन्द गुलशन जी भी शायद मेरी टिप्पणी में दर्ज तर्कों से असहमत नहीं हो सकते हैं!जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauharhttps://www.blogger.com/profile/06480314166015091329noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-53002072352555814862010-11-30T10:26:37.855-08:002010-11-30T10:26:37.855-08:00This comment has been removed by the author.जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauharhttps://www.blogger.com/profile/06480314166015091329noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-33454685527034795342010-11-30T10:22:06.975-08:002010-11-30T10:22:06.975-08:00This comment has been removed by the author.जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauharhttps://www.blogger.com/profile/06480314166015091329noreply@blogger.com