नासिरा शर्मा की कहानी- हथेली में पोखर

चनाकार परिचय
नाम- नासिरा शर्मा
जन्म- २२ अगस्त (इलाहबाद)
सृजनकर्म
उपन्यास: सात नदियाँ एक समंदर, शाल्मली, ठीकरे की मंगनी, ज़िन्दा मुहावरे, अक्षयवट, कुइयाँजान, जीरो रोड.
कहानी संग्रह: शामी काग़ज़, पत्थर गली, इब्ने मरियम, संगसार, सबीना के चालीस चोर, ख़ुदा की वापसी, दूसरा ताज़महल, इंसानी नस्ल, बुतख़ाना.
नाटक: पत्थर गली, दहलीज़, सबीना के चालीस चोर, इब्ने मरियम, प्लेटफ़ॉर्म न. ७, अपनी कोख. फ्रांस और जर्मनी टी.वी. पर ईरानी बाल युद्धबंदियों पर बनी फिल्मो में सहयोग.
संपादन-संयोजन: क्षितिज के पर- राजस्थान के लेखकों का संग्रह, सारिका एवं 'पुनश्च' ईरानी क्रांति विशेषांक, वर्तमान साहित्य का महिला कथा विशेषांक.
अनुवाद: इकोज़आफ इरानियन रेवुलूसन प्रोटेस्ट पोयट्री, बर्निंग पायर, शाहनामा फ़िरदौसी, काली छोटी मछली, किस्सा जाम का, गुलिस्ताने साडी,
अन्य पुस्तकें: राष्ट्र और मुसलमान, औरत के लिए औरत (लेख), किताब के बहाने (आलोचना), जहां फव्वारे लहू रोते हैं (रितोपर्जन), अफ़गिस्तान:बुज़कशी का मैदान, मरज़ीना का देश:इराक़ (अध्ययन).
बाल साहित्य: बदलू, दिल्लू दीमक, भूतों का मेकडोनल (उपन्यास), सेब का बाग़, परी का शहर, शहर में खजूर, वर का चुनाव, हँसी का दर्द, डूबता पहाड़, ईरान की रोचक कहानियाँ, वियतनाम की लोककथा, गुल्लू (कहानी).
नवसाक्षरों के लिए कहानी पुस्तक: पढ़ने का हक़, सच्ची सहेली, एक थी सुल्ताना, गिल्लो बी, धन्यवाद-धन्यवाद.
सीरियल-टेलीफिल्म: तड़प, सेमल का दरख़्त, काली मोहिनी, आया बसंत सखी, माँ, बावली-ताबूत (टेलीफिल्म), शाल्मली, वापसी, दो बहने, यह मोहब्बत (सीरियल).
हथेली में पोखर

यहाँ से वहाँ तक मकानों के जंगल फैले हुए थे। जो घने सायेदार पुराने दरख्त थे, वे कॉलोनी के नक्शे ने पहले ही काटकर खत्म कर दिए थे। हल्की धूप के बादल घरों को घेरे रहते, जिसमें रेत और सीमेंट के कण मिले होते। बाजार दूर था। मजदूरों की जरूरत के मुताबिक जो चाय की झुग्गी ओर इकलौता ढाबा वजूद में आया था, उसका अब कोई निशान बाकी नहीं रह गया था। लोगों ने बसना शुरू कर दिया था। इस भीड में कैलाश भी था, जो इस खयाल से उबर ही नहीं पा रहा था कि वह एक अदद मकान का मालिक बन गया है। कहने को दो छोटे-छोटे कमरे थे, मगर उस पर दाखिल और काबिज तो कैलाश ही था। उसकी हर खुशी उसकी पत्नी रीता और दोनो छोटे बच्चों में भी नजर आती थी।

किराए के मकान में रहते-रहते वे दोनो ऊब चुके थे। बार-बार मकान का बदलना, फिर कभी पानी नहीं, तो कभी बिजली नहीं, तो कभी मकान मालिक से बहस, तो कभी पडौसी से मनमुटाव। अब अपना घर था। जैसे चाहो रहो- न कोई रोकने वाला था, न कोई टोकने वाला कि यह मत करो, वह मत करो। पहली रात थोडा-बहुत सामान जमाकर दोनो घोडे बेचकर सोए। सुबह उठे तो कैलाश ने रीता से कहा ‘‘क्यों, अब तो कोई शिकायत नहीं है?’’

