बलराम अग्रवाल की दो लघुकथाएँ

बलराम अग्रवाल का नाम हिंदी साहित्य जगत में किसी पहचान का मोहताज़ नहीं. उनकी लेखनी साहित्य की हर विधा में अपने स्याही बिखेरने में सक्षम है, खास कर आपकी लघुकथाएं और उनका विषय चयन समकालीन होने के साथ-साथ सोचने पर भी मजबूर कर देने की क्षमता रखती हैं. आप निरंतर 'जनगाथा', 'कथायात्रा' एवं 'लघुकथा-वार्ता' के माध्यम से लघुकथा-साहित्य सुधि पाठकों तक पहुंचाते रहे हैं साथ ही 'अपना दौर' कथा-साहित्य से इतर चिन्तन व अनुभवों को अभिव्यक्ति देने का प्रयास भी करते रहे है। आज उनकी दो लघु कथाएं- 'भरोसा' और 'अथ ध्यानम' कथाओं के माध्यम से उनका सन्देश आप सबकी नज़र है. आशा है उक्त कथाओं में निहित सन्देश बलराम जी की अभिव्यक्ति को सार्थक कर आपको प्रभावित भी करेगा...

भरोसा

झगड़ा करना हो तो किसी को बात का बतंगड़ बनाने की जरूरत नहीं होती, वह बेबात भी किया जा सकता है। और झगड़े को अगर दंगे का रूप देना हो तो…इस देश में तो यह बहुत ही आसान है। बेशक, यही हुआ भी होगा। शाम होते-होते इलाके में कर्फ्यू लागू कर दिया गया था।

रात होते-होते बाप-बेटे के दिमाग में पड़ोसी को फँसा देने की योजना कौंधी।

“इस साले का घर फूँक डालने का यह बेहतरीन मौका है पापा।” बेटा बोला,“ना रहेगा बाँस और ना…”

“उल्लू का पट्ठा है तू।” बाप ने उसे झिड़का,“घर को आग लगाने से बाँस खत्म नहीं होगा…मजबूत हो जाएगा और ज्यादा।”

“कैसे?”

“मुआवजा!” बाप बोला,“इन्हें तो सरकार वैसे भी दुगुना देती है।”

“फिर?”

“फिर क्या, कोई दूसरा तरीका सोच।”

दोनों पुन: विचार-मुद्रा में बैठ गए।

“आ गया।” एकाएक बेटा उछलकर बोला। बाप सवालिया नजरों से उसकी ओर देखने लगा।

“उसके नहीं, हम अपने घर को आग लगाते हैं।” बेटे ने बताया,“स्साला ऐसा फँसेगा कि मत पूछो। साँप भी मर जाएगा और…”

“बात तो तेरी ठीक है…” बाप कुछ सोचता-सा बोला,“लेकिन बहुत होशियारी से करना होगा यह काम। ऐसा न हो कि उधर की बजाय इधर के साँप मर जायँ और बराबर वाले की बिना कुछ करे-धरे ही पौ-बारह हो जाय।”

“उसकी फिकर तुम मत करो।” वह इत्मीनान के साथ बोला,“आग कुछ इस तरह लगाऊँगा कि शक उस के सिवा किसी और पर जा ही ना सके।”

यह कहते हुए वह उठा और बाहर का जायजा लेने के लिए दरवाजे तक जा पहुँचा। बड़ी सावधानी के साथ बे-आवाज रखते हुए उसने कुंडे को खोला और एक किवाड़ को थोड़ा-सा इधर करके पड़ोसी के दरवाजे की ओर बाहर गली में झाँका। उसकी साँस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह गई जब अपने मकान के सामने गश्त लगा रहे पड़ोसी चाचा ने उसे ऐसा करते हुए देख लिया।

“ओए, घबराओ नहीं मेरे बच्चे!” उसे देखते ही वे हाथ के लट्ठ से जमीन को ठोंकते हुए बोले,“जब तक दम में दम है, परिंदा भी पर नहीं मर सकता है गली में। अपने इस चाचा के भरोसे तू चैन से सो…जा।”
***

अथ ध्यानम्

आलीशान बंगला। गाड़ी। नौकर-चाकर। ऐशो-आराम। एअरकंडीशंड कमरा। ऊँची, अलमारीनुमा तिजौरी। करीने से सजा रखी करेंसी नोटों की गड्डियाँ। माँ लक्ष्मी की हीरे-जटित स्वर्ण-प्रतिमा।

