बापू प्रश्न कर रहे-
कहाँ गयी वह आजादी
जिसके लिए हम भूखे रहे, वार सहे
सड़कों पर लहुलुहान गिरते रहे कई बार
जेल गए
कटघरे में अड़े रहे, डटे रहे...
सब गडमड करके
अब ये गडमड करनेवाले
मेरे निजित्व को उछाल रहे!
क्या फर्क पड़ता है कि मैं प्रेमी था या...
खुफिया लोगों
तुम सब तो दूध के धुले हो न...
फिर करो विरोध गलत का
अपने ही देश में अपने ही लोगों की गुलामी से
मुक्त करो सबको...
मुझे तो गोडसे ने गोली मार दी
राजघाट में मैं चिर निद्रा में हूँ
एक नहीं दो नहीं चौंसठ वर्ष हुए
और देश की बातें आज तलक
गाँधी, नेहरु, सुभाष,
भगत, सुखदेव, राजगुरु, आज़ाद तक ही है
क्यूँ?
तुम जो गोलियां चला रहे हो मुझे कोसते हुए
गांधीगिरी का नाम लेकर अहिंसा फैला रहे हो
वो किसके लिए?
बसंती चोला किस प्राप्य के लिए?
बम विस्फोट
आतंक
अपहरण...इसमें बापू को तुम पहचान भी नहीं सकते
तुम सबों की व्यर्थ आलोचना
जो भरमाने की कोशिशों में चलती है
उसके आगे कौन सत्याग्रह करेगा?
मैं तो रहा नहीं
और अब वह युग आएगा भी नहीं
भारत हो या पकिस्तान
तुम जी किसके लिए रहे?
तुम सब देश के अंश रहे ही नहीं
स्वार्थ तुम्हारा उद्देश्य है
और वही तुम्हारा लक्ष्य है
भले ही उस लक्ष्य के आगे
तुम्हारा अपना परिवार हो
तुम टुकड़े कर दोगे उनको
तुम तो गोडसे जैसी इमानदारी भी नहीं रखते
.................
आह!
तुम लोग इन्सान के रूप में गिद्ध हो
और शमशान हुए देश में
जिंदा लाशों को खा रहे हो!
और जो जिंदा होने की कोशिश में हैं
उनके आगे आतंक फैला रहे हो!
....
धिक्कार है मुझ पर
और उन शहीदों पर
जो तुम्हें आजादी देना चाहते थे
और परिवार से दूर हो गए
तुम सबने आज उस शहादत को बेच दिया
कोई मुग़ल नहीं, अंग्रेज नहीं,...
हिन्दुस्तानी शक्ल लिए तुम असुर हो
और आपस में ही संहार कर रहे हो
देश, परिवार, समाज...
सबको ग्रास बना लिया अपना!
क्या दे सकोगे कोई जवाब
या लेकर घूम रहे हो कोई सौगात
ताकि मेरे नाम की धज्जियां उड़ जाएँ
और तुम्हारी आत्मा पर कोई बोझ न रहे
***
परिवर्तन... और एक मशीनी युग
हाथ बेकार हो गए
बेकार हुए तो लाचार हो गए
बाहरी परिवर्तन
आंतरिक जंग
सीलन से भरे चेहरे
दूर दूर तक सिर्फ तलाश है...
कितना भला था वह बचपन
जब एक हाथ से
दूसरे हाथ की गर्माहट से गुजरते थे
बड़ों की मिलीजुली तोतली आवाज़
कई पुकार, मनुहार...
भागने के उपक्रम में
वे हाथ छूट गए
वो ढेर सारा प्यार छूट गया
रिश्ते तो प्रश्नचिन्ह बनकर रह गए!
ये तेरा ये मेरा की भावना ने
शिकायतों का पुलिंदा बना लिया!
शिकायतें पहले भी थीं
पर मनानेवाली, माननेवाली मिठास भी थी
खिलखिलाने के कई सारे उलजलूल कारण थे
अब तो फर्राटे से चलती गाड़ी में
गंभीर शक्स... इअरफोन लगाए
पागल दिखता है!
राह से परे, व्यक्ति से परे
एक अलग दुनिया बन गई है
तब तो मात्र गाने के बोल थे
तू नहीं और सही, और नहीं और सही....
