शोरगुल मचाने वालों- तुम जाओ
कुछ करके दिखाने वालों- तुम आओ
लुट रहे हैं का रोना- बहुत हुआ
वो रहा चोर! कहना- बहुत हुआ
ख़बर सुनना-सुनाना बहुत हुआ
बहुत गलत हुआ, बताना- बहुत हुआ
वक्त कैसा है बताना है? तुम जाओ
वक्त बदलना है तुम्हे- तुम आओ
ज़िंदगी चार दिन की है- बहुत हुआ
जिंदा लाशों को ना देखना- बहुत हुआ
तुम्हारा दिल हुआ पत्थर- तुम जाओ
सीना जलता है तुम्हारा- तुम आओ
शोरगुल मचाने वालों- तुम जाओ
कुछ करके दिखाने वालों- तुम आओ
२. डर की हिमाक़त
शहर की वो शाम
जो सुरमयी होती दोस्तों से
उम्र
जिसके बढ़ने का इंतज़ार
साल भर रहे
पहले पहल
रात होते ही सो जाना
फ़िर रात की दोस्ती किताबों से
और बस अड्डे पर चाय की दुकान से
दोस्त–
स्कूल से
कालेज से
ज़िंदगी का हिस्सा बनते हैं
छत सर पर रही घर की
और साया माँ का
डर – एक शब्द था !
पैदा नहीं हुआ था अब तक
फ़िर- अनचाहे गर्भ सा
डर का पैदा होना
जैसे लावरिश को महल मिल जाये
वैसे मिला डर को
हाड़ मॉस का पुतला
पसरता चला गया– हिमाकत !
उम्र के बढ़ने से कब पहली बार डर लगा
पता नहीं
उसके अपने दोस्त थे– इर्ष्या
उसकी दोस्ती मजबूत निकली
मुझे, मेरे दोस्तों को डरा कर दूर कर दिया उसने
प्रकृति माँ होती है
इस बात का अहसास माँ के जाने के बहुत बाद हुआ
जब पहाड़ों से गिरा – डर से पाँव फिसला
नर्म घास की गोद में
प्रकृति माँ की गोद में
माँ की गोद में
ऊपर देखा तो ‘वो’ नहीं दिखा
फ़िर कभी भी नहीं दिखा
उसके दोस्त
हिम्मती थे
आये,
सर पर आकाश की छत
और साया प्रकृति माँ का
देख
जब भागे हैं
हँसी रुकी नहीं
रूकती नहीं
रुकेगी भी नहीं
मुस्कान बन चेहरे पर बैठी रहती है- अब !
शाम गहरी हो गयी दोस्तों चलो बस अड्डे चाय पी कर आते हैं
३. लहू के रास्ते
मुझे तुम रास्ता
दिखाने को कहते हो
तुम जो खुद रास्ते अपने बनाते हो-
अब नहीं सुनना
और बातें तेरी
तुम बहुत कर चुके
रातें तन्हा मेरी-
अबकी लगता था
मैं ही नहीं
तुम भी
बंध गये हो रिश्ते में/
अपनी उम्मीदें
जोड़ कर तेरी उम्मीदों से
बेफ़िक्र हुआ– गल्त हुआ
फ़िर टूटा भरम
आइना वो चूर हो गया
वो जिसमे हम एक नज़र आते थे
उसकी किरचें चुभ के
लहू निकालें हमारा
मेरे बिना तेरे चेहरे को दिखाता आइना
मेरे लहू के रास्ते ज़ख्म पहुँचाता आइना
४. घटिया ओछे नाकारा हम
इक अनहोनी घट गयी
के सारा आलम सोते से जाग गया
अबला का शारीरिक शोषण
टी.वी. ने दिखाया
और तब! सब को पता चला कि
अभद्रता की सीमा क्या होती है
नेताओं के बिगुल
स्त्री समाज की मुखिया
जिन पर खुद आरोप हैं
शोषण करवाने के
नये नये तरीके के व्याख्यान देने लगे
अरे हाँ!
वो क्या हुआ राजस्थान वाले केस का
रोना आता है इस समाज के खोखलेपन पर
जहाँ हर घड़ी
घर के आँगन से शहर के चौक तक
रोज़ ये हो रहा होता है
और समाज आँख खोले
सो रहा होता है,
और जो उबासी आये तो पुलिस को गरिया दिया
भई ये सब तो शासन ने देखना है ना !!
हम क्या करें?
अब इन्तिज़ार है सबको
ऐसा कोई वी.डी.ओ
सामूहिक बलात्कार का भी आ जाये
तो थोड़ा और जागें-
इन्तेज़ार है
(जाओ बेंडिट क्वीन देख लो अगर वयस्क हो गए हो)
किसको बहला रहे हो मियाँ
अंदर जो आत्मा ना मार डाली हो
तो झाँक लेना-
फ़िर सो जाना
सच सुनकर नीद अच्छी आती है
घटिया ओछे नाकारा
***
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं ....