‘‘बस बाजार दूर है। सब्जी-भाजी तो आपको लानी पडगी।’’

‘‘उसकी चिन्ता मत करो, ऑफिस से लौटते हुए जरूरत का सारा सामान मैं ले आया करूँगा।’’ कैलाश ने मगन होकर कहा।

‘‘वह तो ठीक है....मगर जब तक तुम लौटोगे तब तक बच्चों के सोने का समय हो जाएगा।’’ रीता ने चिंता से कहा।

‘‘फ्रिज तब तक ठीक हो जाएगा जब तक मेरी छुट्टी खत्म होगी।’’ कैलाश ने जल्दी से कहा और बाथरूम की तरफ बढा। वह अपना मूड खराब नहीं करना चाह रहा था। शावर खोलते ही जलप्रपात की तरह पानी उसके सिर पर गिरा। आज वह देर तक नहाता रहा। उसे अपनी अक्लमंदी पर खुशी महसूस हो रही थी कि उसने इस दूर बियाबान में ही सही, मकान लेकर अच्छा किया। आबादी के बसते ही बाजार भी बस जाता है। फेरीवाले तो कल दिखे थे। जिस तरह शहर फैल रहा है, उसके देखते हुए कोई हिस्सा अभी तक वीरान नहीं है। इधर कॉलोनी बनी उधर रौनक शुरू हो गई। बस स्टॉप बनते ही दूरियाँ कम हो जाएंगी।

धीरे-धीरे सारे घर बस गए थे। चहल-पहल ने माहौल बदल दिया था। मिलना-मिलाना भी शुरू हो गया और कुछ दूरअंदेश लोगों ने मिलकर एक कमेटी भी बना ली थी, ताकि बाकी बची सहूलियतों की प्राप्ति में आसानी हो। दीवाली में दीयों से सजे घरों में सबको अलग तरह की चमक नजर आ रही थी। नए घर में पहली दीवाली पडी थी, इसलिये कुछ ज्यादा ही ध्यान खरीदारी और मेहमानदारी पर था। कैलाश ने खिडकी-दरवाजे के परदों के साथ पुराना सोफा भी बदल दिया था। धनतेरस में कहाँ एक-दो बर्तन खरीदता था। इस बार किचन भी नए बर्तनों में चमचमा उठा था। पटाखे भी दिल खोलकर छुडाए गए। दीवाली कुछ इस तरह मनी थी कि उसकी याद कई महीनों तक ख़ुशी देती रही।

गर्मी की शुरूआत और जाडे की विदाई से मौसम तो बदला ही, साथ ही स्थिति भी बदल गई। कैलाश के अन्दर नाचती खुशी चिन्ता में बदलने लगी थी। शहर में पानी कैलाश के मन में धुकधुकी-सी लगी रहती कि मोटी धारवाले नल कहीं धोखा न दे जाएँ। मई माह शुरू हो गया था। कॉलोनी में दो दर्जन पेडों को बारी-बारी से पानी मिल रहा था। उन्होंने अपना कद भी बढाया था। धूल भी उडना बन्द हुई थी। रोज कहीं-न-कहीं कोई छिडकाव कर सूखी मिट्टी का भुरभुरापन खत्म कर रहा था। कुछ ने घास लगाकर रॉक गार्डन बनाने की भी कोशिश की थी। जिसके पास जो था, उसी में वह बेहतर से बेहतर तरीके से रहने की कोशिश कर रहा था। कैलाश के घर के सामने भी गमलों की कतारें नजर आने लगी थीं, जिसमें रोज काजल और केसर पानी देते और बडी देर तक नन्हे पौधों में नई पत्तियों के फुटाव को तलाश करते हुए रंग-बिरंगे फूलों की कल्पना करते।

‘‘मैं पहला फूल अपनी मैम को दूँगा।’’ काजल कहता।

‘‘कैसे दोगे?’’ केसर आँखें मटकाती।

‘‘क्यों? तोडकर दूँगा।’’ काजल उसकी अज्ञानता पर हँसता।

‘‘वह तो पहले ही पापा तोड लेंगे।’’ केसर ने सिर हिलाते हुए कहा।

‘‘यह हमारे गमले हैं। पापा कहते हैं कि इनकी देखभाल तुम्हें करनी है, सूखने न पाएँ।’’ काजल बोल उठा।

‘‘पापा मम्मी से कह रहे थे कि जब हमारे घर में पहला फूल खिलेगा, तो मैं उसे तुम्हारे बालों में लगाऊँगा। मैंने खुद पापा को कहते सुना है।’’ केसर ने काजल को बताया। यह सुनकर काजल उदास हो गया। उसका उतरा चेहरा देखकर केसर भी उदास हो गई। दोनों कुछ देर गमलों के पास चुपचाप बैठे रहे। फिर काजल ने धीरे से कहा-

‘‘यह भी तो हो सकता है केसर कि सारे गमलों में साथ-साथ फूल खिलें?’’

