प्रताप सहगल |
इसी क्रम में आज आपके समक्ष श्री प्रताप सहगल का एक यात्रा संस्मरण प्रस्तुत है.
प्रताप सहगल हिन्दी के चर्चित कवि, नाटकार, कहानीकार और आलोचक हैं। कई कविता-संग्रह, नाटक, आलोचना-पुस्तकें, एक उपन्यास और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हैं। उन्होंने बहुत सी पुस्तकों का संपादन भी किया है। प्रताप सहगल के नाटकों पर आधारित बहुत सी रेडियो धारावाहिकों का प्रसारण हुआ है। उन्होंने कविता, कहानी नाटक उन्यास आलोचना और संपादन सभी क्षेत्रों में काम किया है।
यह सुर-संगीत भरा प्रेम अपने यौवन पर ही था कि 1561 में आदम खाँ ने मालवा पर हमला कर दिया और बाज बहादुर तथा रूपमती को सारंगपुर के पास जा कर पकड़ लिया। बाज बहादुर जैसे तैसे भाग निकला लेकिन रूपमती दुश्मन के कब्ज़े में आ गई। वस्तुत: आदम खाँ उस अप्रतिम सुंदरी को हासिल करना चाहता था और उसने अपने प्रेम का प्रस्ताव भी रूपमती के सामने रखा। लेकिन रूपमती ने आदम खाँ के पास जाने के बजाय आत्महत्या करना बेहतर समझा। वहीं सारंगपुर में ही रूपमती को दफ़ना दिया गया और अन्त में बाज बहादुर ने भी रूपमती की क़ब्र पर ही दम तोड़ा। इस कहानी में संभवत: इतिहास कम और कल्पना ज़्यादा है लेकिन प्रेम कथाओं का संसार भी इतिहास से कम और कल्पना से ज़्यादा चलता है। हम आज कथा के क़रीब तो थे ही, रूपमती और बाज बहादुर के महल के भी बहुत करीब थे। सो हम जल्दी ही रूपमती के महल पहुँचते हैं। एक ढलवाँ पहाड़ी पर बना हुआ यह वही महल है जहाँ से रूपमती एक ओर तो नर्मदा के और दूसरी ओर अपने प्रिय बाज बहादुर के दर्शन कर सकती थी। हम महल के सबसे ऊपरी हिस्से पर बनी छतरी के अंदर दाखिल हो जाते हैं। हवा की एक हिलोर इधर से आए, उधर को जाए और एक हिलोर उधर से आए, इधर को जाए। प्रदूषण के हिसाब से ज़ीरो टालरेन्स ज़ोन। इस हवा को ज़रा ध्यान से महसूस कीजिए, जैसे संगीत की स्वर-लहरियाँ आपके मन में घुले-मिले प्रेम के भरोसे ही आपके अंदर प्रवेश कर रही हैं। वहाँ थोड़ी देर खड़े रह कर उन हवाओं को छूना और उस परिवेश को जीना उस दुनिया में प्रवेश करना है, जहाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रेम है। यहाँ कुछ देर खड़े होना अपने से साक्षात्कार करना है। भौतिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर एक साथ जीना है। वहाँ से हम नर्मदा देखने की कोशिश करते हैं, लेकिन हलकी-झीनीं धुंध के चलते कुछ भी साफ से दिखाई नहीं देता। वैसे भी समय के साथ नर्मदा का पाट कुछ छोटा होकर महल से दूर हट गया दिखता है।
रूपमती महल |
रूपमती महल |
जहाज़ महल |
जहाज़ महल |
कुछ वक़्त नाट्यशाला में विभिन्न कार्यक्रमों की कल्पना करते हुए हम जहाज़ महल के परिसर में थोड़ा हट कर बने हुए गदाशाह के महल की ओर चलते हैं। गदाशाह का यह महल दो हिस्सों में बना हुआ है और दोनों ही भवन हिन्दू वास्तुशिल्प के भव्य नमूने हैं। कहा जाता है कि सुल्तान महमूद द्वितीय के एक कर्मचारी मेदिनी राय का नाम ही गदाशाह था जो कुछ समय तक राज्य का स्वामी भी बना। यह युग ऐसा रहा है जब सुल्तान और बादशाह अपना राजकाज चलाने के लिए कई बार बड़े बड़े शाहों से पैसा कर्ज़ पर लिया करते थे। इससे उन शाहों का शाही परिवार और राज्य पर प्रभाव तो रहता ही था। दुकान रूपी भवन दीवाने-आम का काम भी करता था, क्योंकि हिंडोला महल दीवाने-ख़ास ही था। गदाशाह की इस सुपर बाज़ार नुमाँ दुकान पर देशी विदेशी सामान आसानी से मिल जाता था। गदाशाह का महल एक दो मंज़िला भवन है। भूतल पर मेहराबदार द्वार और पार्श्व में दो कमरे हैं तथा प्रथम तल पर एक बड़ा हाल और वहाँ भी दो पार्श्व कमरे हैं। गदाशाह का यह महल अब भग्नावस्था में खड़ा हुआ अपने अतीत के झरोखों से वर्तमान को झाँकता हुआ नज़र आता है। गदाशाह के महल तथा जहाज़ महल में प्राप्त बहुत सी सामग्री अब थोड़ी ही दूर हटकर बने हुए एक अजायबघर में रखी हुई है। लेकिन वहाँ बैठे सभी कर्मचारी बहुत ही निस्पृह तरीके से आने-जाने वालों को देखते रहते हैं। उन्हें भी उस सामग्री के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं है, सो हम भी घूम-फ़िर कर लौट आते हैं। अभी हमें और स्मारक भी तो देखने हैं।