- निदा फ़ाज़ली
संक्षिप्त परिचय:
नाम : भरत तिवारी ‘दस्तकार’
पिता : स्व. श्री एस . एस. तिवारी
माता : स्व. श्रीमती पुष्प मोहिनी तिवारी
जन्म भूमि : फैज़ाबाद (अयोध्या) उत्तर प्रदेश
कर्मभूमि : नई दिल्ली
शिक्षा : डा. राम मनोहर लोहिया (अवध विश्वविद्यालय ) से विज्ञान में स्नातक
मैनेजमेंट में स्नातकोत्तर
अभिरुचि: कला , संगीत , लेखन (नज़्म, गीत, कविता) और मित्रता
संप्रतिः पि. ऍम. टी. डिजाइंसके ऍम. डी. आर्किटेक्ट और इंटीरियर डिजाईन में बेहद झुकाव तथा उसमे नई रचनात्मकता के लिए लगातार उधेड़बुन.
प्रकाशनः देश की कई पत्र पत्रिकाओं और ब्लोग्स में सतत प्रकाशन. खुद के ब्लॉग “दस्तकार” का पिछले २ सालों से सफलतापूर्वक संचालन
पता : बी – ७१ , त्रिवेणी , शेख सराय – १, नई दिल्ली , ११० ०१७
ईमेल :mail@bharttiwari.com
दूरभाष : 011-26012386
अपने बारे में : माँ मेरी हिन्दी की अध्यापिका थीं और उनका साहित्य से लगाव काफी प्रभाव डाल गया बचपन से ही अमृता प्रीतम , महादेवी वर्मा , कबीर और साथ ही जगजीत सिंह के गायन ने निदा फाज़ली, ग़ालिब की ओर मोड़ा शायद वहीँ से चिंतन की उत्पत्ति हुई जो अब मेरे लेखन का रूप लेती है
बेड साइड बुक्स :गुनाहों का देवता , निदा फाज़ली संग्रह, इलुजंस, द एल्कमिस्ट, ग़ालिब, गुलज़ार और भी हैं, लंबी लिस्ट है
अभी तक आप के शेर और गज़ल से वाकिफ़ थे ...कविताओं से अब मुलाक़ात हो रही है ..भरत जी कविता की लेखन-शैली की ज्योति ज्यादा प्रखर और संभावनाओं से भरी है ...बधाई !!
ReplyDeleteBeautiful lines !! :)
ReplyDeleteभरत तिवारी की कविताएं समय के साथ शब्दों का साझा हैं। वे खुद को हर उस घटना से नजदीकी से जुड़ा पाते हैं, जिन्हें उनके समय ने भोगा है। त्रासदी को नाटकीयता से बचाते हुए वे सच कहने का साहस करते हैं। कुछ नहीं हो रहा है, यह पीड़ा जब खीझ में बदलती है तो भरत उन तमाम पाखंडों से अलविदा कहने को कहते हैं जिन्होंने जनमानस को लंबे समय तक भरमाए रखा। इस तरह वे भ्रममुक्ति में जनमुक्ति का स्वप्न देखते हैं। सावधानी से रखे गए शब्द और संवेदनशील चिन्ता यह इस कवि का विशेष गुण है....बधाई भरत जी को और आपको इस प्रस्तुतिकरण के लिए....
ReplyDeleteकिसको बहला रहे हो मियाँ
ReplyDeleteअंदर जो आत्मा ना मार डाली हो
तो झाँक लेना-
फ़िर सो जाना
सच सुनकर नीद अच्छी आती है
घटिया ओछे नाकारा ..!!
मौजूदा परिस्थितियों को बदलने की चाह रखते हुए समाज और स्वयं को जगाती बेहद प्रभावशाली कविताएँ !!
प्रकृति माँ होती है
इस बात का अहसास माँ के जाने के बहुत बाद हुआ
जब पहाड़ों से गिरा – डर से पाँव फिसला
नर्म घास की गोद में
प्रकृति माँ की गोद में
माँ की गोद में..
संवेदनशील रचनाकार की बेहद खूबसूरत रचनाएँ !!
भरत जी को बहुत बधाई !!
बहुत सुंदर और दिल को छू लेने वाली कविताये हैं .....
ReplyDeleteजितना कहा जाए उतना कम....हर पहलू को आपने अपनी कविताओं में उतार लिया है वाह....एक से बढ़कर एक खासकर ओछे नाकारा हम...भरत जी बस ऐसे ही बढ़िया कविताएं लिखते जाइए...
ReplyDelete