‘‘हो सकता है। ऐसा हो सकता है, भैया!’’ केसर ने कहा।

दोनों के चहरे पर खुशी तैर गई। एक-दूसरे की तरफ देख दोनो हँस पडे।

यह खुशी भरी हँसी जो सभी के चेहरों पर नाचती रहती थी, जून के आते ही झुँझलाहट और बेबसी में बदल गई। पानी की लाईन कट गई थी। मेन टंकी सूखी पडी थी। फूल खिलना तो दूर, पौधे ही मुरझाने लगे थे। कॉलोनी कमेटी भी क्या कर सकती थी? जब पूरा शहर इसकी चपेट में था। अब एक ही चारा रह गया था कि पानी के टैंक मँगाए जाएँ और कतरा-कतरा पानी नाप-तौलकर खर्च किया जाए। मेल-मिलाप की जो बयार इस नए मौहल्ले में उल्लास बनकर बही थी, उसने अपना रूप बदल लिया था। एक चिडचिडाहट-सी सबके दिमागों पर हावी रहती और मन ही मन अपने को कोसते कि सस्ते के चलते इस बियाबान में आकर क्यों बसे? कॉन्ट्रेक्टर अपना दिया वादा छह माह तक पूरा करके अब स्थिति के सामने लाजवाब हो गया था। उसके बस में कुछ नहीं रह गया था।

‘‘इतना महँगा पानी हम कब तक खरीद पाएँगे?’’ रीता परेशान होकर सोचती।

‘‘कहीं ये मकान बेचना न पड जाए।’’ कैलाश चिन्ता में डूब जाता।

‘‘बच्चों के भविष्य का क्या होगा?’’ रीता बजट देखती।

‘‘सेविंग एकाउंट में पिछले दो माह से रुपये डाले नहीं। अगर यही हाल रहा खर्चे का तो? पेट्रोल का, पानी का, खाने की चीजों का... सभी का खर्चा बढ गया है। अपना मकान पाकर हमें क्या मिला? किससे जाकर शिकायत करें?’’ कैलाश पास-बुक को खोलता, बन्द करता परेशान हो सोचता।

कॉलोनी एकबार फिर पहले वाली स्थिति में लौट आई। पेड-पौधे सूख गए। रॉक गार्डन और नन्हे-नन्हे घास के चबूतरेनुमा लॉन कहीं खो गए। गरम तेज धूप जब अपना आँचल फैलाती, तो लू के धूलभरे भक्कड पूरी कॉलोनी में चीखते फिरते। अब न कोई इस डर से अतिथि सत्कार का मन करता, न कोई किसी के घर जाता कि बेकार में पानी खर्च होगा, चाहे चाय बने या शर्बत, जूठे बर्तन तो धोने पडेंगे और इस चक्कर में आधा बाल्टी पानी खर्च हो जाएगा। पानी घटा तो संवेदना भी जैसे शिथिल पडने लगी।

गर्मी अपने भरपूर जोबन पर थी। बिजली के न रहने पर दो छोटे कमरे तन्दूर बन दहक उठते थे। करवट बदलते, उठकर बार-बार पानी पीने से भी न पसीने की धार रुकती, न नींद आती। काजल अधौरियों से लाल पीठ की चुनचुनाहट से तंग आकर नहाना चाहता, तो रीता उसे बहलाती, पाउडर डाल पीठ सहलाती और धीरे से कान में कहती-

‘‘दो ही बाल्टी पानी है। सुबह पापा को ऑफिस जाना है... मैं पंखा झल तो रही हूँ।’’

