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बाहर से आने वाले आघात का
उलटकर कोई उत्तर नहीं दे पाता
पेड़
वह चलकर जा नहीं जा सकता
किसी निरापद जगह की आड़ में -
जड़ें डूबी रहती हैं
पृथ्वी की अतल गहराई में
वहीं से पोखता रहता है
वह हर एक टहनी और पत्ती में
जीवन संचार
ऐसा घेर-घुमेर छायादार पेड़
हजारों-हजार पंछियों का
रैन-बसेरा
पीढ़ियों की पावन कमाई
वह पानीदार पेड़
अब सूख रहा है भीतर ही भीतर
जमीन की कोख में,
कुदरत के कई रूप देखे हैं
इस हरियल गाछ ने
कई कई देखे हैं
छप्पन-छिनवे के नरभक्षी अकाल -
बदहवास बस्ती ने
सूंत ली सिरों तक
कच्ची सुकोमल पत्तियां
खुरच ली तने की सूखी छाल ,
उन बुरे दिनों के खिलाफ
पूरी बस्ती के साथ जूझता रहा पेड़
चौपाए आखिरी दम तक आते रहे
इसी की सिमटती छांह में !
पास की बरसाती नदी में
अक्सर आ जाया करता था उफान
पानी फैल जाया करता था
समूचे ताल में
लोग अपना जीव लेकर दौड़ आते
इसी के आसरे
और वह समेट लेता था
अपने आगोश में
बस्ती की सारी पीड़ाएं,
समय बदल गया
बदल गये बस्ती के कारोबार
नदी के मार्ग अब नहीं बहता जल
बारहों-मास,
बहुत संकड़ी और बदबूदार हो उठी हैं
कस्बे की गलियां
पुरानी बस्ती को धकेलकर
परे कर दिया गया है नदी के पाट में
और एक नया शहर निकल आया है
इस पुश्तैनी पेड़ के अतराफ,
ऊंचे तिमंजिलों के बीच
अब चारों तरफ से घिर गया है पेड़
जहां तहां से काट ली गई हैं
उस फैलती आकांक्षा के
बीच आती शाखाएं
अखरने-सा लगा है
कुछ भद्र-जनों को पेड़ का अस्तित्व
उनकी नजर में
वे अच्छे लगते हैं सिर्फ उद्यान में !
जब शहर पसरता है
उजड़ जाती हैं पुरानी बस्तियां
सिर्फ पेड़ जूझते रहते हैं
अपनी ज़मीन के लिए
कुछ अरसे तक .....
पेड़ आखिर पेड़ है
कुदरत का फलता-फूलता उपहार
वह झेल नहीं पाता
अपनों का ऐसा भीतरघात
रोक नहीं पाता
अपनी ओर आते हुए
जहरीले रसायन -
नमी का उतरते जाना
जमीन की संधियों में मौन
जड़ों का एक-एक कर
काट लिया जाना -
वह रोक नहीं पाता ......
पहले-पहल सूखी थी
कुछ पीली मुरझाई पत्तियां
फिर सूख गई पूरी की पूरी डाल
और तब से बदस्तूर जारी है
तने के भीतर से आती हुई
धमनियों का धीरे-धीरे सूखना -
इसी सूखने के खिलाफ
निरन्तर लड़ रहा है पेड़ -
क्या नये शहर के लोग
सिर्फ देखते भर रहेंगे
पेड़ का सूखना ? !
***
(चित्रछवि साभार गूगल)
बहुत अच्छी कविता ...संवेदनशून्य लोगों के शहर में अकेले पेड़ का दर्द कैसे सुना जायेगा । नन्द जी को बधाई ।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(1-6-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
ReplyDeleteसूचनार्थ!
पेड़ का सूखना, अंदर से आदमी के सूखने जैसा ही प्रतीत होता है ....
ReplyDeleteअनुपमा तिवाड़ी
पेड़ का सूखना, अंदर से आदमी के सूखने जैसा ही प्रतीत होता है ....
ReplyDeleteअनुपमा तिवाड़ी
नन्द जी -- बहुत भावपूर्ण .. कितनी गहराई है हर शब्द में -सच्चाई की चादर ओढ़े शब्द मानो पेड़ को आत्मसात कर क्रंदन कर रहे हैं -- आप की आज तक पढ़ी सब रचनाओं में सबसे ज्यादा मन को छुआ इसने ,, आज का सत्य भाव है -बहुत कड़वाहट है मगर पेड़ निरापद भाव से सब सहन कर रहा .. मौन क्रंदन ... बहुत बहुत मुबारक हो ...
ReplyDeleteनन्द जी --बहुत गहराई है आज इंसां प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहा और पेड़ मौन क्रंदन कर रहा मगर फिर भी प्रतिउत्तर में ?-- आपके शब्द उस मौन क्रंदन को आवाज़ देकर मुखरित करने में कामयाब हो गए है नन्द जी ... ना जाने क्यूँ आज इंसां इतना बेरहम हो गया ,,, आपकी सब कृतियों में सबसे ज्यादा प्रभावित किया इस रचना ने ... जीवंत रचना ...... मुबारक हो जी
ReplyDeleteप्रकाश टाटा आनन्द ने मेल द्वारा अपनी प्रतिक्रिया प्रेषित की-
ReplyDeleteप्रिय व्यास जी
नमस्कार,
नन्द भारद्वाज जी द्वारा रचित पेड़ की उदारता, व्यथा, पीड़ा और भावना का चित्रण व्यापक और हृदय की धमनियों को उद्वेलित करने वाला है। बहुत सुन्दर। भारद्वाज जी को बधाई।