दायें हाथ में सुगन्धित धूप। बायें में घंटिका। चेहरे पर अभिमान। नेत्रों में कुटिलता। होंठ शान्त लेकिन मन में भयमिश्रित बुदबुदाहट।
“नौकरों-चाकरों के आगे महनत को ही सब-कुछ कह-बताकर अपनी शेखी आप बघारने की मेरी बदतमीजी का बुरा न मानना माँ, जुबान पर मत जाना। दिल से तो मैं आपकी कृपा को ही आदमी की उन्नति का आधार मानता हूँ, महनत को नहीं। आपकी कृपा न होती तो मुझ-जैसे कंगले और कामचोर आदमी को ये ऐशो-आराम कहाँ नसीब था माँ। आपकी जय हो…आपकी जय हो।”
***
-बलराम अग्रवाल
संपर्क: एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32

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11 Responses to बलराम अग्रवाल की दो लघुकथाएँ

  1. BALRAMA AGRAWALJI KI LAGHUKATHAAEN GAMBHEER HI HOTI HAIN. YE BHI GAMBHEER LAGHUKATHAAEIN HAIN.

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  2. ब्‍लॉगिंग की दुनिया में क्रॉंति आ गयी है (काश इसमें कॉंति भी होती)। ब्‍लॉग्‍स पर लघुकथा के नाम पर जो रचनाकार कुछ भी छाप रहे हैं; उन्‍हें ये दो लघुकथायें अवश्‍य पढ़नी चाहियें।
    मैं लघुकथा विधा का जानकार तो नहीं लेकिन मुझे लगता है कि लघुकथा ऐसी ही होनी चाहिये, लघुता में विशालता समाये हुए। सटीक शब्‍दों में कथानक व्‍यक्‍त हो और मर्म भी और पढ़ने वाला एक सॉंस में पढ़ जाये।
    आनन्‍द आ गया।

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  3. Balram ji Laghukathayein vaise bhi neev ka patthar hoti hai. Shabon ki bunawat apni sashktata se ek sandesh ko ujgar karti hai.
    Pahli Kaghukatha laajawaab hai!!!

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  4. ..

    लघु कथा बिलकुल ऎसी ही होनी चाहिये कि
    कथाकार पूरा जानवर दिखाने की बजाये केवल उसकी दुम दिखाए
    बाक़ी अनुमान पाठक स्वयं लगायें कि अमुक जानवर होगा.

    या फिर

    कथाकार कथा को उतना ही उदघाटित करे
    जिससे पाठक की कल्पनाशीलता के घोड़े कहीं दौड़ना न भूल जाएँ.

    ..

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  5. पहली लघुकथा का अंत सट्‌ से लगता है माथे पर।
    दूसरी बस जानी पहचानी सी बात।
    आभार इस प्रस्तुति के लिए।

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  6. बलराम जी की लघुकथाएं पहले भी पढ़ता रहा हूं। पर इन दिनों वे बंगलौर में हैं। सो उनसे परिचय भी हुआ और मिलना भी। वे वरिष्‍ठ लघुकथाकार हैं। फिर भी उनकी लघुकथा पर कुछ कहने की हिमाकत कर रहा हूं। पहली लघुकथा में थोड़ा सा अनावश्‍यक विस्‍तार है। अगर वह संपादित हो जाए तो लघुकथा बहुत मारक हो जाती है। दूसरी लघुकथा अपने मंतव्‍य को कहने में सफल नहीं हो सकी। ऐसा मुझे लगता है।

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  7. श्रीयुत प्रदीपकांत जी, तिलकराज कपूर जी, देवी नागरानीजी व प्रतुल वशिष्ठ जी आपकी उत्साहवर्द्धक टिप्पणियों के लिए आभार प्रकट करता हूँ।

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  8. बेहतरीन लघुकथाएं। बलराम अग्रवाल जी की लघुकथाएं अधिकतर सकारात्मक चिंतन की वाहक होती हैं। यथार्थ को उघाड़ना और फिर उसे सकारात्मक दिशा देने का काम लघुकथा के माध्यम से इन्होने बखूबी किया है। 'भरोसा' इसी कड़ी की एक सशक्त रचना है।

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  9. इला प्रसाद ने कहा-
    बलराम जी की लघुकथाएं अच्छी लगीं | विशेष कर पहली | मीना जी की कवितायें अच्छी हैं | ब्लॉग पर प्रतिक्रया देने की कोशिश में असफल रही , इसलिए इ मेल भेज रही हूँ |
    इला

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