संजय जनागल की तीन लघुकथाएँ

रचनाकार परिचय
नाम- संजय जनागल
जन्म- 3 मार्च, 1981, बीकानेर, राजस्थान
पिता- श्री भँवरलाल जनागल
शिक्षा- एम.ए.(हिंदी), बी.एड., पीजीडीसीए
लेखन- हिंदी एवं राजस्थानी भाषा में समान हस्तक्षेप
प्रकाशन- दैनिक भास्कर, दैनिक युगपक्ष, अजीत समाचार, अक्षर ख़बर, विकल्प आदि पत्र-पत्रिकाओं में ।
अंतरजाल- सृजनगाथा, रचनाकार, साहित्य शिल्पी आदि वेब पत्रिकाओं में
प्रकाशनाधीन- अपने-अपने समाज (लघुकथा संग्रह)
सामाजिक गतिविधियाँ- उपाध्यक्ष, सोशल प्रोगेसिव सोसायटी, बीकानेर
पुरस्कार- यू.आई.टी. बीकानेर का एल. पी. तैस्सीतोरी राजस्थानी गद्य (नवोदित) 2009-2010
पैसे की महिमा
रामू सोच में पड गया कि अब पैसा देखूं या योग्यता ? कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि अपनी लडकी का रिश्ता अजय से करूं या विजय से?
मोहन ने कहा ‘‘देख यार जमाना बदल गया है। आज सबसे पहले तो लडके की योग्यता देखनी चाहिए फिर ही कोई फैसला लेना चाहिए। केवल धन दौलत देखकर लडकी की शादी कर देना कोई अक्लमंदी नहीं है।’’
‘‘मोहन, अजय है तो बहुत योग्य लडका। वह मेरी लडकी के बराबर शैक्षिक योग्यता भी रखता है लेकिन वह बहुत गरीब घर से है उसने यहां तक पढाई कैसे की है यह बात पूरे समाज में किसी से छिपी नहीं है और एक तरफ विजय है जो दसवीं फेल है परन्तु उसके पास पैसों की कोई कमी नहीं है। आखिर कौन बाप अपनी बेटी को सुखी देखना नहीं चाहता?’’ रामू ने कहा।
रामू ने समझदारी दिखाते हुए अपनी लडकी का विवाह विजय से कर दिया। लडकी के मना करने के बावजूद उसकी एक नहीं सुनी गई। योग्यता पैसों के आगे बौनी साबित हुई।

कहीं खुशी, कहीं गम!

पार्टी की तरफ से राष्ट्रीय स्तर पर हुए सम्मेलन में जब सब खर्चों को जोडा गया तो पता चला कि करीब १५ करोड रुपये खर्चा आया है। पार्टी आलाकमान, नेता, समाज सेवक, गरीबों के हितेषी सभी खुश थे कि सम्मेलन शांतिपूर्वक हो गया और पार्टी के प्रचार के साथ-साथ हमारा भी प्रचार हो गया। सभी एक दूसरे को बधाईयां दे रहे थे। सरकार ने भी सम्मेलन में हुए खर्चों की तरफ ध्यान नहीं दिया क्योंकि मामला पार्टी से जुडा था। छोटे-मोटे नेता भी खुश थे क्योंकि पहली बार उन्हें भी अपनी बात कहने का मौका दिया गया था। भिखारी भी खुश थे क्योंकि उन्हें भाषण के बाद तरह-तरह के व्यंजन जो परोसे गये थे।
दुखी तो सिर्फ वो लोग थे जिन्हें पता था कि इस खर्चे का भार भी हम पर ही पडने वाला है।


ये कैसा खेल है?

पैसे की तंगी से परेशान हो एक मां ने अपने कलेजे पर पत्थर रखकर अपने पांचों बेटों में से छोटे बेटे को बेच दिया। एक अमीर औरत ने उस गरीब मां के ९ वर्षीय बेटे को महज चंद रुपयों के बदले अपने पास रख लिया। उस औरत ने सभी को यह विश्वास दिलाया कि उसने एक गरीब मां की मदद की और उसके बेटे के जीवन को बचाने के लिए उस मासूम को अपने पास रख लिया लेकिन हकीकत कुछ और ही थी।
वह अमीर औरत अपने काम के लिए या अपनी ममता की तृप्ति के लिए उस ९ वर्षीय लडके को नहीं लाई थी बल्कि अपने सगे बेटे के लिए लाई थी जो बेजुबान खिलौनों से खेलकर थक चुका था, उसे चलता-फिरता खिलौना चाहिए था।
***
संपर्क-
संजय जनागल
बड़ी जसोलाई
रामदेवजी मंदिर के पास, बीकानेर, राजस्थान

