हे देवी ! अनुपम रूपसि !
आनंदमयी ! अहो तापसि !
ऋचा तुम पावन वेद की,
हो काव्य सामवेद की,
हास निर्मल नीर है,
लावण्य मधुर क्षीर है,
हो पूर्वा – सी चंचला,
ज्यों पक्षियों की श्रृंखला,
सुवासित गेह - वाटिका,
स्थल – कमल तुम हर्षिका,
चितवन कोमल पाँखरी,
नव-किसलय आम्र मंजरी,
चंद्रवदन हे! मोहिनी,
सहमी – सकुची कुमोदिनी,
सुर-सप्तक हो तानसेन की,
वंशीधुन किसी रैन की,
उर था मेरा तिमिर घनेरा,
हुआ ज्योतिर्मय मंदिर मेरा,
प्रतिमा तेरी हे शर्मिष्ठा !
कर ली मैंने प्राण प्रतिष्ठा,
अब घंटनाद नित मेरे अंगना,
करते कंगन तेरे सजना,
किल्लोल तेरे हैं वंदनवार,
हैं आम्र पल्लवों उच्चार,
कुमकुम, अक्षत, श्रृंगार लाल,
सुसज्जित हो पूजन की थाल,
नयनों में हैं दीप जले,
अलकों से जब शाम ढले,
कदलीवृक्ष यह तेरी काया,
रंगरूप चंदन की छाया,
धूप, दीप, नैवैद्य समर्पित,
वक्षकलश सब तुझको अर्पित,
ले पंचभूत के पंचामृत,
यज्ञभूमि होगी निज गृह,
भक्त-ईश का न विभेद हो,
संबंध यह अविच्छेद हो,
चल! शंखनाद प्रारंभ करें,
यह प्रीत यज्ञ प्रारंभ करें,
कुंड बनेगी प्रीत हमारी,
विरह-वेदना समिधा सारी,
साकल्य आहुति मेरी होगी,
विगलित घृत में तू महकेगी,
अनुपम होगा यह अभिसार,
अस्तित्वहीन होगा संसार,
ह्रदय की मूक भाषा,
मंत्रविद्ध होगी अभिलाषा,
तप्त श्वास के स्फुलिंग,
पिघला देंगे दुर्भेद्य श्रृंग,
हो जाएँ पूर्ण आहुत काया,
द्वैत-अद्वैत की रहे न माया,
पूर्ण यथा हो यज्ञ कर्म,
हो भस्मीभूत सब मज्जा, चर्म,
जड़-चेतन का नहीं क्लेश हो,
पावन भस्म मात्र शेष हो,
भर चुटकी इसे थाल में,
भक्त लगाएँ निज भाल पे,
प्रेमाश्रु स्वयं झरने लगें,
विह्वल जन कहने जगें,
हे देवि ! अनुपम रूपसि !
आनंदमयि ! अहो तापसि!
तेरी-मेरी अँखियों की, पल-दो-पल मुलाकात चली ।
मैं जला, तू जली, दीप की बाती-सी रात जली ॥
हर नजर अब, तेरी नजर-सी, मुझे नजर क्यों आती है,
हर पहर-दोपहर सहर-सी मुझे नजर क्यों आती है,
साँसें हुईं रातरानी, लगे रात सुहागरात भली,
मैं जला, तू जली, दीप की बाती-सी रात जली ।
तू पतंग मेरी प्रीत –रीत की, पीछे-पीछे आऊँगा,
तुझे काट ले ना कोई मुझसे , मैं मंजा बन जाऊँगा,
अपने सीने में काँच घोंपकर, जिंदगी-ए-बर्बाद चली,
मैं जला, तू जली, दीप की बाती-सी रात जली ।
मुझे देखकर पाँव तेरे क्यों ज़मीं पे गड़ जाते हैं,
क्या माँगते बिछुए - महावर या हमसे शर्माते हैं,
टिकुली,नथुनी, झुमकी तो चुप हैं, पर कंगनों में ये बात चली,
मैं जला, तू जली, दीप की बाती-सी रात जली ।
दिल जलाकर के लिखते हैं, हम घने अँधियारों में,
आज भी मौजूद है ईमां, हम जैसे फनकारों में,
मैंने चाहा घर चाँद ले आऊँ, तारों की बारात चली,
मैं जला, तू जली, दीप की बाती-सी रात जली ।
khoobsoorat Sunil ji...
