नाम- महेंद्र वर्मा
जन्म- 30 जून १९५५, छत्तीसगढ़ के दुर्ग ज़िले के गांव बेरा में।
शैक्षणिक योग्यता- बी.एस-सी.,एम.ए.,दर्शनशास्त्र
सम्प्रति- वरिष्ठ व्याख्याता जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान बेमेतरा,जिला दुर्ग छत्तीसगढ़
रचनाएं- आलेख, निबंध, गजलें, बाल कविताएं, रेडियो वार्ता आदि के रूप में पत्र-पत्रिकाओं और रेडियो से प्रसारित-प्रकाशित
विशेष- छत्तीसगढ़ की विद्यालयीन पाठ्य पुस्तक में एक गीत सम्मिलित
प्रकाशन- प्रकाशित कविता संग्रह ‘‘निनाद‘‘ का संपादन, विगत 25 वर्षों से वार्षिक पत्रिका शिक्षक दिवस का सम्पादन
रफ़्ता-रफ़्ता वक्त बिखरता होगा शायद।
कुछ लोगों के ख़्वाब सुनहरे से होते हैं,
उनके छत पर चांद ठहरता होगा शायद।
आंगन के कोने में देखो फूल खिले हैं,
कोई बचपन वहीं ठुमकता होगा शायद।
एक सितारा बुझा-बुझा सा रोज भटकता,
मेरी हालत से वाबस्ता होगा शायद।
बूंदें क्यूं टपका करतीं सावन में टप-टप,
किसी हीर का दर्द पिघलता होगा शायद।
दुनिया में कितने हैं जो मेरे अपने हैं,
हर कोई यह बात सोचता होगा शायद ।
एक सितारा बुझा-बुझा सा रोज भटकता,
ReplyDeleteमेरी हालत से वाबस्ता होगा शायद।
वाह क्या बात है...
बहुत अच्छी शायरी पेश की है, मुबारकबाद.
कुछ लोगों के ख़्वाब सुनहरे से होते हैं,
ReplyDeleteउनके छत पर चांद ठहरता होगा शायद।
एक-एक शे’र लाजवाब!
उम्दा ग़ज़ल।
बारीक नज़र ने अन्दर-बाहर देखा सब कुछ,
ReplyDeleteअनछुए भावों को छूना होगा शायद.
बहुत अच्छी ग़ज़ल।
ReplyDeleteहिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।
स्वच्छंदतावाद और काव्य प्रयोजन , राजभाषा हिन्दी पर, पधारें
कुछ लोगों के ख़्वाब सुनहरे से होते हैं,
ReplyDeleteउनके छत पर चांद ठहरता होगा शायद।
khyaal bahut pasand aaye ..Shukriya Narendra ji