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11 Responses to संजय जनागल की तीन लघुकथाएँ

  1. संजय की तीनों लघुकथाएं बहुत ही सटीक हैं | गहराई से अपनी छाप छोड़ जाती है | अभिनन्दन |

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  2. ktha likhna bda hi jokhimka kam hai aap ne likha hai bdhai
    phli lghukta me ydi aakhiri pnktiyan nhi hoti to bhi ktha apna sndesh swt:de deti yhi ktha ki uchchta hai ktha me sndesh khne ya btane kibjay swt prkt hona chahiya
    nirntr likhte rhe
    shubhkamnaye
    bhai nrendr nirntr sahity seva me snlgn hai bahut bdi bat hai nerndrji ko bhi is ke liye bdhai v shubhkamnayen

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  3. तीनों लघुकथाएं बहुत ही सटीक सामयिक अभिव्यक्ति की परिचायक हैं ... आभार

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  4. teeno hi laghukathayein sundar,,,,,
    मेरे ब्लॉग पर मेरी नयी कविता संघर्ष

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  5. संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने का प्रारम्भ.
    कथा माध्यम चुना. शुभकामनाएँ.

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  6. बहुत अच्‍छे, इस उम्र में इतनी स्‍पष्‍ट सोच और सरोकार। कथानक भी नवीनता लिये हुए हैं। बधाई।

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  7. भाई संजय जनागल जी, आपकी तीनो लघुकथाएं बहुत अच्छी लगीं ! तीनो ही का विषय बहुत सुन्दर चुना आपने और लघुकथा के स्वरूप के अनुसार अपनी बात भी सीमित शब्दों में सफलता से कह दी आपने, जिसके लिए आप बधाई के पात्र हैं ! आपकी तीसरी लघुकथा "ये कैसा खेल है?" का सब्जेक्ट लीक से बिलकुल हट कर है, जो कि बहुत ही अच्छा लगा!

    सिर्फ एक सलाह आपको अवश्य देना चाहूँगा, लघुकथा का अंत कुछ ऐसा हो जैसे किसी मधुमक्खी का डंक होता है, या फिर उस पटाखे की "धड़ाम" की आवाज़ की तरह हो जो कि चुपके से बिना बतलाये किसी की पीठ के पीछे फोड़ दिया गया हो ! अर्थात लघुकथा का अंत ऐसा हो कि पाठक को बिजली के झटके जैसा महसूस हो और वो अवाक सा रह जाए ! आपकी तीनो लाघुकथायों में उस डंक उस झटके की कमी महसूस हुई है, कृपया भविष्य में अगर इस पर भी ध्यान रखें तो आपकी लेखनी में और निखार आएगा !

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  8. यह कैसा खेल -लघुकथा,दिल को बुरी तरह कचोट गई|मार्मिक अभिव्यक्ति के लिये बधाई|
    सुधा भार्गव

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  9. लघुकथा लिखना कथा लिखने से ज्‍यादा कठिन काम है। लघुकथा से ज्‍यादा ये विवरण लगते हैं।
    वेद व्‍यथित जी ने अपने पहले पैरा में और योगराज प्रभाकर ने जी अपने दूसरे पैरा में जो कहा मैं भी उससे सहमत हूं। लघुकथा का अंत ऐसा होना चाहिए जो पाठक को चौका दे।

    अंतिम लघुकथा दो अर्थ लिए हुए है। सही अर्थ क्‍या है यह स्‍पष्‍ट नहीं होता है।

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  10. जनागल ने विषय तो ठीक उठाये हैं, पर जैसा राजेश उत्साही ने कहा, ये कहानियां, समाचार के रूपांतरण का आभास देकर मन के भीतरी कोने तक पहुंचने के पहले ही लौट जाती हैं.

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  11. sannjay ki teeno laghukathae aachi lagi ye kaisa khel laghu katha dil ko chu gai he

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