इन्होंने अपनी मीडिया प्रयोग की शुरूआत 10 साल की उम्र से की और जालंधर दूरदर्शन की सबसे कम उम्र की एंकर बनीं। लेकिन टेलीविजन के साथ पूर्णकालिक जुड़ाव 1994 से हुआ। इन्होंने अपने करियर की शुरूआत जी टीवी से की, फिर करीब 7 साल तक एनडीटीवी से जुड़ी रहीं और वहां अपराध बीट की हेड बनीं। तीन साल तक भारतीय जनसंचार संस्थान में अध्यापन करने के बाद ये लोकसभा टीवी के साथ बतौर एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर जुड़ गईं। चैनल के गठन में इनकी एक निर्णायक भूमिका रही। यहां पर वे प्रशासनिक और प्रोडक्शन की जिम्मेदारियों के अलावा संसद से सड़क तक जैसे कई महत्वपूर्ण कार्यक्रमों को एंकर भी करती रहीं।
इसके बाद वर्तिका सहारा इंडिया मीडिया में बतौर प्रोग्रामिंग हेड नियुक्त हुईं और सहारा के तमाम न्यूज चैनलों की प्रोग्रामिंग की जिम्मेदारी निभाती रहीं।
इस दौरान इन्हें प्रिंट मीडिया के साथ भी सक्रिय तौर से जुड़ने का मौका मिला और वे मासिक पत्रिका सब लोग के साथ संयुक्त संपादक के तौर पर भी जुड़ीं। इस समय वे त्रैमासिक मीडिया पत्रिका कम्यूनिकेशन टुडे के साथ एसोसिएट एडिटर के रूप में सक्रिय हैं।
प्रशिक्षक के तौर पर इन्होंने 2004 में लाल बहादुर शास्त्री अकादमी में प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के लिए पहली बार मीडिया ट्रेनिंग का आयोजन किया। इसी साल भारतीय जनसंचार संस्थान, ढेंकानाल में वरिष्ठ रेल अधिकारियों के लिए आपात स्थितियों में मीडिया हैंडलिंग पर एक विशेष ट्रेनिंग आयोजित की। इसके अलावा टीवी के स्ट्रिंगरों और नए पत्रकारो के लिए दिल्ली, जयपुर, भोपाल, रांची, नैनीताल और पटना में कई वर्कशॉप आयोजित कीं। आईआईएमसी, जामिया, एशियन स्कूल ऑफ जर्नलिज्म वगैरह में पत्रकारिता में दाखिला लेने के इच्छुक छात्रों के लिए आयोजित इनकी वर्कशॉप काफी लोकप्रिय हो रही हैं।
2007 में इनकी किताब लिखी- 'टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता' को भारतेंदु हरिश्चंद्र अवार्ड मिला। यह पुरस्कार पत्रकारिता में हिंदी लेखन के लिए भारत का सूचना और प्रसारण मंत्रालय देता है। इसके अलावा 2007 में ही वर्तिका को सुधा पत्रकारिता सम्मान भी दिया गया। चर्चित किताब - 'मेकिंग न्यूज' (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित ) में भी वर्तिका ने अपराध पर ही एक अध्याय लिखा है।
2009 में वर्तिका और उदय सहाय की किताब मीडिया और जन संवाद प्रकाशित हुई। इसे सामयिक प्रकाशन ने छापा है। यह वर्तिका की तीसरी किताब है। 1989 में वर्तिका की पहली किताब (कविता संग्रह) मधुर दस्तक का प्रकाशन हुआ था।
बतौर मीडिया यात्री इन्हें 2007 में जर्मनी और 2008 में बैल्जियम जाने का भी अवसर मिला। 2008 में इन्होंने कॉमनवैल्थ ब्रॉडकास्ट एसोसिएशन के चेंज मैनेजमेंट कोर्स को भी पूरा किया।
इन दिनों वे मीडिया पर ही दो किताबों पर काम कर रही हैं। हिंदुस्तान, जनसत्ता, प्रभात खबर आदि में मीडिया पर कॉलम लिखने के अलावा ये कविताएं भी आम तौर पर मीडिया पर ही लिखना पसंद करती हैं।
वर्तिका की रूचि मीडिया ट्रेनिंग में रही है। वे उन सब के लिए मीडिया वर्कशाप्स आयोजित करती रही हैं जो मीडिया को करीब से जानना-समझना चाहते हैं।
**
नव वर्ष में
(१)
चलो एक कोशिश फिर से करें
घरौंदे को सजाने की
मैं फिर से चोंच में लाऊंगी तिनके
तुम फिर से उन्हें रखना सोच-विचार कर