हम जामी मस्जिद की ओर रूख़ करते हैं। जामी मस्जिद की भव्यता बाहर से ही नज़र आने लगती है। मस्जिद के सामने कुछ रेहड़ी वाले और कुछ खोखा लगा कर ज़रूरत का सामान बेच रहे हैं। सबसे ज़्यादा भरमार नज़र आती है शरीफ़ों और ख़ुरासानी इमली की। शशि को शरीफ़ा बहुत पसंद है। दिल्ली में अच्छा शरीफ़ा दौ से अढ़ाई सौ रूपए किलो मिलता है। हम शरीफ़े का भाव पूछते हैं, वह उसे सीताफल कहता है। यही नाम है माण्डू में शरीफ़े का। भाव सुनकर हम परेशान हो जाते हैं। बढ़िया शरीफ़ा (सीताफल) तीस रूपए किलो। वहीं तुलवा कर खाने लगते हैं। एकदम मीठा। बिना मसाले के पका हुआ। पेट में जितना समा सकता है, हम खा लेते हैं और फ़िर खुरासानी इमली का स्वाद लेते हैं। खुरासानी इमली, सीताफ़ल और खिरनी की वजह से भी माण्डू जाना जाता है। खिरनी तो वहाँ नज़र नहीं आती। शायद उसका मौसम जा चुका है। कहते हैं कि खुरासानी इमली का बीज ईरान के नगर खुरासान का बादशाह माण्डू लाया था और उसे माण्डू की आबो-हवा इतनी मुफ़ीद साबित हुई कि वह वहाँ खूब फलने-फूलने लगा। हम दोनों ने खुरासानी इमली को अपने मुँह में डाला। खट्टा-मीठा स्वाद लगा, लेकिन हमें वह पसंद नहीं आई। हम लोग तो शरबत से मीठे शरीफ़ों पर टूटे-पड़े थे।
शरीफ़ों के स्वाद से तृप्त होकर हमने जामी मस्जिद की ऊँची-ऊँची सीढ़ियाँ चढ़ते हुए ऊँचे प्रवेश-द्वार से प्रवेश किया। जामी मस्जिद की गणना देश की अन्य बड़ी मस्जिदों में होती है। कहा जाता है कि इसका निर्माण दमिश्क में बनी मस्जिद की ही शैली में किया गया है, लेकिन इसमें कुछ हिन्दू स्थापत्य का भी मिश्रण हो गया है। इसे बनवाना शुरू तो होशंगशाह ने किया था लेकिन इसका निर्माण 1454 ईस्वी में महमूद ख़िलजी ने पूरा किया। मस्जिद के अंदर बना हुआ विशाल आसन और कुछ अन्य तत्त्व भी कई लोगों को इस भ्रम में डाल देते हैं कि वस्तुत: इसका रूप इस तरह क्यों बनाया गया है। यह कहीं कोई पुराना मंदिर तो नहीं, जिसका परिसंस्कार करके इसे मस्जिद का रूप दिया गया है। इसके स्थापत्य की अफ़गान और भारतीय, दोनों व्याख्याएँ संभव हैं। सत्य क्या है, यह तो इतिहासकार ही जानें, हम लोग तो उस भवन की भव्यता का आनंद ही ले रहे थे। जामी मस्जिद के अंदर ही बना होशंगशाह का मक़बरा भारत की सबसे पहली संगमरमर की इमारत मानी जाती है और इसी की तर्ज़ पर बाद में ताज महल का निर्माण करवाया गया है। जामी मस्जिद के सामने ही है अशरफ़ी महल। अशरफ़ी महल की सीढ़ियों पर खड़े हो कर जामी मस्जिद की भव्यता का पूरा जायज़ा लिया जा सकता है। अशरफ़ी महल कभी मदरसा हुआ करता था और कभी शायद वहाँ संस्कृत विद्यापीठ थी। यह भी इतिहासकारों के लिए गवेषणा का विषय है। अशरफ़ी महल से हम अपने रिसार्ट की ओर लौटते हैं। अपराह्न दो बज चुके हैं और खूब भूख लगी हुई। अपनी आदत के मुताबिक़ हम खाना खाकर अपने टैंट में थोड़ा विश्राम करते हैं।
कुदरत का नज़ारा |
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Padhte,padhte ek alag duniya me chali gayee..
ReplyDeletemandu ka bahut hee sundar varnan kiya gayaa hai. aaj se kaee saal pehle maine bhee apni patni Beena ke saath yaatra kee thee. isko padte vakt esaa lagaa vo saare dekhe gae drishya ek baar phir se saakar ho gaen hain.is sundar prastuti ko padvane ke liye aapka aabhar.
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