नाम- मंजु मल्लिक मनु
जन्म- 20 मई, 1979 को जन्म।
पति- फ़ज़ल इमाम मल्लिक
अभिरुचि- साहित्य, रंगमंच, गीत व संगीत।
रंगमंच- सूत्रधार संस्था की महासचिव। क़रीब पचास नाटकों में अभिनय। राष्ट्रीय मंचों पर गायन व नृत्य के कार्यक्रम। अभिनय के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में बेहतरीन अभिनय के लिए पुरस्कार। रंगमंचीय जीवन की शुरुआत ‘बंदी’ नाटक से। नाटक में बेहतरीन अभिनय के लिे सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार।
निर्देशन- ‘गाँव की बहार’ ‘कृष्ण’ और ‘भारत’ नृत्य नाटिकाओं का निर्देशन।
प्रकाशन- देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। समय-समय पर सम-सामयिक आलेख ।
पत्रकारिता- प्रभात खब़र, हिन्दुस्तान, आज दैनिक के अलावा बानगी, लोकायत पत्रिकाओं के लिए राजनीतिक-सामाजिक रिपोर्टिंग।
प्रसारण- दूरदर्शन व आकाशवाणी से कविताएँ, लोक नृत्य, संगीत के कार्यक्रमों का प्रसारण।
संपादन- साहित्यक त्रैमासिक पत्रिका ‘सनद’ का संपादन।
प्रकाश्य- कविता संग्रह ‘क्या जंगल से लड़की लौट पाएगी’।
संप्रति- शुक्रवार साप्ताहिक के लिए देहरादून से रिपोर्टिंग।
संपर्क-
मंजु मल्लिक मनु
39/1, बसु एस्टेट, कनाल रोड, जाखन (देहरादून),
मोबाइल: 9675448609/9557975814।
ईमेल: manumallick@rediffmail.com
क्या कुसूर था मेरा....?
सारा जहाँ तुमने बनाया,
आसमां बनाया, धरा बनाई
समंदर भी, सूरज भी
जंगल भी, शेर भी
कोयल भी, मोर भी
मैंने तुमसे कहा था मुझे बनाने को...?
बनाया तो बनाया पर मेरा कसूर क्या था
जो तुमने इंसान बनाया
बोलो तो ‘हे आदि पिता’,
बोलो तो-
आखिर तुमने मुझे क्यूं बनाया...?
मगर जब बनाया ही तो मुझमें फिर एक-
पूरा जंगल उगा दिया...
समुंदर बना दिया, लहरों का वेग बढ़ा दिया
कहीं सूरज की धूप डाली तो
कहीं चाँद की शीतलता भरी
पल-पल बदलते आकाश-गंगाओं का ब्रह्मांड
मस्तिष्क की ऊर्जा में घोल डाला
आखिर तुमने ऐसा क्यों किया....?
क्यों....?
ये कुछ अनसुलझे सवाल हैं तुमसे ‘हे आदि पिता’ !
एक छल जो तुमने मुझसे किया
तबसे अबतक न तो मैं तुम्हारे ही पास हूँ.....
न धरती के साथ
कहीं का न रखा...
आखिर तुम्हें क्या मिला ‘ईश्वर’ ?
मुझमें ढेरों अहर्तायें, ढेरों आर्तनाद घोलकर
मानो एक नवजात का रोना और ममता की कहीं-
विलीन होते जाना..... देखकर भी
जैसे कलरव करते परिंदो के पर तले-
समूचे वृक्ष का सूखते जाना पाकर भी-
तुम्हें दया न आई मुझ पर ?
फिर जेठ की तपती धूप का जंगल
साथ रहा हरदम
फिर कौन-सी खुशी मिली तुम्हें
मुझे मारकर हरजल ?
इससे तो अच्छा था मुझे न बनाते कभी
कोई जंगल न उगाते कभी
कम-से-कम तुम्हारे ब्रह्मांड के अणुओं से
एक परमाणु ही जुड़ी होता कहीं
जैसी भी होती... तुम्हारी होती
एक दमकता कण सही लेकिन तुम्हारा हिस्सा कहलाती
यहाँ तो जिस्मों के वसीयत में....
मेरा कोई हिस्सा नहीं
खंभे हैं.... गलियारें हैं, मंदिरों के
रिश्ते सारे हैं मगर कोई रिश्ता नहीं
क्या कसूर था मेरा ?
सारा जहाँ बनाया तुमने
आसमां बनाया, धरा बनाया
समुंदर भी सूरज भी
जंगल भी, कोयल भी
मैंने तुमसे कहा था मुझे बनाने को ?
क्योंकि तुमने पूछा नहीं था
मैंने कहा नहीं था....!
क्या कसूर था मेरा ?
उठो, कि दम भर इस हार का
मज़ा लेना है ज़रूर
मान लो कि-
इस जीवन के रंजो-गम, तल्खियों से
गुजरना है मंजूर...
मत रो उन अनगिनत
जिस्म के फूटे फफोले पे ‘राही’
जहाँ हाल पूछने वाला तेरा कोई नहीं...
कोई नहीं...!