तुम फिर से पढ़ना मेरी कविता
और ढूंढना अपना अक्स उसमें
मैं फिर से बनाउंगी वही दाल, वही भात
तुम ढूंढना उसमें मेरी उछलती-मचलती सरगम
मैं फिर से ऊन के गोले लेकर बैठूंगी
फंदों से बनाउंगी फिर एक कवच
तुम तलाशना उसमें मेरी सांसों के उतार-चढ़ाव
आज की सुबह ये कैसे आई
इतनी खुशहाल
कुछ सुबहें ऐसी ही होती हैं
जो मंदिर की घंटियां झनझना जाती हैं
लेकिन रात का सन्नाटा
फिर क्यों साफ कर जाता है उस महकती स्लेट को
चलो, छोड़ो न
छोड़ो ये सब
चलो, किसी पहाड़ी के एक सिरे पर दुबक कर
फिर से सपनों को मुट्ठी में भर लें
चूम लें पास से गुजरते किसी खरगोश को
सरकती हवा को
गुजरते पल को
चलो, एक कोशिश और करें
एक बार और
**
(२)
जाते हुए साल से एक पठार मांग लिया है उधार में
पठार होंगें
तो प्रार्थनाएं भी रहेंगी
कहा है छोड़ जाए
आंसू की दो बूंदें भी
जो चिपकी रह गईं थीं
एक पुरानी बिंदी के छोर पर
कुछ इतिहासी पत्ते भी चाहिए मुझे अपने पास
वो सूखे हुए से
शादी की साड़ी के साथ पड़े
सूख कर भी भीगे से
वो पुराना फोन भी
जो बरसों बाद भी डायल करता है
सिर्फ तुम्हारा ही नंबर
हां, वो तकिया भी छोड़ देना पास ही कहीं
कुछ सांसों की छुअन है उसमें अब भी
इसके बाद जाना जब तुम
तो आना मत याद
न फड़फड़ाना किसी कोने पर पड़े हुए
कि इतने समंदरों, दरख्तों, रेगिस्तानों, पहाड़ों के बीच
सूरज की रौशनी को आंचल में भर-भर लेने के लिए
नाकाफी होता है
कोई भी साल
**
-वर्तिका नन्दा
vartika ji..
ReplyDeletenamaste....narandra bhai ke thru aapke yahaan aana hua, aur khushkismat hoon ki aana saartak hua. aapki kavitaai=yein bahut khoobsurat hain!
bahut hi bahtareen rachna..........
ReplyDeleteहर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeletesaman sara sj gya hai dukan pr
ReplyDeletepyar bhi ab sj gya hai dukan pr
roko nhi in ke uge hain pr nye 2
door ja rhe hain jo unchi udan pr
sundr rchna
bdhai
दोनों रचनाओं में कवयित्री अपनी बात कहने में सक्षम हैं - शुभकामनाएं
ReplyDeleteचलो, किसी पहाड़ी के एक सिरे पर दुबक कर
ReplyDeleteफिर से सपनों को मुट्ठी में भर लें
चूम लें पास से गुजरते किसी खरगोश को
सरकती हवा को
गुजरते पल को
और
इतने समंदरों, दरख्तों, रेगिस्तानों, पहाड़ों के बीच
सूरज की रौशनी को आंचल में भर-भर लेने के लिए
नाकाफी होता है
कोई भी साल
खूबसूरत शायराना सोच है।
साल दर साल फिसलता ही चला जाता है
वक्त बस एक मुसाफिर है न ठहरा है कभी।
वर्तिका बहुत कम लिखती हैं,लेकिन जो लिखती हैं वह गहरे तक छूने वाला होता है। ये दोनों कविताएं भी इस कसौटी पर खरी उतरती हैं। आते हुए साल और जाते हुए साल के समय को बहुत अच्छे से परिभाषित किया है।
ReplyDeleteसादगी से सभर कविता में जीवन के रोज़मर्रा के अनुभवों से सशक्त अभिव्यक्ति के लिए बधाई |
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी दोनों कविताये ,
ReplyDeleteचलो, छोड़ो न
छोड़ो ये सब
चलो, किसी पहाड़ी के एक सिरे पर दुबक कर
फिर से सपनों को मुट्ठी में भर लें
चूम लें पास से गुजरते किसी खरगोश को
सरकती हवा को
गुजरते पल को
स्वप्नों को पुनः जीने की आशा और विश्वाश से भरी हुई हे ...बधाई
वर्तिका जी की बहुत सी रचनाएँ पढ़ चुका हूँ, हमेशा की तरह बेहतरीन रचनाएँ हैं!
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