डा. सुभाष राय की कविताएँ

रचनाकार परिचय

जन्म एक जनवरी 1957 को  उत्तर प्रदेश में स्थित मऊ नाथ भंजन जनपद के गांव बड़ागांव में। शिक्षा काशी, प्रयाग और आगरा में।  आगरा विश्वविद्यालय के ख्यातिप्राप्त संस्थान के. एम. आई. से हिंदी साहित्य और भाषा में स्रातकोत्तर की उपाधि। उत्तर भारत के प्रख्यात संत कवि दादू दयाल की कविताओं के मर्म पर शोध के लिए डाक्टरेट की उपाधि। कविता, कहानी, व्यंग्य और आलोचना में निरंतर सक्रियता। देश की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं, वर्तमान साहित्य, अभिनव कदम,अभिनव प्रसंगवश, लोकगंगा, आजकल, मधुमती, समन्वय, वसुधा, शोध-दिशा में रचनाओं का प्रकाशन। ई-पत्रिका अनुभूति, रचनाकार, कृत्या  और सृजनगाथा में कविताएं। कविता कोश, काव्यालय, गर्भनाल और महावीर में भी कवितयें। अंजोरिया वेब पत्रिका पर भोजपुरी में रचनाएं। फिलहाल पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय। आवास-158, एमआईजी, शास्त्रीपुरम, आगरा ( उत्तर प्रदेश)|
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1. मुझमें तुम रचो
----------------------

सूरज उगे, न उगे
चांद गगन में
उतरे, न उतरे
तारे खेलें, न खेलें

मैं रहूंगा सदा-सर्वदा
चमकता निरभ्र
निष्कलुष आकाश में
सबको रास्ता देता हुआ
आवाज देता हुआ
समय देता हुआ
साहस देता हुआ

चाहे धरती ही
क्यों न सो जाय
अंतरिक्ष क्यों न
जंभाई लेने लगे
सागर क्यों न
खामोश हो जाय

मेरी पलकें नहीं
गिरेंगी कभी
जागता रहूंगा मैं
पूरे समय में
समय के परे भी

जो प्यासे हों
पी सकते हैं मुझे
अथाह, अनंत
जलराशि हूं मैं
घटूंगा नहीं
चुकूंगा नहीं

जिनकी सांसें
उखड़ रही हों
टूट रही हों
जिनके प्राण
थम रहे हों
वे भर लें मुझे
अपनी नस-नस में
सींच लें मुझसे
अपना डूबता हृदय
मैं महाप्राण हूं
जीवन से भरपूर
हर जगह भरा हुआ

जो मर रहे हों
ठंडे पड़ रहे हों
डूब रहे हों
समय विषधर के
मारक दंश से आहत
वे जला लें मुझे
अपने भीतर
लपट की तरह
मैं लावा हूं
गर्म दहकता हुआ
मुझे धारण करने वाले
मरते नहीं कभी
ठंडे नहीं होते कभी

जिनकी बाहें
बहुत छोटी हैं
अपने अलावा किसी को
स्पर्श नहीं कर पातीं
जो अंधे हो चुके हैं लोभ में
जिनकी दृष्टि
जीवन का कोई बिम्ब
धारण नहीं कर पाती
वे बेहोशी से बाहर निकलें
संपूर्ण देश-काल में
समाया मैं बाहें
फैलाये खड़ा हूं
उन्हें उठा लेने के लिए
अपनी गोद में

मैं मिट्टी हूं
पृथ्वी हूं मैं
हर रंग, हर गंध
हर स्वाद है मुझमें
हर क्षण जीवन उगता
मिटता है मुझमें
जो चाहो रच लो
जीवन, करुणा
कर्म या कल्याण