उधर केसर हठ करती कि ठंडी पेप्सी नहीं, तो ठंडा पानी तो दो। उसे तरह-तरह का प्रलोभन दे रीता मनाती और कभी-कभी आँखों से गिरते गरम पानी को आँचल से पौंछ लेती। वह गुस्सा दिखाए भी तो किस पर? एक उन्हीं का परिवार तो यह कष्ट झेल नहीं रहा है, पूरे डेढ सौ परिवार इस यातना से गुजर रहे हैं। कैलाश गई रात तक मनसूबे बनाता, फिर इस खयाल में डूबने लगता कि वह कुएँ की जगत पर बैठा ठंडे-ठंडे पानी को बदन पर उडेल रहा है या सिरकंडों से घिरे तालाब में तैर रहा है। इस फैंटेसी का सृजन कर पसीने से डूबे कैलाश को देर रात में नींद आ ही जाती। सारे दिन का थका और ताप बदन घर की भट्टी में भुनता जरूर, मगर यही पीडा उसे नींद में डूबने में मदद भी करती।

गर्मी कम हुई।

काजल अपनी मैम को फूल नहीं दे पाया।

कैलाश रीता के जूडे में फूल नहीं लगा पाया।

रीता के चेहरे का कँवल नहीं खिल पाया।

संवेदना हसरत बनते-बनते आखिर शुष्क पडने लगी और सारी इच्छाएँ यथार्थ से टकरराकर चूर-चूर हो गईं। टूटे गमलों को हटा दिया और उसकी जगह सदाबहार कागज के फूलों का गुच्छा मंगल बाजार से खरीदकर रीता ने गुलदानों में खोंस दिया। रसेदार सब्जी बनना लगभग बन्द हो गई।

‘‘मम्मी, इस फ्रॉक से बदबू आ रही है, दूसरी दो।’’ केसर मचलतीं

‘‘कहाँ बदबू आ रही है? जल्दी से पहनो, तो मैं हलवा बना दूँ।’’ रीता की रिश्वत काम आ जाती और रोज धुले कपडे पहनने वाली केसर दो दिन की पहनी फ्रॉक को फिर से पहनने पर राजी हो जाती। उसके नथनों से पसीने की गंध की जगह देसी घी में भुने सूजी के हलवे की सुगन्ध भर जाती।

जिन्दगी बडी किफायत से आगे बढ रही थी। रोज का मोर्चा था जिस पर डटे हुए युद्धरत रहना था। अन्दर जमा धैर्य-शक्ति को बडी कंजूसी से खर्च कर रहा था। कैलाश के लिए दफ्तर-घर दोनो चुनौतियाँ दे रहे थे। नए अफसर ने आकर नीति बदली, तो पुराने काम करने वालों को अपनी आदतें और काम करने का ढंग बदलना पडा। कैलाश दफ्तर में समझौतों की चक्करघिन्नी बना घर लौटता तो वही मशक्कत रीता को करते देखता। रीता का चेहरा अब मुस्कुराना भूल चुका था। उसकी आँखों के दोनो तरफ सिलवटें पडने लगी थीं। बाल भी रूखे-रूखे लगते और आँखें थकी-थकी सी, जैसे बरसों से सोई न हों।

इन दो वर्षों में हमने उम्र के दस वर्ष पार कर लिए हों जैसे...यही रफ्तार रही तो...कैलाश परेशान हो माथा रगडता। ऑफस से लिया लोन न नौकरी बदलने देता, न मकान छोडने देता। वह बुरी तरह फँस चुका था। किराए के मकान में सारे कष्टों के बाद हम चारों उडान तो भरते थे। दुःख-सुख में विश्वास बना रहता था। वह विश्वास कहीं पर हिल गया है। वर्तमान देख भविष्य की चिन्ता हरदम सवार रहती है कि कल क्या होगा? इन बच्चों का क्या होगा? क्या हमारे बनाए प्लान ओर हमारे देखे सपने पर इनका भविष्य निर्माण होगा या फिर हमारी योजना कब हमारी कोशिशों से अन्त तक पहुँच पाती है, फिर इनके लिए जीवन का एक स्वरूप बनाना रेत पर बुनियाद खडी करने जैसा नहीं है क्या?

