रंजना श्रीवास्तव की चार कविताएँ

रचनाकार परिचय:
नाम : रंजना श्रीवास्तव
जन्म : गाजीपुर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा: एम.ए., बी.एड
प्रकाशित पुस्तकें : चाहत धूप के एक टुकड़े की(कविता संग्रह), आईना-ए-रूह(ग़ज़ल संग्रह), सक्षम थीं लालटेनें(कविता संग्रह-2006 में)।
संपादन : सृजन-पथ (साहित्यिक पत्रिका) के सात अंकों का अब तक संपादन।

पूर्वांचल की अनेक साहित्यिक-सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध। हिंदी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं यथा- वागर्थ, नया ज्ञानोदय, आउटलुक, इंडिया टुडे, अक्षर पर्व, परिकथा, पाखी, कादम्बिनी, सनद, पाठ, साहिती सारिका, वर्तमान साहित्य, काव्यम्, राष्ट्रीय सहारा, उत्तर प्रदेश, जनसत्ता (सबरंग), जनसत्ता कोलकाता(दीवाली विशेषांक), संडे पोस्ट, निष्कर्ष, शब्दयोग, पर्वत राग आदि में कविताएँ, कहानियाँ, समीक्षाएँ एवं स्त्री विमर्श विषयक लेख प्रकाशित।
सम्मान : ‘चाहत धूप के एक टुकड़े की’ कविता संग्रह पर सिलीगुड़ी गौरव सम्मान, उत्तर बंग नाट्य जगत से विशिष्ट कविता लेखन के लिए सम्मानित। हल्का-ए-तामीर-ए-अदब(मऊ आइमा), इलाहाबाद से साहित्य की महती सेवाओं हेतु प्रशस्ति पत्र।
संपर्क : श्रीपल्ली, लेन नं. 2, पो.ऑ. सिलीगुड़ी बाज़ार, सिलीगुड़ी(प. बंगाल)-734005
१.
क्‍या कहना है कामरेड!

वह जिस चाकू से
काटती थी सब्जी
उससे दुःख का गला
रेत सकती थी
पर किसी हत्या के
अपराध में
शामिल होने से
कतराती रही उम्र भर
उसके चूल्हे में जो आग थी
जला सकती थी
उसकी विपन्नता के
सारे संकल्पों को
पर उसने उस पर
सिर्फ रोटियॉं पकायीं
और परिवार के हिस्से में
भूख से लडने की
सारी विपदाओं को
धुआँ हो जाने दिया
उसने उन हथियारों को
जो उसकी रसोई का
हिस्सा थे
और उसकी देह व मन के भी
प्रतिशोध या प्रतिकार की
शैली में
सक्रिय नहीं होने दिया
उसकी गुफाओं के अंधेरे में
कई बार सूरज चमका
और आसमान में
व्यवस्थित हो गया
पर वह धरती बनी रही
वह दरवाजे
बंद करती रही लगातार
लोग उसमें प्रवेश करते रहे
उससे बाहर जाते रहे
उसका अपने बारे में
जानना इतना कम हुआ
कि उसके बारे में जानने लगा
उसका घर-परिवार
उसका समाज
यहाँ तक
कि उसका ईश्वर भी
यह डुगडुगी पीटी गयी
कि जब भी अपने बारे में
सोचेगी स्त्री
अनैतिक हो जायेगी
उसकी सोच
मुल्ला-मौलवी, कुल-पुरोहित
देवी-देवता सब के सब
कुपित हो जायेंगे
अब इन सारे कुपितों की
सनकी बिरादरी में
एक अनैतिक स्त्री का समय
अपने झंडे को
दे रहा है लाल सलाम
इस क्रान्ति के बारे में
तुम्हारा क्या कहना है
कामरेड!
जो घर से चलकर
सडकों पर उतर आयी है।।