मैंने तुम्हें रचा
आओ, अब तुम
मुझमें कुछ नया रचो

2. समय
-------------

फूल के खिलने

और मुरझाने की

संधि पर


खड़ा रहता है

समय

पूरी तरह

खिला हुआ

एक फूल

मुरझाता है

और समय

दूसरी संधि पर

खिल उठता है





मौसम के दो चित्र
---------------------------
1. गुस्साया  सूरज
---------------------
सुबह का सूरज
अच्छा लगता है
लाल गुब्बारे की तरह
आसमान में उठता हुआ
अपनी मीठी रोशनी में
डुबोता पेड़ों को, फ़सलों को
झरता है खिड़की से
मेरे कमरे में
और फैल जाता है
बिस्तरे पर, फर्श पर

पर नहीं रहता वह
इसी तरह शांत और प्यारा
बहुत देर तक

धरती को नंगी  देख
तमतमा उठता है वह 
आगबबूला हो उठता है

क्यों काटे गये पेड़
क्यों रौंदे गये पहाड़
क्यों गंदी की गयीं नदियाँ
किसने सूर्य से मिले
वरदान को बदल
डाला भयानक अभिशाप में
अपने पागल स्वार्थ में

गुस्साया सूरज धरती के
पास आना चाहता है
बिलकुल पास
उसे सहलाना चाहता है
चूमना चाहता है
उसे वापस अपनी
दहकती गोंद में
उठा लेना चाहता है

जल रहा है सूरज

आदमी कब तक भागेगा
सूरज के ताप से
सूरज के क्रोध से


2. ओ बादल
---------------- 
जलते अधरों पर गिरीं बूंदें
तो छनछ्ना कर
उड़ गयीं पल भर में
इन्तजार में दहक रहा था मन
तन से उठ रहा था धुआं
नसों में बह रहा था लावा

ओ बादल तुम आए

शीतल बयार की तरह
मेरे आँगन में बरस गए
खूब भीगा मैं पहली बार
इस मौसम में
इतना भींगा कि भाप बन गया

पर अभी ठहरना कुछ दिन

कुछ और दिन रहना
मेरे आस-पास
तब तक
जब तक मैं भाप से
फिर चमकती
बूंदों में नहीं बदल जाता

***

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25 Responses to डा. सुभाष राय की कविताएँ

  1. समय,पर्यावरण और पानी से गहरा साक्षात्‍कार कराती सुभाष जी कविताएं सीधे अंतस तक जाती हैं। सबसे आकर्षित करने वाली बात यह है कि सुभाष भाई प्रथम पुरुष में बात करते हैं। जैसे कोई आंखों में आंखें डालकर आपसे कुछ कह रहा हो। उनका यह अंदाज ही सबसे निराला है।

    ReplyDelete
  2. आप की रचना 30 जुलाई, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
    http://charchamanch.blogspot.com

    आभार

    अनामिका

    ReplyDelete
  3. जिनकी बाहें
    बहुत छोटी हैं
    अपने अलावा किसी को
    स्पर्श नहीं कर पातीं
    जो अंधे हो चुके हैं लोभ में
    जिनकी दृष्टि
    जीवन का कोई बिम्ब
    धारण नहीं कर पाती
    वे बेहोशी से बाहर निकलें
    संपूर्ण देश-काल में
    समाया मैं बाहें
    फैलाये खड़ा हूं
    उन्हें उठा लेने के लिए
    अपनी गोद में
    bahut hi achhi rachna.......yun sabhi achhi hain

    ReplyDelete
  4. अभी कुछ समय से मेरी नज़रें डॉ.सुभाष राय की कविताओं को जैसे ढूंढ़ती रहती हैं ,
    मुक्तछंद की कविताओं ने मुझे पहले कभी ऐसे प्रभावित नहीं किया था ।
    यह सुभाष जी की लेखनी का ही कमाल है ।
    यहां प्रस्तुत रचनाओं पर टीका टिप्पणी करने की अपेक्षा मैं इनमें डूब कर आस्वादन कर रहा हूं , आखर कलश के प्रति आभार के भाव के साथ ।
    समस्या यह है , कि एक पंक्ति भी बिना कोट किए छोड़ना मुश्किल है ।
    सुभाष जी , बहुत बहुत बधाई !
    आभार !!
    मंगलकामनाएं !!!

