आस्वाद : राजवी फ़किरी का राजकवि - पंकज त्रिवेदी


राज लखतरवी

(पृथ्वीराजसिंह मदनसिंह झाला)

गुजरात के छोटे से राज्य "लखतर स्टेट" के रोयल परिवार के वंशज |

जन्म - 30 , जनवरी, 1958 लखतर स्टेट, लखतर,

जिला- सुरेंद्रनगर, गुजरात राज्य

लेखन - पिछले ढाई दसक से सिर्फ गुजराती ग़ज़ल |

प्रकाशन - गुजराती भाषा के सभी मान्यगान्य सामयिकों में प्रकाशित |

कृति - लाजवाब (ग़ज़ल संग्रह)

संप्रति - कृषिकार |

संपर्क -

राज लखतरवी

दरबारगढ़,

लखतर, जिला - सुरेंद्रनगर - गुजरात

मो. - 09825647322

आस्वाद राजवी फ़किरी का राजकवि - राज लखतरवी पंकज त्रिवेदी

राख चोळी जे मसाणी थई गया (शिव की तरह भस्म लगाकर जो त्यागी हो गया)

एमना जीवन उजाणी थई गया (उनका जीवन उत्सव बन गया)

एक ऐवी तो हकीक़त कै बनी (एक ऐसी तो हकीक़त बन गई)

लाख शमणां धूळधाणी थई गया (लाख सपने धुल में मिल गएं)

जोईने सौंदर्य मारी प्यासनुं (देखकर सौन्दर्य मेरी प्यास का)

झंझावा पण पाणी पाणी थई गया (मृगजल भी पानी पानी हो गएं)

किंमती बे चार रत्नों यादना (किंमती दो चार रत्न यादों के)

जिंदगीभरनी कमाणी थई गया (जिंदगीभर की कमाई हो गएं)

जे कदी दिवसे महेकी ना शक्या (जो कभी दिन में महक न पाएं)

फूल ऐ सौ रातराणी थई गया (फूल वह सब रातरानी हो गएं)

अवसरो हमणां गयेला प्रेमना (अवसर अभी गुज़रे प्रेम के)

जोतजोतामां कहाणी थई गया (देखते ही देखते कहानी हो गएं)

'राज' मारा शब्दने बस बोलावा ('राज' मेरे शब्द को बस बोलने)

केटलांये मौन वाणी थई गया (कितने मौन वाणी बन गएं)

राज लखतरवी की ग़ज़ल "राख चोळी जे मसाणी थई गया" के बारे में कुछ भी कहने से पहले उनके व्यक्तित्त्व को निखारने वाला एक शेर पढ़िए ;

मने मापवो एटलो छे सरळ क्यां? (मुजे नांपना ईतना है सरल कहाँ?)

गगनथीय सीमा वधारी शकुं छुं | (गगन से भी सीमा बढ़ा सकता हूँ)

'राज' अपने अलग अंदाज़ और मिजाज़ का इंसान है | वह इंसान सिर्फ ग़ज़ल नहीं लिखता, ग़ज़ल जीता है और ग़ज़ल को ज़िंदा भी रखता है | ग़ज़ल की समज उन्हें गुजराती के जानेमाए ग़ज़ल सम्राट स्व. कविश्री अमृत "घायल" से मानो विरासत में मिली है | परंपरा में लिखने की ख़ुमारी के बारे में उनके मुख से सुनें तो उस ग़ज़ल सम्राट की स्मृति अपनेआप होगी | राज की खुद की मस्ती है, ख़ुमारी है और उसी में एक अलग नशा है, राजवी घराने का | राज को मिले तो उनकी बातों में से ही हमें विशिष्ट संस्कार का ओजस दिखेगा | सामान्य रूप से वह सभी के लिएं आसान नहीं | राज श्रीफल (नारियल) जैसे है | उसके बाह्यावरण को तोड़ना आएं तो हमें नखशिख गज़लकार मिलेगा | जिसके पास प्रेम..प्रेम...प्रेम... के सिवा कुछ भी नहीं | पीड़ा तो खुद उनकी ही है, वह दोस्तों के बीच भी कहाँ बाँटते हैं ?

'राज' के पास मुशायरे की लाजवाब बयानात है | उसकी पेशकश सुनने के बाद लगे की "घायल" परंपरा का यह इंसान सच्चे अर्थ में ग़ज़लों का खिलाड़ी है | यही कारण से उन्हें नांपना आसान नहीं | उसकी सीमाओं को भी कुछेक साक्षात्कार से नहीं जान सकते |

'राज' की इस ग़ज़ल की शुरुआत गेरुएँ रंग की है | जिस इंसानने जीवन के कईं रंगों में से गेरुएँ रंग को ही पसंद किया हो, वोही मसाणी (मसाण-स्मशान में रहने वाला भभूति) बन सकता है | जीव जब शिव की आराधना करने के पश्चात मंत्र के साथ तंत्रविद्या को आत्मसात करें तब गेरुआ रंग घेरा बनता है | समाज के बीच रहकर स्थूल अर्थ में जीवन जीने वाला इंसान जब आध्यात्मिकता के रंग में रंग जाता है, तब ही वह मसाणी यानी गेरुएँ रंग का सन्यासी बन जाता है | यह घटना ही शिवभक्ति की परंपरा का उत्सव बनता है | एक बार मसाणी-बड़े साधक बनने के बाद ही उसका जीवन उत्सव बन जाता है | 'राज' की खंडित बहार की ईस ग़ज़ल में आध्यात्मिकता की उत्कृष्टता सिद्ध होती दिखती है | उसमें ही कवि की जीवनी अपनेआप प्रकट होती है |