‘‘जून के अन्तिम सप्ताह तक मानसून के आने की आशा है।’’ समाचार में दी गई सूचना कैलाश के मन में आशा के दीप नहीं जला पाई। शायद इसलिए भी कि ऊपर से बरसा पानी उसकी जरूरतों को पूरा नहीं कर सकता। भले ही वह खेत व बागानों पर बरसकर खाली सूखी नदी-ताल को भर सकता है, मगर मरे पौधों में जीवन नहीं भर सकता। नल में पानी की मोटी धार बनकर नहीं गिर सकता है। यहाँ कपडा पहने-पहने बारिश के पानी में नहाने का मजा तक कोई नहीं ले सकता, फिर हमारे किस काम की बारिश? बारिश और फिर उमस! कैलाश की खिसियाहट कल्पना की उडान पर चढी कटी पतंग बन खुले आसमान पर इधर-से-उधर डोल रही थी। निराशा ने उसे घेर रखा था। उसे अपनी किराए की बरसाती याद आ रही थी, जहाँ खिली धूप और चाँदनी थी। अगर गरम हवा के थपेडे थे, तो बरसात की ठंडी हवा भी, मगर इस घुटे घर में सब-कुछ राशन से मिलता है। बिजली चली जाती है, तो खिडकी भी ओर बालकनी भी कोई राहत नहीं दे पाती है। आखिर कहाँ फँस गया वह?

मौहल्ला परेशानियों से ऐसा घिरा कि आपसी संबंध तो दूर, आँखों की शर्म भी जाती रही। न दोस्ती बढेगी, न बाल्टी पानी की माँग होगी। नाली बन्द हो जाए या फिर सीढी धोने के लिये जमादार पानी माँगता, तो सब आनाकानी कर जाते थे। धूल के साथ एक बदबू भी हवा में घुलने लगी थी, जिससे बच्चे भी बीमार जल्दी-जल्दी पडने लगे थे। यह एक नया खर्च सामने आन खडा हुआ था। रीता का हौंसला चुक गया था, मगर वह कुछ बोल नहीं सकती थी। मजबूरी और बेबसी ने उसके होंठों पर ताला डाल दिया था। कभी-कभार कैलाश को ताकती तो उसका चेहरा देख पहले से ज्यादा अधमरी हो जाती।

‘‘गाँव से फोन आया है- चाचा नहीं रहे।’’ दोपहर को एकाएक कैलाश ने घर पहुँचकर सूचना दी।

‘‘यह तो बुरा हुआ!’’ रीता उदास हो बोली।

‘‘मेरी अटैची ठीक कर दो, मुझे अभी एक घंटे बाद निकलना होगा।’’ कैलाश इतना कहकर पसीने से भीगे कपडे बदलने लगा। बालटी का पानी गरम था। बिजली न होने के कारण पीने का पानी भी ठंडा न था। अन्दर-बाहर की गरमी को झेलते हुए कैलाश ने गाँव की राह ली। उसी गाँव की, जिससे भागकर वह इस बडे शहर में आया था।

गाँव पहुँच कैलाश उदास हो गया। यह उदासी गहरी और पर्तदार थी। चाचा के बाद पुरानी पीढी का अध्याय समाप्त हो गया था। घर-परिवार में वह अब सबसे बडा था। चचा तहसीलदार थे। रिटायरमेंट के बाद गाँव आकर बस गए थे। पिछले दस वर्षों में उन्होंने कच्चे घर को पक्का करवा बहुत आरामदायक बना लिया था। बिजली, कूलर, फोन- सारी सुविधाओं के साथ नल-कुँआ और हैंडपंप भी मौजूद थे। पानी की इफरात थी। दूसरी ओर, उसके घर का हिस्सा टूटकर मिट्टी का ढेर हो चुका था। सामने वाला तालाब भी सूख चुका था, जहाँ गाँव के लोग मवेशी बाँधते या फिर कूडा डालते थे। चचा की दी गई कई बार की चेतावनी कि घर बिसमार हो रहा है, यदि खुद न देखो, तो हमसे कहो कि पुरखों की ड्योढी सँभाल लें, मगर वह गुमसुम बना रहा। पिताजी व चचा के बीच संबंध कडवे थे। पिता ने मरते-मरते ये शब्द कहे थे कि चचा की आँख हमारे हिस्से पर है। आज कैलाश को लग रहा था कि उसी वाक्य का बहाना बना वह शहर में अपने ठौर-ठिकाने की तलाश में था, मगर आज क्या हुआ? चचा चले गए। कैलाश उन्हीं के हिस्से में ठहरा हुआ है। अपने घर का हाल देख वह व्यथा में डूबने लगा। वहाँ केवल मलबे का ढेर था।

‘‘भैया, हमतो अपने-अपने घर हैं। अब यह सब कौन संभालेगा?’’ चचा की बडी बेटी ने बाप के घर से चलते हुए कैलाश के सीने पर सिर रखकर सुबकते हुए कहा।