    - राजेन्द्र स्वर्णकार
    शस्वरं

    ReplyDelete
  5. डॉ, सुभाष राय की प्रस्तुत कवितायें एक साथ ही मन में कई भावों को उकेरने में सफल होती हैं -अध्यात्मिकता ,कवि सत्यों का उदघाटन ,प्राकृतिक बिम्बों के माध्यम से मानवीय अनुभूतियों का तादात्म्य कराने का उद्यम आदि ...
    आभार !

    ReplyDelete
  6. जिनकी बाहें
    बहुत छोटी हैं
    अपने अलावा किसी को
    स्पर्श नहीं कर पातीं
    जो अंधे हो चुके हैं लोभ में
    जिनकी दृष्टि
    जीवन का कोई बिम्ब
    धारण नहीं कर पाती
    वे बेहोशी से बाहर निकलें
    संपूर्ण देश-काल में
    समाया मैं बाहें
    फैलाये खड़ा हूं....
    ..बहुत ही सार्थक और सामयिक मर्मस्पर्शी रचना !

    ReplyDelete
  7. फूल के खिलने

    और मुरझाने की

    संधि पर

    खड़ा रहता है

    समय

    पूरी तरह

    खिला हुआ

    एक फूल

    मुरझाता है

    और समय

    दूसरी संधि पर

    खिल उठता है

    bahut khoob .....!!

    ReplyDelete
  8. SUBAASH JEE , WAAH ! AAPKEE KAVITAAON NE MUN
    MEIN AANAND KE RANG BIKHER DIYE HAIN.SAHAJ AUR
    SUNDAR BHAVABHIVYAKTI KE LIYE DHERON HEE SHUBH
    KAMNAAYEN AAPKO.

    ReplyDelete
  9. जीवन के अन्यान्य रंगो से सजी ये कविताएँ मन को छू लेनेमें सक्षम हैं।
    इस प्रस्तुति के लिए बधाई।
    --------
    लखनऊ में पाँच दिवसीय ब्लॉगिंग कार्यशाला।

    ReplyDelete
  10. 1. रचने का सच
    रचना का सच
    सच और सिर्फ सच
    सुभाष जी की सच्‍चाई है
    जो इंसानियत की रोशनाई है।


    2. फूल सदा खिला रहता है
    मन की तरह
    मन है न
    नमन मन को।


    3. रोजाना झुलस रहा है
    पर सोचता है पक रहा है
    इतना पकना ठीक नहीं
    जल्‍दी ही थकेगा
    कब यह क्रोध रूकेगा।

    4. भाप को नहीं बनने देंगे बूंद
    इस‍के लिए काटेंगे रोज ही
    ऐसी फसल जमीन पर
    जो इंसानियत को
    कर देगी ढेर।

    मेरी विवशता है कि मैं प्रतिक्रिया में क्रिया की प्रक्रिया में जूझने लगता हूं।

    ReplyDelete
  11. डॉक्टर सुभाष राय की कवितायेँ भरी उमस में बरसात की अनुभूति जैसी हैं. मेरी ओर से रचनाकार एवं प्रस्तुतकर्ता दोनों को हार्दिक साधुवाद.
    मदन मोहन 'अरविन्द'

    ReplyDelete
  12. डा. सुभाष राय जी को इन सुन्दर और सारगर्भित कविताओं के लिए साधुवाद, क्योंकि ये कविताएँ मौजूदा समय से साक्षात्कार कराती मानव-मन की भावनाओं को प्रतिबिंबित कर रही हैं ...साथ ही मानव अनुभूतियों को तादात्म्य कराती हुई , पुन: बधाईयाँ !

    ReplyDelete
  13. सामयिक सत्यों का बोध कराती बेहद प्रभावी कविताएँ हैं डॉ सुभाष राय की....
    आखर कलश का आभार...

    ReplyDelete
  14. राय साहब आपकी चारो कविताये मन को झकझोरती भी और रास्ते चलते अगर थक रहे है तों उन्हें खड़े हो जाने और चल पड़ने का सन्देश भी देती है .आपकी लेखनी का जादू लोगो के सर चढ़ कर बोलेगा ऐसा मेरा विश्वाश है ,यात्रा इसी तरह आगे बढाती रहे ऐसी शुभकामना .

