अपर्णा मनोज भटनागर की कविताएँ

अपर्णा मनोज भटनागर एक ऐसी रचनाधर्मी हैं जिनके काव्य में भावुकता शब्दों का जामा पहन अपने स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत होती है. शब्दरथि भाव, दर्द की की गहराई तक जाकर जब आकार पाते हैं तो पाठकमन स्वतः ही उन भावों के साथ बहता चला जाता है. आपके काव्य में परिष्कृत शब्दावली से युक्त शिल्प के साथ-साथ चिंतन और बोद्धिकता की प्रधानता भी रहती है जो कि चेतना को झकझोरने की क्षमता रखती हैं. आपका काव्य जब नव बिम्बों और उपमानो का जामा पहन पाठकों के समक्ष उपस्थित होता है तो पाठक सहज रूप से आबद्ध होता चला जाता है. ऐसी ही विलक्षण शब्दों और तीक्ष्ण भावों से सजी उनकी कुछ कविताएँ, जो अपने साथ ऐसे ही भावों, अनुभवों और नवीन प्रतीकों को सजाये हुए है, आपके समक्ष प्रस्तुत है..
राम से पूछना होगा

वह दीप चाक पर चढ़ा था
बरसों से ..
किसी के खुरदरे स्पर्श से
स्पंदित मिट्टी
जी रही थी
धुरी पर घूर्णन करते हुए
सूरज को समेटे
अपनी कोख में ..


वह रौंदता रहा
घड़ी-घड़ियों तक ...
विगलित हुई
देह पसीने से
और फिर न जाने कितने अग्नि बीज
दमक उठे अँधेरे की कोख में .


तूने जन्म दिया
उस वर्तिका को
जो उर्ध्वगामी हो काटती रही
जड़ अन्धकार के जाले
और अमावस की देहर
जगमगा उठी
पूरी दीपावली बन.


मिट्टी, हर साल तेरा राम
भूमिजा के गर्भ से
तेरी तप्त देह का
करता है दोहन
और रख देता है चाक पर
अग्नि परीक्षा लेता
तू जलती है नेह के दीवट में
अब्दों से दीपशिखा बन .
दीप ये जलन क्या सीता रख गयी ओठों पर ?
राम से पूछना होगा !
***

भूख

भूख का दमन चक्र
अपने पहिये के नीचे
...कुचलता है
औरों की भूख ..
तब भूख सत्ता का
प्रहसन भर होती है
जिसमें अमरत्व के लिए
रक्ष हारते हैं
देव जीतते हैं
और क्षुधा में बँट जाता है संसार
विष-अमृत
स्वर्ग-नरक
जाति-धर्म
संग-असंग
रंग-ढंग
बड़े बेढब ढंग से
हम पृथ्वी पर
कटे नक़्शे देखते हैं ..
भूख अकसर ऐसे ही काटती है
आदमी का पेट -
देशांतर रेखाओं की तरह
या शून्य डिग्री से ध्रुवों की ओर कटते अक्षांश ?
जिनके बीच समय का दबाब
तापमान और भूख का भूगोल
नयी परिरेखाएं खींचता है
पर इसका स्खलन नहीं होता
इतिहास के खंडहर की तरह ..
इसे समय की छाती पर
काही , ईवी , कुकुरमुत्ते की तरह
रोज़ उगता देखती हूँ !
***

सलीब

जब भी सलीब देखती हूँ
पूछती हूँ
कुछ दुखता है क्या ?
वह चुप रहती है
ओठ काटकर
बस अपनी पीठ पर देखने देती है
मसीहा ...
तब जी करता है
उसे झिंझोड़कर पूछूं
क्यों तेरी औरत
हर बार चुप रह जाती है सलीब ?
तब मूक वह
मेरी निगाहें पकड़ घुमा देती है
और कीलों का स्पर्श
दहला देता है मेरा वजूद
कुछ ठुक जाता है भीतर .
मेरी आँखें सहसा मिल जाती हैं
मसीहा से ..
वह मेरे गर्भ में रिसता है
और पूरी सलीब जन्म लेती है
मैं उसका बदन टटोलती हूँ
हाथ पैर
मुंह - माथा ..
अभी चूमना शेष है
कि ममता पर रख देता है कोई
कंटीला ताज
और मसीहा मुसकराता है ..
सलीब की बाहें
मेरा स्पर्श करती हैं
मैं सिहरकर ठोस हो गयी हूँ -
एक सूली
जिस पर छह बार अभियोग चलता है
और एक शरीर सौंप दिया जाता है
जिसने थक्का जमे खून के
बैंगनी कपड़े पहने हैं
कुछ मुझमें भी जम जाता है
ठंडा , बरफ , निस्पंद
फिर मैं सुनती हूँ
प्रेक्षागृह में
नेपथ्य से
वह चीखता है - "पिता मेरी आत्मा स्वीकार कर "
आकाश तीन घंटे तक मौन है
अँधेरी गुफा में कैद
दिशाएँ निस्तब्ध
कोई मुझे कुचल रहा है ..
कुचल रहा है
क्षरण... क्षरण ..
आह ! मेरे प्रेम का मसीहा
सलीब पर टंगा है .
और मेरी कातरता चुप !
***