‘‘सब हो जाएगा, कनु... रो मत।’’ कैलाश ने भरे गले से कहा।

तीन दिन बाद घर खाली हो गया। दोनों छोटी बहने फिर आने को कहकर चली गईं। कैलाश की छुट्टी भी खत्म हो गई थी, मगर तेरहवीं किए बिना उसका गाँव से निकलना कठिन लग रहा था। उधर काजल बीमार पड गया था। कैलाश भरी धूप में नीम के घने पेड के नीचे लेटा अतीत के झूले में झूल रहा था। कुँए की जगत पर आस-पास की औरतें पानी भर रही थीं। उनकी हँसी व खनकती चूडयों की आवाज भी उसके कानों में गूँज रही थी। उसका मन शहर और गाँव के बीच भटक रहा था। आज सुबह से बिजली नहीं है, नल सूखे हैं। सबने घडे कुँए से भर लिए...चिन्ता की जैसे कोई बात नहीं। कैलाश व्याकुल सा चारपाई से उठा और सामने फैले खेत की तरफ देखते हुए सोचने लगा- ‘‘आखिर गलती कहाँ पर हुई है हमसे?’’

‘‘अपनी जडों से नाता न तोडो, भैयाजी!’’ कहीं से चची की आवाज हवा में सरसराती कैलाश के कानों में पहुंची।

‘‘कच्चा घर लेकर क्या बैठना! समय आगे बढ चुका है। तालाब भी पाटकर समाप्त करो, नल खिंच गए है। अब मच्छरों को नेवता देकर क्या करेंगे? रहा सवाल सिंघाडे का, वह कौन खाता है?’’ यह आवाज कैलाश के पिता की थी।

‘‘जैसी आपकी मरजी।’’ चचा की आवाज गूँजी थी।

‘‘तुम्हारी मजबूरी है कि तुम लडकियों के बाप हो, ब्याह दिया दोनों को मगर; अपना तो बेटा है। जहाँ वह वहाँ हम। शहर की जिन्दगी का सुख तुम क्या जानो!’’ पिता इतना कहकर हँस पडे। उनके स्वर में ऐसा कुछ था जो चचा को गहरे आहत कर गया था। कैलाश बडी देर तक टहलता पुरानी बातों को याद करता रहा।

‘‘अकेले आए हो का, अच्छा होता कि बहू भी साथ होती!’’ पास से गुजरते हुए किसी ने कहा।

‘‘समय नहीं था। जैसे ही खबर मिली, फौरन दौडे आया।’’ कैलाश बोला।

‘‘आम लदा पडा है। बच्चे खाते!’’ कहता वह आदमी आगे बढ गया; मगर कैलाश को पूरी तरह झिंझोड गया। उसकी आँखों के सामने काजल और केसर के मुरझाए चेहरे घूम गए। मन व्याकुल हो उठा। जाने वहाँ पानी का क्या हाल हो? मानसून का भी कहीं पता नहीं है... यहाँ गाँव में अब वह सब-कुछ है, जो उसके गाँव छोडते समय नहीं था। अस्पताल, पी.सी.ओ., सरकारी कार्यालय, पेट्रोल पम्प, बडा बाजार...आखिर यह सब हुआ कैसे? उसने अतीत की परतों को उघाडना शुरू किया।

चचा लौटे तो... हाँ, शायद यही इस गाँव के विकास का सबसे बडा कारण था कि चचा गाँव लौटे। उन्हीं के साथ दो-तीन लोग और रिटायर होकर गाँव लौटे। उनके पास शहर से कमाए पैसे थे, अनुभव था। उन्होंने अपने घर-परिवार को अपने मुताबिक बनाने की कोशिश में लोगों के दिलों में बदलाव के बीज बोए। उसी के साथ सरकारी योजनाओं को दौड-भागकर अपने गाँव तक लाए। लोगों को लाभ पहुँचा। उनका जीवन स्तर बदला।