इंसान के रूप में सीधासादा जीवन जीने के बावजूद भी आध्यात्मिकता की ऊंचाई प्राप्त करनेवाले कवि की आतंरिक चेतना जागृत होती है | फिर भी इंसानियत की मर्यादाएं उतनी ही प्रभावक साबित होती है |

आम आदमी की सभी मर्यादाएं गज़लकार ने खुली कर दी है | जो संसारी बनता है वह सपने में से भी आशा को ढूँढता है | ऐसे सपने जब अपेक्षा बनता है तब इंसान लाचार बन जाता है | वह सपना पूर्ण न हो तब दु:ख का कारण बन जाता है | यही जिजीविषा इंसान की है, साधक की तो नहीं ! ईस तरह सामान्य इंसान में से साधक की स्थिति में प्रवेश करने वाले की स्थिति शुरू में असमंजस और दयनीय बनती है | ईसी असमंजस के बीच भी वह मसाणी-साधक अटल निर्धार से फिर सतर्क हो जाता है |

स्व. अमृत "घायल" के मानस पुत्र- राज लखतरवी अपनी स्मृति को टटोलकर लिखतें है;

किंमती बे चार रत्नों यादना

जिन्दगीभरनी कमाणी थई गया

(उसकी स्मृति के दो चार प्रसंग ही जीवनभर की पूंजी बन गया)

इंसान में बैठे कवित्व का अवधूत हमें किसी क्षण साधक लगता है तो उसी क्षण विरक्त भी | मगर उसके भीतर रही चेतना उसे सत्वशील बनाती है तब वह फूलों की तरह महकने लगता है |

ईस तरह कवि के साथ भावक की मन:स्थिति भी "भाव-साधना" के स्तर तक अपनेआप पहुँच जाती है | जीवन के कईं अवसरों के बीच प्रेम का सामर्थ्य हम कहाँ कहाँ अनुभव नहीं करते? प्रेम की यही अनुभूति हमारे निजत्व के द्वारा अनुपम संवेदना को प्रज्वलित करती है |

ईस तरह स्थूल से सत्त्व की ओर की गति में पूर्वार्ध जैसे कोई पुराणी कहानी बन गया है और जीव से शिव की ओर गति का नया मार्ग खुल रहा है | अब अवसरों की वासनाओं में से उपासना की उर्ध्व गति का मार्ग खुला है | गज़लकार राज ने अंतिम शेर में परम की पराकाष्ठा को हमारी सामान्य अपेक्षा से विपरीत आश्चर्य का भी सर्जन किया है;

'राज' मारा शब्दने बस बोलावा

केटलांये मौन वाणी थई गया

(राज मेरे शब्द को बोलने के लिएं न जाने कितने मौन भी वाणी बन गएं)

ज्ञान प्राप्ति के बाद मौन की स्थूल कल्पना से विपरीत कवि कहतें है की - "मौन वाणी थई गया" उसी शब्दों के द्वारा कवि पहले वाक्पटुता में से एक नया ही अर्थ निकालतें है | जीवनभर अनर्थ वाले शब्दों को पीछे छोड़कर अस्खलित वाणी प्रकट हो रही है, उसी का महात्म्य हूबहू पेश किया है | यहाँ केवल कवित्व नहीं, आराधन की असीम संभावनाओं का भी प्रकटीकरण हो रहा है | वाणी से परावाणी की उत्कृष्टता को उजागर करने में कवि की विशिष्ट छवि उभरती है | अगम-निगम की अविचल स्थिति की गति गज़लकार को किसी आकार में बाँध नहीं सकती, यही बात उनकी सफलता का रहस्य सिद्ध करती है | ग़ज़ल सिर्फ प्रेमालाप ही नहीं, उससे भी कुछ अलग है, विशेष है, यही ईस ग़ज़ल की फलश्रुति है |

गोकुलपार्क सोसायटी, 80 फूट रोड, सुरेंद्रनगर-363 002 गुजरात

Email : pankajtrivedi102@gmail.com

Mobile : 096625-14007

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One Response to आस्वाद : राजवी फ़किरी का राजकवि - पंकज त्रिवेदी

  1. मुझे आपकी गुजराती रचना पढ़ने में काफी गीतियुक्त लगी.
    આનંદ આયા. હિન્દી મેં લિખને પર ધન્યવાદ. ગુજરાતી કા સ્વાદ ભી સ્વાદિષ્ટ વ્યંજન સે કામ નહીં લગા. આભાર.
    સ્વતંત્રતા કી સુભ્કામ્નાઓન કે સાથ આપકી રચનાઓ કો પહલી બાર ચખને વાલા
    પ્રતુલ

    ReplyDelete

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