अशोक आंद्रे की दो कविताएँ

संक्षिप्त परिचय

लगभग सभी राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में श्री अशोक आंद्रे की रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं. आपने 'साहित्य दिशा' साहित्य द्वैमासिक पत्रिका में मानद सलाहकार सम्पादक और 'न्यूज ब्यूरो ऑफ इण्डिया' मे मानद साहित्य सम्पादक के रूप में कार्य किया है. अब तक आपकी कुल छ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं तथा आप National Academy award 2010 for Art and Literature from Academy of Bengali Poetry, kolkata से भी सम्मानित हुए हैं.

(१)

डर

आकाश में झांकना
उस झाँकने में दृश्य पैदा करना
फिर उस दृश्य में अपनों को ढूँढना
डर पैदा करता है ।

ज़मीँ उलझन देती है
इन उलझनों में घंटिया बजती हैं लगातार ,
पेड़ की ओर देखो तो
आकाश फिर दिखने लगता है ।

बंद कमरे में पसरे सन्नाटे के मध्य
खिड़कियों में फंसी झिर्रियों की तरह
एक आँख देखती है
समय के आवर्त को, जो
डर के नये मापदंड पैदा करती है ।

लेकिन उलझन का क्या करूं ?
पहाडों के बीच फंसा पानी भी तो
आकाश में सफेद रेशों का जाल बुनता है
जितना उसमें घुसो उतना गहरा होता जाता है
इसीलिए आकाश में झांकना डर पैदा करता है ।

अपने तो दिखते नहीं उस झाँकने में
आदमी तो भ्रमित होता रहता है
लेकिन उन रेशों की झनक में
हृदय की धडकनों की लय है
जिन्हें सुनने तथा देखने की ललक
आकाश में फिर झाँकने को मजबूर करती है ।

डर फिर भी आंखों के किसी कोने में
धंसता रहता है ,
जिसे जीवन की ललक पीठ की ओर धकेल देती है ।


(२)

उनके पाँव

जब से सिद्धांतों की सड़क
तैयार की है अपने ही अन्दर
एक खौफ़ लगातार बढ़ता जा रहा है
क्योंकि विकास के सारे रास्ते
उथली - संस्कृति की तरफ विकसित हो रहे हैं
उसके आगे के रास्ते गहरी ढलान की तरफ
धंसते दिखाई देते हैं ।

पहाड़ जहां कांपते हैं , हवा सरसरा जाती है
क्योंकि एक लहर धुंए की
यात्रा करने लगती है ,
और मनुष्य उस धुएँ में छिपा
अपने ही लोगों का करता है विनाश
जिसके निशान इन्हीं सड़कों पर देख
सहम जाते हैं आदिवासी
अंतस में उलझा आदिवासी संशय से देखता है -
इन सड़कों को ,

जो उनकी हरियाली को लीलने लगते हैं ,
जीवन बचाने के लिए ये आदिवासी
सभ्यों से दूर अपनी आकांक्षाओं में लीन
जंगल में बहते पानी में
ज़मीं छूती हरियाली में,रोपतें हैं

नन्हें बच्चों के पांवों के चिन्ह
ताकि उनके जंगलों में जीवन की श्रंखला स्थापित हो सके ,
और पहाडों के मन में सुकून की लहर
दौड़ती रहे ।
क्योंकि उनके लिए इन सड़कों का कोई महत्व नहीं है ,
उनके पाँव ही उनकी खुबसूरत सड़कें हैं ।
**
-अशोक आंद्रे

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5 Responses to अशोक आंद्रे की दो कविताएँ

  1. sochne ko majbur karti rachna achhi bhavavyakti, badhai

    ReplyDelete
  2. दोनों ही रचनाएं काफ़ी विचारोत्तेजक हैं।

    ReplyDelete
  3. भावगर्भित अभिव्यक्ति के लिए अशोक जी को साधुवाद!

    ReplyDelete
  4. अशोक आंद्रे जी की कवितायें डरेऔर सहमे समय की संवेदना पूर्ण अभिव्यक्ति हैं .बधाई .

    ReplyDelete

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