    ReplyDelete
  15. आप के सभी कवितायें जीवन के पहलुओं से गुज़रती हुई मन में बसर कर गयी.

    ReplyDelete
  16. आपकी रचनाएं पढ़ कर मन गदगद हो गया।
    अति प्रभावकारी अभिव्यक्ति ! सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी

    ReplyDelete
  17. चाहे धरती ही
    क्यों न सो जाय ...............
    मैं मिट्टी हूं
    पृथ्वी हूं मैं
    हर रंग, हर गंध
    हर स्वाद है मुझमें .............

    @ कविता में कमाल का प्रवाह है. पर यही प्रवाह एक जगह खुद को लपेटे ले रहा है. एक तरफ 'मिट्टी/ पृथ्वी' अपने मार्गदर्शक, प्रहरी, प्याऊ, ऊर्जाकेंद्र, जीवनरक्षक अलाव वाले चरित्र से लाभ लेने को खुला आमंत्रण देती है. इसके लिए वे अन्य समर्थ शक्तियों के कर्तव्यविमुख हो जाने को चिंता करने का कारण नहीं मानती. दूसरी तरफ खुद के पर्याय रूप 'धरती' के सो जाने [अकर्तव्य] की बात भी कह जाती है.
    बिम्ब प्रतीक बेहतरीन हैं. कविता प्रवाह अपने अंतिम मुहाने पर धरती के बिम्ब को अपने में खींचे ले जा रहा है.

    समय :
    जीवन-मृत्यु, को एक शानदार दार्शनिक सांचे में ढालती कविता.

    गुस्साया सूरज :
    मानव द्वारा हो रहा प्रकृति का चीर-हरण सूरज के क्रोध का कारण है. या वह भी पृथ्वी की नग्नता देख उत्तेजित भाव से उसके पास आने को उतावला हो रहा है.

    ओ बादल :
    पर अभी ठहरना कुछ दिन
    कुछ और दिन रहना
    मेरे आस-पास
    तब तक
    जब तक मैं भाप से
    फिर चमकती
    बूंदों में नहीं बदल जाता.
    यही ख्वाहिश होनी भी चाहिए. ज्ञान की शीतलता यदि अज्ञान, अभाव, अन्याय से तप्त हुए मन पर पड़े तो वह भाप होगी ही. भाप से चमकती बूँद बनने का सफ़र सृष्टि है, सृजन है, कला है, रचना है, और सुखद अनुभूति है.

    ReplyDelete
  18. अपने समय की संवेदनाओं को छूकर जैसे वेदनाओं को अभिव्यक्ति दी हो .,सुभाष रॉय जी की कवितायेँ जिस तरह का सशक्त मानवीय करण कर सकी हैं .अद्भुत है उनकी कलात्मक क्षमताजिसके लिए के लिए हार्दिक बधाई.

    ReplyDelete
  19. rchnaon ka kthy v shilp dono sundr hain

    dr. ved vyathit

    ReplyDelete
  20. priy mitro, aap sabne meree kavitaon par apnee ray dekar mere prati n keval sneh pradarshit kiyaa hai balki mujhe apnee rachanaon ko anek pahluon se samajhane kee drishti bhee dee hai. aap sabake prati bahut-bahut aabhar.

    ReplyDelete
  21. जो भी जीवन की जंग लड़ते-लड़ते थक गये हैं। रूक जाने या पीछे लौट जाने पर विवश हैं, उनके लिए सुभाष जी की कविताएं अमृत से कम नहीं हैं। पहली रचना कहीं से भी यह आभास नहीं देती है कि जरा रूक कर सुस्ता लिया जाय। ‘मुझमें तुम रचो‘ इसी प्रकृति की रचना है। अपनी बुनावट में बेहद कसी। इधर-उधर सोचने के लिए अवकाश ही नहीं। गुस्सायो सूरज में सूरज की गर्मी का जो कारण दिया है वह तो अद्भुत है और नसीहत भी। चारों कविताएं लाजवाब हैं

    ReplyDelete
  22. सशक्त अभिव्यक्ति ऒर एक साफ,सही ऒर उम्मीद को जगाती दृष्टि से सम्पन्न कविताओं पर बधाई लें ।

    ReplyDelete
  23. सभी रचनाएँ बहुत पसंद आईं और खास कर मौसम के दो चित्र...बहुत उम्दा!!