२.
यह खबर एक झुनझुना है

यह एक रेप केस का
लाइव टेलीकास्ट है
उत्तेजना है, भीड है,
आवाजे हैं पुलिस है,
सबूत है, गवाह है
आरोप-प्रत्यारोप है
माफी है और सजा की
दरख्वास्त भी
यह खबर एक झुनझुना है
जिसे सब
अपने-अपने तरीके से
बजा रहे हैं
मीडिया, पत्रकार, राजनीतिज्ञ
पर कोई इस खबर के
दुःख के भीतर नहीं है
कोई वहाँ नहीं है
जहाँ लावा पिघल रहा है
और फैल रही है आग
कोई वहाँ भी नहीं है
जहाँ से फेंकी गयी थी
माचिस की तीली
सब के सब
अखबार बने हुए हैं
और खबर के आइने में
देख रहे हैं
अपनी-अपनी शक्लें
अपना-अपना कद
कितना ऊँचा हुआ है
इसकी फिक्र में
खबर के चेहरे पर
चिपका रहे हैं विज्ञापन
विज्ञापन
एक नकली दुनिया का
मानचित्र है
जो कभी नहीं बदल सकता
असल की तकदीर
असल की
तकदीर बदलने के लिए
जड से सोचा जाना होगा
फुनगी पकडकर
पेड को हिलाने से
कैसे काँपेगी भला पृथ्वी।।

३.
विज्ञापन की रुलाई

उसके रोने को
हँसने की तरह देखते हैं सब
अभाव के चेहरे पर
हँसी का विज्ञापन है
वह हँसी के बारे में
बहुत कुछ
जानना चाहता है
जैसे बच्चे
जानना चाहते हैं
देश के बारे में
गाँधी के बारे में
आजादी के बारे में
उस सरहद के बारे में
जहाँ गोलियों की बारिश में
चलती हैं कक्षाएँ
जहाँ खतरा धूल
और पानी के जैसे
हवा में घुल-मिल गया है
वह जानता है
जब तक हँसता रहेगा
भरता रहेगा उसका पेट
मिलता रहेगा काम
और जैसे ही रोयेगा
दुत्कार देंगे सब के सब
वह अपनी हँसी को
फूल की तरह सहेजता है
तकि मुरझा न जाए
उसकी मुस्कान
वह इसी मुस्कान की बदौलत
अपनी गरीबी से
लडता आया है
अपने भूख के गड्ढे को
भरता आया है
उसे इतना मालूम है
कि सस्ती चीजों के
विज्ञापन में मँहगे लोग
जी-जान से जुटे हैं
और एक न एक दिन
सारी सस्ती चीजें
मंहगी होती जायेंगी
तब वह रोयेगा
विज्ञापन की रुलाई
और जीत जायेगा युद्ध।।

४.
हम जब अमृत उगायेंगे

तुम सामंत हो,
वजीर हो या बादशाह
यह चमकता हुआ सिंहासन
हमने ही सौंपा है
तुम अमरीका से
करते हो परामर्श
और हमें ठुकरा देते हो
भला वो क्या जानेगा
भारत के बारे में
हमारे आवेगों,
संवेगों के बारे में
हमारे घरों व माँओं के बारे में
हमारी उस भूख के बारे में
जो अँतडियों में जलकर
आग बनती जाती है
हमारी गायों, भैसों व
बकरियों के बारे में
हमारे खेती के
औजारों के बारे में
हमारे होरी व धनिया के बारे में
हमारे उन आदर्शों के बारे में
जो गंगा में धुलकर
हो जाते हैं पाक
ओबामा !
तुम्हारे मंसूबों, हथियारों
व बाजारों से
भला क्या बदल पायेगा यहाँ
तुम अपने जहर को
अपने ही खेतों में छींटो
हम जब अमृत उगायेंगे
सौंपेगे उसकी कुछ बूँद
और बदल जायेगा
अमरीका का स्वभाव
हमारी आकाश-गंगा में
उज्जवल धाराएँ हैं
हम तैरकर पार कर लेंगे
दुःखों का समंदर
और इन सिरफिरे सामंतों को
जो संसद के रखवाले हैं
और जो अमरीका की
भाषा बोलते हैं
सिर के बल चलाकर
भारत की
धरती पर खडा कर देंगे।।
***

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17 Responses to रंजना श्रीवास्तव की चार कविताएँ

  1. चारो तो नहीं लेकिन २ रचनायें पढ़ीं अच्छा लगा बाकी २ फिर कभी पढूंगा...
    मेरे ब्लॉग पर इस बार सुनहरी यादें ....