अब तो रिश्तों के यही बोल शोर बन गए हैं
बेचारगी, लाचारगी का जो शामियाना लगनेवाला है
वह अभी नज़र के सामने होकर भी
नज़र नहीं आ रहा है
परिवर्तन के नाम पर
सब कुछ बस शेष है?
**
रश्मि प्रभा |
शैक्षणिक योग्यता- स्नातक (इतिहास प्रतिष्ठा)
रुचि- कलम और भावनाओं के साथ रहना।
प्रकाशन- "कादम्बिनी" , "वांग्मय", "अर्गला", "गर्भनाल" और कुछ महत्त्वपूर्ण अखबारों में रचनायें प्रकाशित।
सौभाग्य इनका कि ये कवि पन्त की मानस पुत्री श्रीमती सरस्वती प्रसाद की बेटी हैं और इनका नामकरण स्वर्गीय सुमित्रा नंदन पन्त ने किया और इनके नाम के साथ अपनी स्व रचित पंक्तियाँ इनके नाम की- "सुन्दर जीवन का क्रम रे, सुन्दर-सुन्दर जग-जीवन"।
शब्दों की पांडुलिपि इन्हें विरासत में मिली है। अगर शब्दों की धनी ये ना होती तो इनका मन, इनके विचार इनके अन्दर दम तोड़ देते। इनका मन जहाँ तक जाता है, इनके शब्द उसकी अभिव्यक्ति बन जाते हैं। यकीनन ये शब्द ही इनका सुकून हैं। कब शब्द इनके साथी हुए, कब इनके ख़्वाबों के सहचर बन गए, कुछ नहीं पता, इतना याद है कि शब्दों से खेलना इन्हें इनकी माँ ने सिखाया। जिस तरह बच्चे खिलौनेवाला घर बनाते हैं, माँ ने शब्दों की टोकरी दी और कभी शाम, कभी सुबह, कभी यात्रा के मार्ग पर शब्दों को रखते हुए ये शब्द-शिल्पी बन गईं। व्यस्तताओं का क्रम बना, पर भावनाओं से भरे शब्द दस्तक देते गए। शब्दों की जादुई ताकत माँ ने दी, कमल बनने का संस्कार पिता (स्व.रामचंद्र प्रसाद) ने, परिपक्वता समय की तेज आँधी ने।
सपने इनकी नींव हैं- क्योंकि इनका मानना है कि सपनों की दुनिया मन की कोमलता को बरकरार रखती है। हर सुबह चिड़ियों का मधुर कलरव- नई शुरूआत की ताकत के संग इनके मन-आँगन में उतरा, ख़ामोश परिवेश में सार्थक शब्दों का जन्म होता रहा और ये अबाध गति से बढती गईं और यह एक और सौभाग्य कि आज यहाँ हैं अपने सपने, अपने आकाश, अपने वजूद के साथ!
निजी ब्लॉग- http://lifeteacheseverything.blogspot.com/
बापू प्रश्न कर रहे-
ReplyDeleteकहाँ गयी वह आजादी
जिसके लिए हम भूखे रहे,...
पूछे कौन अय वतन तुमने क्यों नज़रें झुकाई हैं ....!!
रश्मि जी ने सही वक़्त पे सही सवाल किये हैं ....
बधाई ....!!
आपस में ही संहार कर रहे हो
ReplyDeleteदेश, परिवार, समाज...
सबको ग्रास बना लिया अपना!
बेहद सशक्त भाव लिए उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ...
परिवर्तन... और एक मशीनी युग
हाथ बेकार हो गए
बेकार हुए तो लाचार हो गए
बाहरी परिवर्तन
आंतरिक जंग
सीलन से भरे चेहरे
दूर दूर तक सिर्फ तलाश है..
एक सच ...
प्रस्तुति के लिए आपका आभार
आह!
ReplyDeleteतुम लोग इन्सान के रूप में गिद्ध हो
और शमशान हुए देश में
जिंदा लाशों को खा रहे हो!
आह !!!!!!!
अद्भुत ....रश्मि जी रचनाएँ गहन अभिव्यक्ति लिए ही होती हैं.....
ReplyDeleteदोनों रचना अद्भुत और सामयिक है. रश्मि जी को बधाई.
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