नाम- अरुण देव
जन्म तिथि- १६ फरवरी, १९७२
जन्म स्थान- कुशीनगर (उ.प्र.)
शिक्षा- M.Phil,Ph.D from JNU (New Delhi).... UGC की फेलोशिप के अंतर्गत मोहन राकेश और आचार्य महावीरप्रसाद द्दिवेदी पर शोध कार्य......
सृजन- क्या तो समय (कविता-संग्रह) 2004 भारतीय ज्ञानपीठ,नई दिल्ली...... कुछ आलोचनात्मक लेख......... संस्कृति,उपनिवेश और हिंदी आलोचना बहुवचन-८...... राष्ट्र की अवधारणा,भारत का अतीत और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र,बहुवचन-11,........उपनिवेश और हिंदी का स्वरूप,बहुवचन -२५ ......Mahatma Gandi international Hindi University,Verdha....... हिंदी नवरत्न..संवेद-जनवरी २०१० दिल्ली....
कब तक चमकती रहेगी मेरी स्मृति की वह पगडंडी
जहाँ से तुम चली गयीं कुहरे में
जहाँ से मैं लौट आया अँधेरे में
कितनी लम्बी है तुम्हारी यादों की उम्र
कि कोई पत्ता टूट कर गिरे और काँप न जाएँ तुम्हारी आँखें
और न निकालने लगू मैं अपनी आँख से तिनका
कि कोई एक वाक्य तुम्हारे संदर्भ के बिना
अपने अर्थ तक पहुंच जाए
कि जब कहूँ आज कुछ अच्छा नहीं लग रहा
तो सिर्फ इसका इतना ही मतलब हो
क्या कभी उलझते हैं मेरी यादों के धागे
तुम्हारी सलाईओं में भी
विस्मरण की धूल से कभी ढक जाऊंगा मैं
ढक जाओगी तुम
क्या मद्धिम पड़ जायेगा वह सुर
जिसमें कभी साझा थे हमारे कंठ
वो चिन्हित किए गये गद्य-पद्य
क्या खो देंगे अपना अर्थ
तुम्हारे सुनाये लतीफों की वह हंसी
क्या बुझ जायेगी .
चाय का वह भरा प्याला लिए खड़ा हूँ मैं तबसे
उठ रही अब भी उससे भाप
***
२. कुफ्र
मैं प्रेम करना चाहता था ईश्वर से
बिना डरे बिना झुके
पर इसका कोई वैध तरीका स्थापित ग्रंथो में नहीं था
वहाँ भक्ति के दिशा–निर्देश थे
लगभग दास्य जैसे
जिन पर रहती है मालिक की नजर
मेरे अंदर का खालीपन मुझे उकसाता
उसकी महिमा का आकर्षण मुझे खींचता
जब जब घिरता अँधेरे में उसकी याद आती आदतन
मैं समर्पित होना चाहता था
अपने को मिटाकर एकाकार हो जाना चाहता था
पर यह तो अपने को सौंप देना था किसी धर्माधिकारी के हाथों में
मैंने कुछ अवतारों पर श्रद्धा रखनी चाही
कृष्ण मुझे आकर्षित करते थे
उनमें कुशल राजनीतिज्ञ और आदर्श प्रेमी का अद्भुत मेल था
पर जब भी मैं सोचता
भीम द्वारा दुर्योधन के टांग चीरने का वह दृश्य मुझे दिखता
पार्श्व में मंद –मंद मुस्करा रहे होते कृष्ण
मुझे यह क्रूर और कपटपूर्ण लगता था
उस अकेले निराकार तक पहुचने का रास्ता
किसी पैगम्बर से होकर जाता था जिसकी कोई-न-कोई किताब थी
यह ईश्वर के गुप्त छापेखाने से निकली थी
जो अक्सर दयालु और सर्वशक्तिमान बताया जाता था
और जिसके पहले संस्करण की सिर्फ पहली प्रति मिलती थी
इसका कभी कोई संशोधित संस्करण नहीं निकलना था
शायद ईश्वर के पास कुछ कहने के लिए रह नहीं गया था
या उसकी आवाज़ लोगों ने सुननी बंद कर दी थी
उससे डरा जा सकता था या डरे-डरे समर्पित हुआ जा सकता था
अप्सराओं से भरे उस स्वर्ग के बारे में जब भी सोचता
मुझे दीखते धर्म-युद्धों में गिरते हुए शव
अपने श्रम के अतिरिक्त क्या चाहिए मुझे ?