    ReplyDelete
  2. पहली प्रतिक्रिया.... बधाई..!

    ReplyDelete
  3. खबर के चेहरे पर
    चिपका रहे हैं विज्ञापन
    विज्ञापन
    एक नकली दुनिया का
    मानचित्र है
    जो कभी नहीं बदल सकता
    असल की तकदीर
    असल की
    तकदीर बदलने के लिए
    जड से सोचा जाना होगा
    फुनगी पकडकर
    पेड को हिलाने से
    कैसे काँपेगी भला पृथ्वी।।
    कमाल की लेखनी है...
    कितनी गहराई में उतरकर निकाले गए हैं ये साहित्यिक मोती.

    ReplyDelete
  4. पूरब से जो कविता आती है उसमे आम आदमी का स्वर मुखर होके आता है.. रंजना जी उन्ही कविताओं का प्रतिनिधित्व कर रही हैं.. पहली कविता सबसे सशक्त है... और कामरेड को अभी कई और सवालों के जवाब देने हैं.. ना जाने कभी दे भी पायेंगे की नहीं..

    ReplyDelete

  5. बहुत सुन्दर रचना । आभार
    ढेर सारी शुभकामनायें.
    Sanjay kumar
    http://sanjaybhaskar.blogspot.com

    ReplyDelete
  6. आपकी हर एक कविता एक उत्साह एक आग भरति हुई सी लगी. सारी कवितायेँ एक से बढ़ कर एक हैं.

    धन्यवाद यहाँ प्रस्तुत करने के लिए.

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  7. रंजना जी,
    ‘मुक्तछंद’ को ‘छंदमुक्त’ बनने से रोकने के लिए जिस फड़कती हुई काव्य-भाषा, जिस तेवर और जिस प्रवहमानता की दरकार होती है, वह सब सामान आपके पास है। मैं आप जैसी सु-सज्जित कवयित्री को सुंदर कविताओं पर बधाई देते हुए ख़ुशी का अनुभव कर रहा हूँ।

    ReplyDelete
  8. बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है!
    या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
    नवरात्र के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!

    मरद उपजाए धान ! तो औरत बड़ी लच्छनमान !!, राजभाषा हिन्दी पर कहानी ऐसे बनी

    ReplyDelete
  9. रंजना श्रीवास्तव की कविताएं महज कविताएं ही नहीं हैं, कविता से आगे भी बहुत कुछ हैं। इन कविताओं में विचार तो है ही पर वह कवि की सम्बेदना में इतना घुला-मिला है कि वह खुरदरा नहीं लगता। रंजना जी का कविता में अपनी बात कहने का एक अलग ही मुहावरा है जो उन्हें समकालीन कविता में एक भिन्न और विशिष्ट पहचान देता है।
    ऐसी दमदार कविताओं के लिए रंजना जी को बधाई ! आपने उनकी सशक्त कविताएं प्रकाशित की है, आप भी बधाई के पात्र हैं।

    ReplyDelete
  10. कृपया www.kavyanchal.com पर प्रकाशित करवाने के लिए अपनी तथा अपने मित्रगणों की रचनाएँ प्रेषित करें।

    -चिराग़ जैन

    ReplyDelete
  11. .

    कृपया चौथी कविता में उज्जवल को उज्ज्वल करें.
    बाक़ी सब ठीक है.
    मैंने आपकी चारों कवितायें पढीं एक भी नहीं छोडी.
    अभी और पढनी हैं प्रतीक्षा रहेगी.

    .

    ReplyDelete
  12. विचारों के तीव्र प्रवाह के साथ भाव की तीव्रता आपकी कविताओं की जान है,आज के समाज के चेहरे पर कई प्रश्न उछालती है आपकी रचनाएँ.

