जाने कब तक
जाने कब की,
अपनी-अपनी
धूप है सब की,
जिस को उठाए
फिरते हम-तुम,
कहने को सब
साथ हैं जबकि
बस वही अच्छा था
बस वही अच्छा था
मेरा गांव,
गांव की मिट्टी,
मिट्टी के घर,
घर में रहते लोग,
लोगों के मन,
मन में पलता प्यार,
प्यार की खुशबू,
खुशबू की कोई जात न पात.
बस वही अच्छा था
मेरा गांव,
गांव की नदी,
नदी के घाट,
घाट से छूटती नाव,
नाव में हाथ हिलाते मुसाफिर,
मुसाफिरों का मालूम अता ना पता.
बस वही अच्छा था
मेरा गांव,
गांव में खेत ,
खेत में पेड,
पेड में कोटर,
कोटर में पंच्छी,
पंछियों के साथ हम उडते आकाश
आकाश का कोई आदि न अंत.
बस वही अच्छा था , मेरा गांव_
मैं क्या सपना लेकर शहर में आई थी
मेरी आंखों से नींद भी उड गई है.
फिर वह चाहे कितनी ही
असभ्य क्यों न रही हो
अवशेष हमेशा किसी न किसी
सभ्यता के ही कहाते हैं .
कितना अच्छा है/ आज से
पांच-दस हजार वर्ष आगे चलकर
हमारे भी जीवाश्म
किसी सभ्यता की खोज कहाएंगे
इन दिनों हाथी सीधी चाल नहीं चलता
और न हीं घोडा ढाई घर
और न हीं ऊंट टेढा चलता है दायें-बायें
अब तो न राजा को शह लगती है
और न उसकी होती है मात.
मगर आज भी
हर तरह की चाल चलता है वजीर
और हां, आज भी मरने को तैयार
प्यादे खडे हैं अगली पंक्ति में
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-क्रांति
क्रान्ति जी की रचनाओं से अवगत कराने का शुक्रिया।
ReplyDelete---------
हंसी का विज्ञान।
ज्योतिष,अंकविद्या,हस्तरेखा,टोने-टोटके।
सांपों को दुध पिलाना पुण्य का काम है ?
खूबसूरत कवितायें।
ReplyDeleteतीसरी कविता पर कहता हूँ कि:
कभी जब खोजी जायेगी,
हमारी सभ्यता,
तो इसे
क्या नाम दिया जायेगा?
कहीं 'अ-सभ्यता' तो नहीं?
चौथी कविता में प्रस्तुत शतरंजी बिसात का रूप पहली बार देखा है।
गाँव की मिट्टी से जोड़ती तथा समसामयिक पहलुओं को उजागर करती प्रशंसनीय रचनाएँ
ReplyDeleteभावपूर्ण प्रस्तुति
ReplyDeleteसर्वप्रथम मन मे भाव का उमड़ना, शब्दों का चयन, उनका पंक्तिबद्ध अलंकरण…………क्या उम्दा प्रस्तुति है। सब कुछ तो है यहां।
ReplyDeletekranti ji
ReplyDeleteye rachanaye pahale nahi padhi. bahut sundar abhivyakti. sakhi tumhari rachnao ka loha to manana hi padega. Guzrat sammelan kaisa raha?
सुंदर रचनाएं। खास कर 'इन दिनों' रचना हमें बहुत अच्छी लगी।
ReplyDeleteमीनाक्षी एवं अश्विन चंदाराणा