हिंसा और अन्याय के इस विशाल साम्राज्य में
जैसे वह एक आदिम लत हो
मठ और महंतो से परे
उस ईश्वर से प्रेम करने का क्या कोई रास्ता है
और क्या उसकी जरूरत भी है
***
अरुण देव जी की दोनों रचनाएं अच्छी लगीं.
ReplyDeleteकब तक चमकती रहेगी मेरी यादों की वो पगडंडी ,
ReplyDeleteजहां से तुम चली गयीं कोहरे में
और मैं लौट आया अँधेरे में ..........
क्या कभी उलझते हैं मेरी यादों के धागे तुम्हारी सलाइयों में ......
सबसे पहले मेरी बधाई नरेन्द्र व्यास जी को इस सुंदर रचना के लिए ....
प्रशंसा किये बिना न रह सकी ....
बहुत सुन्दर ...अरुण देव कब तक चमकती रहेगी मेरी यादों की वो पगडंडी ,
जहां से तुम चली गयीं कोहरे में
और मैं लौट आया अँधेरे में ..........
क्या कभी उलझते हैं मेरी यादों के धागे तुम्हारी सलाइयों में ......
सबसे पहले मेरी बधाई नरेन्द्र व्यास जी को इस सुंदर रचना के लिए ....
प्रशंसा किये बिना न रह सकी ....
बहुत सुन्दर ...अरुण देव जी
मैंने कुछ अवतारों पर श्रद्धा रखनी चाही
ReplyDeleteकृष्ण मुझे आकर्षित करते थे
उनमें कुशल राजनीतिज्ञ और आदर्श प्रेमी का अद्भुत मेल था
पर जब भी मैं सोचता
भीम द्वारा दुर्योधन के टांग चीरने का वह दृश्य मुझे दिखता
पार्श्व में मंद –मंद मुस्करा रहे होते कृष्ण
मुझे यह क्रूर और कपटपूर्ण लगता था ....
ye panktiyan kitni uddaat hain ..
आपकी दोनों कविताएँ पढ़ीं ... कुफ्र विशेष पसंद आई ..डर-डर कर समर्पित होना ... जैसे घन पर चोट हो .. आपको बहुत-बहुत बधाई .... इसी तरह आपकी कविताएँ पढ़ने को मिलती रहें .
'kufr'....wah....umda !
ReplyDeleteमठ और महंतो से परे
ReplyDeleteउस ईश्वर से प्रेम करने का क्या कोई रास्ता है
और क्या उसकी जरूरत भी है
आज के हर मानव को यह सवाल अपने आप से पूछना चाहिए।
एक मानव जो स्वभाव से कवि भी है वह अपनी बात इसी छटपटाहट के साथ अभिव्यक्त करेगा,जैसे अरूणदेव कर रहे हैं।
अरुणजी की दोनों कविताएँ कथ्य ,शिल्प में गहरे तक प्रभावित करती है .
ReplyDeleteमठ और महंतो से परे
ReplyDeleteउस ईश्वर से प्रेम करने का क्या कोई रास्ता है
और क्या उसकी जरूरत भी है!
सही प्रश्न है, जिसका उत्तर देने वाले को ये भी सोचना होगा कि प्रेम की जरूरत ईश्वर को है या स्वयं उसे, और यह प्रेम परिभाषित किस रूप में होगा।
बहुत ही सुंदर रचनाये हॆ .
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