राहें अनगिनत हैं माना साथी कोई नहीं
माटी की बस तू मूरत है-
तेरी सूरत और कोई नहीं
टूटती है मटकी बह जाता है पानी
लेकिन उस ऊर्जा का होता क्या है
जो पेड़ की जड़ों से लेकर
पत्तों की शिराओं तक बहता है?
अबकि जब-
परखे हुए रिश्ते और आत्मिय-जन
तुम्हे७ आग की नगरी में
जलता छोड़ गए हैं.... माना,
जलेंगे वो भी एक दिन किसी अपनों की ही तीलियों से
जिनकी आँखों ने तुम्हारे जलने का नजारा देखा है न,
तड़पेंगे वे भी किसी रिश्तों की तल्खियों से
संसार का सारा सच
हसीन नर्क के सिवा कुछ नहीं!
शायद सृष्टि का पहला मनुष्य ही फाँसी का हक़ दार था?
भूल चाहे किसी भी ‘मनु-सत्तरूपा’ की रही हो लेकिन-
धरती को सजा मिले तो अरबों-खरबों हो चली हैं!
क्योंकि दरकते पहाड़... उफनते नदी-नाले
कटते जंगल... झपटते समुन्दर में
विलीन होती धरती को बचाने वाला अब कोई नहीं... कोई नहीं
कल, ब्रह्मांड के तारे बातें करेंगे धरती की,
कि विनाश का सारा सामान
मानवों ने ही संजो रखा था
एक बच्चा कभी...
जिन्दगी की पहली पाठशाला में जा रहा था
एक कीड़ा सुंदर तितली में बदलने वाला था
एक बीज गुलाब की महक फैला सकता था
एक बरगद आशियां दे सकता था गौरेय्या को
पर, तभी तुमने सारे जंगल काट डाले थे
सारे बारूद उगल डाले थे वायूमंडल में
सारे रसायन नदी-नालों-समुंदर में बहा डाले थे
इतना जहर... इतना जहर उगला है मानवों ने
धरती की कोख में
कि उतना जहर साँपों में भी नहीं होता
सांपों को डंस कर।
ईश्वर के कानों में धीरे से कहती है लड़की कि -
तोड़ता है दु:ख मुझको बार-बार
शायद कोई पत्थर समझ,
कैदियों की तारीख छपी है... शाह के हुक्मनामें में
जहाँ-
‘जिला-ए-वतन’ का फरमान लिए फिरना लिखा है-
पंक्षियों के भाग्य में !
हाराकिरी करते किसान, माँऐं-नौनिहाल, जहाँ-
सलामी भरी मौत भी हमेशा-
सरहदों पे डटे सैनानियों के भाग्य में-
नसीब नहीं होती जैसे...!
जैसे देश भूल जाता है.... वीरों के बलिदानों को
माँ भूल जाती है जैसे... कन्या-सन्तानों को
पुत्र भूल जाता है अपने दूध के कर्ज़ो को
पुरूष भूल जाता है मानवीय कर्तव्यों को
राजा भूल जाता है न्याय और भगवान को
प्रजा भूल जाती है व्यवस्था और समाज को
और इस तरह
बबर्ता भी भूल जाती है जैसे इन्सानी रिश्ते-नाते को !
तो ‘हे आदी पिता’-
अब बस,
टूट ही जाना चाहिए ‘नोह’ की इस नाव को
लहरों के वेग और पत्थरों के मार से-
टकरा-टकरा कर चकनाचूर हो जाने चाहिए
डूबना ही चाहिए उन सवारों को,
बीजों की मानिंद उन सुंदर मगर कायर
‘नोह’ के संरक्षित जीवों को
या किसी धर्मात्मा ‘मनु’ के
पुरुषार्थी काल-खण्डों में फंसे सृजन-चक्र को-
पुन: एक बार कुलबुलाने से पहले,
टूट ही जाने चाहिए
या कि पनपने से पहले की इच्छाओं को
नष्ट हो जाने चाहिए !
बल्कि लौटा लेने चाहिए... ‘वो’ जो कोई भी है-
ईश्वर-अल्लाह-गॉड
उसे प्रकृति बनाम सृष्टि की इस
नए नर्क की पुनरावृत्ति... पर्त-दर-पर्त
रचनाकर्म करने से बाज आ जाने चाहिए
कि अब बस-
कोई भी ‘मनु-सत्तरूपा’ या ‘आदम-ईव’ को
पुन: रचने से परहेज करना चाहिए
भविष्य को बिना किसी भागीरथी प्रयास के
उन समस्त संकल्पों को कुलबुलाने से पहले टूट जाने चाहिए
नियति में फंसे धर्मात्मा ‘मनु’ के पुरुशार्थ को,
या जबरदस्ती बीज-दीन... वृक्षहीन बनाई गई...
बेबस पृथ्वी के समस्त दृष्यों को कुनमुनाने से पहले ही नष्ट होने चाहिए...