( सलीब नारी है, मसीहा प्रेम - यहाँ मसीहा का trial दिखाया गया है. छह बार trial किया गया - तीन बार यहूदियों के सरदार ने और तीन बार romans ने. अंत में मसीहा के चीखने का स्वर है और सूली के बिम्ब से कातरता को दर्शाया है. कविता कीलों पर चल रही है, सलीब पर टंगी है और सूली पर झूल रही है- आशा है मर्म समझना कठिन न होगा.)
-अपर्णा भटनागर

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8 Responses to अपर्णा मनोज भटनागर की कविताएँ

  1. भूख का दमन चक्र
    अपने पहिये के नीचे
    ...कुचलता है
    औरों की भूख ..
    तब भूख सत्ता का
    प्रहसन भर होती है
    तीनों ही रचना बहुत अच्छी, सुन्दर शब्दों के माध्यम से भावाव्यक्ति ,बधाई

    ReplyDelete
  2. मिट्टी, हर साल तेरा राम
    भूमिजा के गर्भ से
    तेरी तप्त देह का
    करता है दोहन
    और रख देता है चाक पर
    अग्नि परीक्षा लेता
    तू जलती है नेह के दीवट में
    अब्दों से दीपशिखा बन .
    दीप ये जलन क्या सीता रख गयी ओठों पर ?
    राम से पूछना होगा !
    ******
    औरों की भूख ..
    तब भूख सत्ता का
    प्रहसन भर होती है
    जिसमें अमरत्व के लिए
    रक्ष हारते हैं
    देव जीतते हैं


    ******
    वह मेरे गर्भ में रिसता है
    और पूरी सलीब जन्म लेती है
    मैं उसका बदन टटोलती हूँ
    हाथ पैर
    मुंह - माथा ..
    अभी चूमना शेष है
    कि ममता पर रख देता है कोई
    कंटीला ताज
    और मसीहा मुसकराता है ..
    ********

    राम से पूछना होगा,भूख और सलीब तीनों ही कविताएं तीन अलग अलग बिंबो की बहुत ही प्रभावशाली भावाभिव्यक्ति है. इतनी अच्छी कविताओं के लिए अपर्णा जी को बधाई व आखर कलश का आभार!

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  3. कवियित्री के चित्र के झरोखे से कविताओं को देखूँ तो उम्र से बहुत आगे की लगती हैं ये कवितायें।

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  4. sundr rchnayen hain apne aap me ek sath bahut kuchh saheje huye snvednaon ke prktikrn me sfl hain
    prntu antim rchna any ki bhanti apni unchai nhi choo pai hai us me btn shbd bhi mrei chhoti soojh me atk rha hai pr yh sb to abhyas se swt:thik ho jayega
    bdhai

    ReplyDelete
  5. अपर्णा जी की सभी रचनाएँ अपने अपने मानदंडों पर खरी उतरती हैं,हर कविता अपने गर्भ में एक प्रश्न समेटे है, जो आज के परिदृश्य में बौद्धिक जनमानस में अंगडाइयां लेते हैं.
    कवितायें कवयित्री की बौद्धिक क्षमता व संवेदनशील मनोभावों की गवाही भी देती हैं....इन्हें यहाँ प्रस्तुत करने के लिए आखरकलश को आभार व अपर्णा जी को बधाई देती हूँ .

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  6. कविताएँ आपको अच्छी लगी, हम सुधि पाठकों और नरेंद्र जी के आभारी हैं.

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  7. Aparna ji
    aapki lekhni mein kuch hai jo dil se dil tak ek pul ban jaata hai. har shabd waah...
    कुछ मुझमें भी जम जाता है
    ठंडा , बरफ , निस्पंद
    फिर मैं सुनती हूँ
    प्रेक्षागृह में
    नेपथ्य से
    वह चीखता है - "पिता मेरी आत्मा स्वीकार कर "
    Mere khmoshian bhi hairaan hai. shubhkamnayein

    ReplyDelete
  8. sargarbhit aur saleekedar rachnaon ke liye badhai Apanmaji.

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