    ReplyDelete
  24. डॉ० सुभाष राय की रचनाओं में एक अद्भुत छटपटाहट, अकुलाहट और ख़ुद कुछ कर गुजरने की ही नहीं दूसरों से भी वही सब करवाने की एक अजीब तड़प साफ़ दिखाई देती है। यही तड़प, यही अकुलाहट, यही बिलबिलाहट उनके भीतर छुपे क्रांतिकारी को एक सशक्त रचनाकार बनाती है। कविताओं में उनकी भाषा का तीव्र प्रवाह इस बात का द्योतन करता है कि कवि रुकना नहीं चाहता ; न जीवन जीने की गतिशीलता में, न कविता रचते समय विचारों की तीव्रता में। युग-निर्माण का अधिक से अधिक काम कम से कम समय में पूरा करने की ख़ातिर वह प्रकृति के सर्वाधिक सत्ताधारी अवयवों से भी अधिक शक्तिशाली होने का प्रतीकात्मक दावा करने से भी पीछे नहीं हटता।
    सूरज उगे, न उगे/चाँद गगन में/उतरे न उतरे/तारे खेलें,न खेलें/
    चाहे धरती ही/ क्यों न सो जाए/अन्तरिक्ष क्यों न जम्भाई लेने लगे/मेरी पलकें नहीं रुकेंगी
    कविता पड़ते समय एक बारगी तो लगा जैसे महाभारत में कृष्ण अर्जुन से बतिया रहे हों। पर कविता का अंत
    मैंने तुम्हें रचा /आओ, अब तुम/ मुझमें कुछ नया रचो
    स्पष्ट कर देता है कि कवि पूरी तरह ज़मीन पर खड़े होकर ज़मीन के आदमी से ही बात कर रहा है। दूसरी कविता सतत परिवर्तनशीलता (या पुनर्जन्म?) को बड़े ही कलात्मक ढंग से पेश करती है। तीसरी और चौथी कवितायेँ सिद्ध करतीं हैं कि कवि सिर्फ आग लगाना ही नहीं जानता ज़रुरत पड़ने पर बादलों से पानी भी बरसवा सकता है। कुल मिलाकर एक सशक्त रचनाकार की चार दमदार रचनाएं। मेरी हार्दिक बधाई।

    ReplyDelete
  25. पर अभी ठहरना कुछ दिन
    कुछ और दिन रहना
    मेरे आस-पास
    तब तक
    जब तक मैं भाप से
    फिर चमकती
    बूंदों में नहीं बदल जाता

    mousam ke do room ek gussay suraj aur ek badal ....


    sachet kar dene wali baat..

    जल रहा है सूरज
    आदमी कब तक भागेगा
    सूरज के ताप से
    सूरज के क्रोध से

    mujhmein tum racho .... sabhi kavitayen bahut pasand aayi

    Aakhar kalash ko dhanyvaad itni adbhut kavitayen padhwane ke liye

    ReplyDelete

आपकी अमूल्य टिप्पणियों के लिए कोटिशः धन्यवाद और आभार !
कृपया गौर फरमाइयेगा- स्पैम, (वायरस, ट्रोज़न और रद्दी साइटों इत्यादि की कड़ियों युक्त) टिप्पणियों की समस्या के कारण टिप्पणियों का मॉडरेशन ना चाहते हुवे भी लागू है, अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ पर प्रकट व प्रदर्शित होने में कुछ समय लग सकता है. कृपया अपना सहयोग बनाए रखें. धन्यवाद !
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