बल्कि तौबा करना चाहिए.... वो जो कोई भी है-
महान ताक़तवर आदी पिता... ईश्वर.... अल्लाह को
अणुओं-परमाणुओं के उस महान रचयिता को
अब-बस... अगले सृजन से बाज आ जाना चाहिए।
इस तरह भी ईश्वर को तौबा... करनी चाहिए।
‘शब्द’, जिस रोज
इन्द्र का वज्र बन जाएगें
वायुवेग से आएगें और
तुम्हारे अंधेरे को पीट-पीट, मार भगांएगे
अग्निबाण बना शब्द
तुम्हारे ठण्ढे, ध्रुवीय-प्रदेश से
भालूओं को निकाल फेंकेगा एक दिन
जब, नागफांस में बंधा अवश
पतझड़ और विध्वंस के स्वर
मठाधीश कहलाते धर्म-प्रचारकों की बपौतियाँ
अखाड़े और तंबूओं सहित उखाड़ फेंकेंगी एक दिन !
समय का आखेटरत वर्तमान सभ्यतायें और
प्रयासरत विज्ञान-
आनेवाले भविष्य के अनगिनत मतावलम्यिों पर
फिर से ईश्वर की इच्छा से-
बरसते हुए वसंत के तीर भी देखेंगी विवश होकर
भविष्य में.... आकाशीय मार्ग की रखवाली करते-
चौकस, सत्यवादी पंक्षियों को-
अवाक देखते रह जाओगे,
क्योंकि उसकी इच्छा से आया प्रत्येक-
भविष्य का नया आदमी
‘शब्द-भेदी’ तीर चलाएगा चाँद पर
सूर्य का ऊर्जा चुरा भविष्य का जीव
मंगल, प्लूटो पर अपनी बस्तियाँ रौशन करेगा
तारों का समूह भविष्य के हवा-मानवों का-
क्रीड़ा-स्थल कहलाऐंगे
भविष्य से सुंदर औरतें
आऐंगी आकाश-गंगाओं की मदकती
दमकती मालाएं पहन,
और ले जाऐंगी अपने साथ.... पृथ्वी को
लॉकेट की डिबिया में बंद करके
समय के पार.... अंतरिक्षय-पथों से होते हुए
एक नयी बस्तियां बसाने...
संवंदनशील बच्चे पैदा करने...
धरा को फिर से आबाद करने
हीरे-माणिकों के पहाड़ उगाने
मोती सा धवल दूध की नदियाँ बहाने
पन्नों के वृक्ष, नीलम का शैवाल उगाने
एक नवीन मांत्रिकों का नया तंत्र-मंत्र पनपेगा-
पृथ्वी की हरियाली में,
तुम्हारी तरह निष्ठुर हो वहाँ कोई पेड़ नहीं काटेगा
आगे आयेगा काल से परे का
असीम बुद्धिमान जीव
और ठीक ईश्वर के सिंहासन के निकट-
रोती हुई पृथ्वी
तुम्हारे दोहन से सतायी गयी पृथ्वी
बिल्कुल कण बराबर हो लौट जाएगी तुम्हारे पास से
तुम्हें छोड़कर
तुम्हारी लिप्साओं से नुची बदरंग पृथ्वी को देखकर
क्रोधित ‘ईश्वर’
एक नया दण्ड तजवीज करेगा तुम्हारे लिए
अपनी फूंक से तुम्हें धूलकणों सा बेदखल कर
परमात्मा की वसीयत से तुम्हारी आत्मा निकाल
जबरदस्त लात मारेगा ‘ईश्वर’....
और इस तरह एक नये अध्याय का सूत्रपात करेगा ईश्वर
वहीं काल की गणना से परे का
असीम शक्तिशाली मगर भावुक जीवों का
अपनी इच्छा से सृजन कर
तुम्हारा समूल नष्ट करेगा ईश्वर....
और अपनी प्यारी बेटी ‘पृथ्वी’ को-
फिर से हरा-भरा करेगा ‘ईश्वर’
वहाँ... समय के पार से आये-
नये जीवों को सौंपकर
धरा फिर से आबाद करेगा ईश्वर
नये मानवों में जज़्बात भरेगा ईश्वर
मोहब्बत और मोहब्बत से संवाद करेगा ईश्वर
हां, धरा प्रेम-से फिर
और फिर.... आबाद करेगा ईश्वर।
prthm rchna me mahaabhrt ke vishy ko achchha aadhar bnaya hai
ReplyDeleteyhi to us ki maya hai aur hmari lptta yhi hai diniya yhi hai duniyadari
dr.vedvyathit@gmail.com
सभी रचनायें भाव संप्रेशण मे अच्छी लगी। धन्यवाद इन्हें पढवाने के लिये।
ReplyDeleteसागर से तमन्नाओ का रिश्ता बनाइये...
ReplyDeleteहर साँस में ग़ज़ल है आप गुनगुनाइये...
जलती नहीं पानी में चिरागों की लो कभी
गर हौसला हो पानी में दीपक जलाइये.....
धीरेन्द्र गुप्ता"धीर"
सागर से तमन्नाओ का रिश्ता बनाइये...
ReplyDeleteहर साँस में ग़ज़ल है आप गुनगुनाइये...
जलती नहीं पानी में चिरागों की लो कभी
गर हौसला हो पानी में दीपक जलाइये.....
धीरेन्द्र गुप्ता"धीर"