ReplyDeleteshukriyaa saanjha karne ke liye!
दिल जलाकर के लिखते हैं, हम घने अँधियारों में,
ReplyDeleteआज भी मौजूद है ईमां, हम जैसे फनकारों में,
मैंने चाहा घर चाँद ले आऊँ, तारों की बारात चली,
मैं जला, तू जली, दीप की बाती-सी रात जली ।
अच्छी रचना है .....!!
अमित जी आप तो उस शब्द संसार में ले गये जिसे पढ़ने का सौभाग्य शायद 80 के दशक तक के विद्यार्थियों को ही मिला होगा। अब तो ये शब्द बहुत कम रचनाओं में देखने को मिलते हैं।
ReplyDeleteबच्च्न जी को याद करें:
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली, एक अंगुली से लिखा था प्यार तुमने; क्या रचनायें होती थीं।
सभी कवितायें बेहद अच्छी हैं. साथ में छायावादी युग के शब्द और बिम्ब की झलक भी मिली... बहुत बहुत बधाई !
ReplyDeleteसुन्दर कवितायें । अर्थपूर्ण शब्द-विन्य़ास आकर्षणीय है ।
ReplyDeleteबहुत धन्यबाद ।
मन मोहक शब्द तरंग.
ReplyDeleteमुझे देखकर पाँव तेरे क्यों ज़मीं पे गड़ जाते हैं,
ReplyDeleteक्या माँगते बिछुए - महावर या हमसे शर्माते हैं,
टिकुली,नथुनी, झुमकी तो चुप हैं, पर कंगनों में ये बात चली
बेहद खुबसूरत कविताएँ...
regards
अमित जी अन्यथा न लें। आपकी पहली कविता प्रेयसी की आरती लगी। निश्चित ही अगर आप किसी रूपसी को यह कविता सुनाएंगे तो बात पूरी होने से ही पहले ही भाग खड़ी होगी। पर आरती तो आप अकेले में भी गाते रह सकते हैं। इस बात में कोई शक नहीं है आपने बहुत धैर्य के साथ इसकी रचना की है। बधाई। दूसरी रचना उतनी ही सरल है,पर यहां लगता है आपने उतना श्रम नहीं किया जितना पहली कविता के लिए किया है। गीत में कहीं कहीं अटकाव आता है। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteshandar rachnayen.
ReplyDeleteheartiest congratulations...ati sundar..
ReplyDeletewith love..
kabhi sansarik,kabhi aadhyatmik,achhi rachana hai.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचनाएं पढ़ने को मिली हैं.
ReplyDeleteलेखक को बधाई.
दिल जलाकर के लिखते हैं, हम घने अँधियारों में,
ReplyDeleteआज भी मौजूद है ईमां, हम जैसे फनकारों में,
मैंने चाहा घर चाँद ले आऊँ, तारों की बारात चली,
मैं जला, तू जली, दीप की बाती-सी रात जली ।
-अद्भुत!! बहुत सुन्दर रचना!
मन से लिखी गयी रचना तो रूह से निकलती है। बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteदोनों रचनायें एक से बढ़ कर एक हैं ! अति सुन्दर ! बधाई एवं शुभकामनाएं !
ReplyDeleteअपने सीने में काँच घोंपकर, जिंदगी-ए-बर्बाद चली,......... इस कडी को पूरी कविता मे ्पड्कर ऎसा लगा कि (शायद मेरी नजर मे) ये अन्य कडियो से अलग थलग है, आपकी राय क्या है
ReplyDeleteहे देवी ! अनुपम रूपसि ........मन मोहक बहुत ही अच्छी रचना है
अमित जी ,मैं आप को पहली कविता के लिए बधाई नहीं दूंगा.लेकिन दूसरी कविता 'दीप की बाटी सी रात जली'के लिए अवश्य बधाई दूंगा .यह कविता गहरी अभिव्यंजनाओं से भरपूर है .लिखते रहिये हार्दिक शुभ कामनाएं.
ReplyDeleteसुन्दर शब्दों की बेहतरीन शैली
ReplyDeleteभावाव्यक्ति का अनूठा अन्दाज
बेहतरीन एवं प्रशंसनीय प्रस्तुति
हिन्दी को ऐसे ही सृजन की उम्मीद
धन्यवाद....साधुवाद..साधुवाद
satguru-satykikhoj.blogspot.com