‘‘मैंने या पिताजी ने क्या किया? गाँव से नाता तोड उस शहर से संबंध जोडा जो कभी अपना नहीं हो सकता है। भौतिक सुख की इस दौड में हम विकास की बातें करते रहे। उस जगह के लिए हम अपने को होम करते रहे जिसको हमारी परवाह है ही नहीं। उन पक्की दीवारों में संवेदना की थरथराहट मर चुकी है। एक बनावटी जिन्दगी हमने अपना ली है। उससे निकलने की राह...? अभी पूरी तरह गुम नहीं हुई है।’’ कैलाश का टूटा हौंसला जैसे आशा की पहली बूँद पडते ही हरा हो गया। उसने ऊपर आसमान को ताका। नीला छत्तुर फैला था। सुरमुई बादल तो दूर, सफेद बादलों का भी कहीं पता नहीं था।

‘‘मेघ पानी दे,’’ बच्चों की टोली मिट्टी पोते नंगे बदन सामने से गुजर गई।

‘‘पानी न बरसा तो फसल का क्या होगा?’’ एक और चिन्ता उभरी।

कैलाश अपने टूटे घर के दालान में फूँस के छप्पर के नीचे बैठा सोच रहा था कि क्या गलती सुधारी जा सकती है? ऊपरवाला पानी जब भी बरसाए, उसके संजोने की व्यवस्था मुझे कर लेनी चाहिये। सुबह होते ही मैं तालाब की सफाई करवाऊँगा। कैसा अंधेर है कि गाँव में कोई पोखर ही नहीं बचा। पहले लाल-सफेद कमल खिलते, जलकुंभी के बीच हम तैरते और सिंघाडे का मजा लेते। वे दोनो पडे ताल रेल की पटरी के पास वाले पटवा दिए गए ओर स्टेशन बन गया। वह भी जरूरी था, मगर यह पोखर तो फिर से जिन्दा किया जा सकता है। कैलाश के मन में उथल-पुथल थी। आँखों में बेचैनी और होंठों पर कंपन। वह सूरज के निकलने का बेचैनी से इंतजार करने लगा। उसकी आँखें झपक गईं। कैलोश ने देखा-

पोखर पक्का बन गया था, जिसके किनारे वह रीता के साथ खडा था, जिसके तीन तरफ बाँस के ऊँचे वृक्ष हवा में झूम रहे थे। आकाश में मूसलाधार बारिश हो रही थी, जो पोखर में गिरकर बताशे फोड रही थी। घर के कच्चे आँगन में चुसनी आम से भरी बालटी के सामने काजल व केसर आम चूस रहे थे। घर भरा है। माँ-पिताजी, चाचा-चाची, दादा-दादी और उसकी दोनो बहनें...अतीत और वर्तमान गड्डमड्ड हो चुका था। वह एक साथ बच्चा और मर्द दोनों की शक्ल में नजर आ रहा था। गाँव का वह घर कभी शहर जैसा लगता और शहर का घर कभी गाँव जैसा। सुख की अनुभूति से कैलाश के रोम-रोम में आराम की कैफियत भरदी थी। उसके हाथों में फैलाव अब दोनों छोरों को छू रहे थे।


-समाप्त
-नासिरा शर्मा
संपर्क: डी-३७/७५४, छत्तरपुर हिल्स, नई दिल्ली- 110030

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6 Responses to नासिरा शर्मा की कहानी- हथेली में पोखर

  1. bahut prabhavshali kahani. nasira jee jaise lekhika ke aane se aakhaar kalash kee pratistha me badhotari hui hai.. humari shubhkaamna !

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  2. नासिरा जी ने बहुत सहजता से पानी की गहराती समस्‍या और गांव और शहर के बीच फैलती खाई की तरफ इशारा कर दिया है। वे कहानी के अंत में हमें ऐसे मोड़ पर छोड़ देती हैं कि हमें खुद तय करना है कि आखिर कैलाश ने निर्णय क्‍या किया होगा। जब हम तय करेंगे तो उसमें हमारा सोच भी होगा ही। कहानी की सफलता इसमें ही है।

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  3. अच्छी लगी आपकी कहानी ।

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  4. नासिरा शर्मा जी को आखर कलश पर पढ़कर सुखद अनुभूति हुई। उनकी प्रस्तुत कहानी हमेशा की तरह मानवीय संवेदनाओं का अच्छा चित्रण कर रही है.....बधाई।

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  5. apnee kalatmak kathatmakata ke liye Nasiraa jee jaanee jaatee hain, is kahaanee men bhee unakaa kathaakaar usee sahajata se vyakt huaa hai. badhaai

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  6. बहुत अच्छी लगी यह कहानी ! एक ज्वलंत समस्या का सरल- सहज समाधान देती हुई |
    सादर
    इला

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