    ReplyDelete
  13. रंजना जी, कामरेड वाली कविता सोचने पर विवश करती है|

    दूसरी कविता का यह उद्गार सहज ही सराहनीय है
    "फुनगी पकडकर
    पेड को हिलाने से
    कैसे काँपेगी भला पृथ्वी।।"

    तीसरी कविता की जेहन हिला देने वाली पंक्तियाँ:-

    अभाव के चेहरे पर
    हँसी का विज्ञापन है

    उस सरहद के बारे में
    जहाँ गोलियों की बारिश में
    चलती हैं कक्षाएँ
    जहाँ खतरा धूल
    और पानी के जैसे
    हवा में घुल-मिल गया है

    और आप की चौथी कविता के ये अंश:-

    जो गंगा में धुलकर
    हो जाते हैं पाक

    हम जब अमृत उगायेंगे
    सौंपेगे उसकी कुछ बूँद
    और बदल जायेगा
    अमरीका का स्वभाव


    रंजना जी शायद पहली बार पढ़ रहा हूँ आपको| बहुत ही अच्छा लगा पढ़ कर| आगे भी ऐसे मौके मिलते रहेंगे, इसी आशा के साथ|

    ReplyDelete
  14. Ranjana Ji,
    Namaste,

    Chaaron kavitayein Sunder hain per mujhe aapki pehli kavita ki kuchh panktiyaan bahut achchi lagi
    वह जिस चाकू से
    काटती थी सब्जी
    उससे दुःख का गला
    रेत सकती थी
    पर किसी हत्या के
    अपराध में
    शामिल होने से
    कतराती रही उम्र भर
    उसके चूल्हे में जो आग थी
    जला सकती थी
    उसकी विपन्नता के
    सारे संकल्पों को
    पर उसने उस पर
    सिर्फ रोटियॉं पकायीं
    और परिवार के हिस्से में
    भूख से लडने की
    सारी विपदाओं को
    धुआँ हो जाने दिया
    उसने उन हथियारों को
    जो उसकी रसोई का
    हिस्सा थे
    Badhaayi

    Surinder Ratti
    Mumbai

    ReplyDelete
  15. Aap ki tippaniyan padhi, bahut achchha laga.shekhar suman ji,shahid mirza shahid ji,arun c. roy ji, sanjay bhaskar ji,anamika ji, jitendra jauhar ji,subhas neerav ji, pratul vashishthha jirajiv ji, navin c chturvedi ji, avm surindar rathhi ji---aap sabke comment ke liye tahedil se shukraguzar hun.

    Ranjana Srivastava

    ReplyDelete
  16. रंजना जी बधाई आपकी कविताएँ अनुभूति की सच्चाई बयान करती है। ऐसे ही लिखती रहें। बस जल्दबाजी के चक्कर मे न पडे।

    ReplyDelete
  17. यह डुगडुगी पीटी गयी
    कि जब भी अपने बारे में
    सोचेगी स्त्री
    अनैतिक हो जायेगी
    उसकी सोच
    मुल्ला-मौलवी, कुल-पुरोहित
    देवी-देवता सब के सब
    कुपित हो जायेंगे

    बिल्कुल सच्ची और मन के दुख को दर्शाती हुई पंक्तियां

    विज्ञापन
    एक नकली दुनिया का
    मानचित्र है
    जो कभी नहीं बदल सकता
    असल की तकदीर
    असल की
    तकदीर बदलने के लिए
    जड से सोचा जाना होगा

    वाह!क्या बात है !

    तीसरी कविता के लिये एक शब्द -बेहतरीन

    ओबामा !
    तुम्हारे मंसूबों, हथियारों
    व बाजारों से
    भला क्या बदल पायेगा यहाँ
    तुम अपने जहर को
    अपने ही खेतों में छींटो
    हम जब अमृत उगायेंगे
    सौंपेगे उसकी कुछ बूँद
    और बदल जायेगा
    अमरीका का स्वभाव

    बहुत सुंदर!और बिल्कुल सही सीख दी है आप ने
    चारों कविताओं के लिए बधाई

    ReplyDelete

आपकी अमूल्य टिप्पणियों के लिए कोटिशः धन्यवाद और आभार !
कृपया गौर फरमाइयेगा- स्पैम, (वायरस, ट्रोज़न और रद्दी साइटों इत्यादि की कड़ियों युक्त) टिप्पणियों की समस्या के कारण टिप्पणियों का मॉडरेशन ना चाहते हुवे भी लागू है, अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ पर प्रकट व प्रदर्शित होने में कुछ समय लग सकता है. कृपया अपना सहयोग बनाए रखें. धन्यवाद !
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