नाम- कैलाश चंद चौहान,
पिता का नाम- स्व.श्री इतवारी लाल
जन्म स्थान- दिल्ली
पता- 12/224,एम.सी.डी. फ्लैट, सैक्टर-20, रोहिणी, दिल्ली-110086
kailashchandchauhan@yahoo.co.in
मैं
निर्जीव कागज नहीं
जो चाहा लिखा
जैसे चाहा
इस्तेमाल किया
कागज की अपनी
अभिव्यक्ति नहीं
सब तुम्हारी भाषा बोलता है

अंकित न हुआ
फाड़ कर फैंक दिया
मैं निर्जीव कागज नहीं
मैं जीती जागती आज की
नारी हूं
मेरी भी अपनी
अभिव्यक्ति है
जिसे मैं पंख देना
चाहती हूं
मैं निर्जीव कागज नहीं.....
मैं भी एक इंसान हूं
जिसमें लहु गर्म
दौड़ता है
गलत बातों से जिसके
मस्तिष्क की नसें
फटने को होतीं हैं
और कुछ सोचने
और करने को
मजबूर करती हैं
मैं निर्जीव कागज नहीं.......
मैं भी एक जीता जागता
चलता फिरता जीव हूं
मैं दुनिया को
तुम्हारे नेत्रों से क्यों देखू
जब प्रकृति ने मुझे भी
नेत्र दिये हैं
जिनसे देखने का
मेरे पास
अलग
नजरिया भी है
मैं निर्जीव कागज नहीं.....
मेरी अपनी बुद्धि है
जिसमें लहु दौड़
लगाता है
मैं तुम्हारी भाषा क्यों बोलूं
तुम्हारे ही विचारों को
सही क्यों ठहराऊ?
जब मैं निर्जीव कागज ही नहीं।
-
-कैलाश चंद चौहान
बेहतरीन कविता................
ReplyDeleteकैलाश जी ने अच्छी बातें कहने की कोशिश की हैं. बिना कविता हुए भी अच्छी बातें हो सकती हैं पर इनमें कवित्व की शक्ति है.
ReplyDeleteअच्छी कविता है
ReplyDeleteसोच और भाव सुंदर हैं। पर कविता बहुत कमजोर। कविता शुरू होती है जैसे वे अपनी बात कह रहे हैं,बीच में नारी भी आ जाती है। फिर लगता है वे अपनी बात करने लगे हैं।
ReplyDeleteऔर मेरे हिसाब से कागज को निर्जीव नहीं कहना चाहिए। यह बात भी मैं कविता में ही कह रहा हूं। कागज कोरा हो सकता है,पर निर्जीव नहीं।
bahut sundar
ReplyDeletewaah
sundar abhivyakti