कैलाश चंद चौहान की दो लघुकथाएँ


रचनाकार परिचय
नाम: कैलाश चंद चौहान
जन्म: 01-01-1973

सृजन: सामयिक सामाजिक विषयों पर लघुकथा, कहानी, बाल कहानी, लेख विधाओं में लेखन कुछ व्यंग्य भी लिखें हैं."एक गांव की दाई", "सफर की बात" कहानियां जिसने भी पढ़ी पसन्द की, तारीफ की, कई प्रतिष्ठित अखबारों, पत्रिकाओं ने छापी भी.
प्रकाशन: जनसत्ता, दै0 राष्ट्रीय सहारा, नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान, दै0 अमर उजाला, दै0 पंजाब केसरी, दै० राजस्थान पत्रिका, दै0 नई दुनिया, नवभारत, संघर्ष, सरिता, मुक्ता, गुहशोभा, चंपक आदि 3 दर्जन से भी अधिक पत्र-पत्रिकाओं में 2002 तक 500 से भी अधिक रचनाएं छप चुकीं थी. कुछ पत्र-पत्रिकाओं ने तो कुछ रचनाएं प्रमुखता से छापींकुछ दलित, महिलाओं पर भी रचनाएं लिखीं. एक गांव की दाई, भैंस, रात की रानी, सफर की बात आदि कहानी पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका, नवज्योति, रांची एक्सप्रेस आदि में प्रकाशित हुई और पाठकों को पसन्द भी आई.
प्रकाश्य: शीघ्र ही एक कहानी संग्रह भी प्रकाशित होने वाला है
सम्पादन: आशा एक्सप्रेस मासिक का संपादन
सम्प्रति: सामाजिक सरोकार एवं विकास समिति(रजि0) के अध्यक्ष, गरीब बच्चों के लिए 20.रूपये मासिक शुल्क में रोज 2 घंटे का एक शिक्षा केंद्र चलाते हैं, जिसके आप संचालक हैं जहां 125 के करीब बच्चे हैं.
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प्रेम 

‘‘आज तो तुम पकडे गये दीपू भैया!’’ अंजु चहकते हुए बोली।
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘तुम्हें क्यों बताऊँ!’’
‘‘क्या बात है अंजु? दीपक को क्यों तंग रही है?’’
‘‘मम्मी, दीपू ने एक लडकी पसन्द की है, बडी खूबसूरत है। आज मैंने पिकनिक हट में इन दोनों को देखा था।’’ क्या नाम है भैया उसका? जरा बताना तो मम्मी को.........’’
‘‘अंजू.......!’’ दीपक झेंपा।
‘‘क्यों उसे बोलने से रोक रहा है, अच्छा तू ही बता वह कहां रहती है? हम उसके मां-बाप से उसकी शादी तेरे साथ करने की बात करेंगे।’’
‘‘सच मम्मी?’’ दीपक को जैसे विश्वास न हुआ।
‘‘हाँ बेट।’’
‘‘तुम कितनी अच्छी हो मम्मी!’’
कुछ दिन बीते.
‘‘लो, सम्हालो अपनी लाडली बेटी को मम्मी।’’
‘‘क्यों, क्या हुआ? क्यों लाया है तू इसे मारते हुए?’’ दीपक की मां ने अंजू को उठाते हुए पूछा।
‘‘पूछो अपनी लाडली बेटी से। प्रेम करने लगी है। अपने प्रेमी से पार्क में बतिया रही थी।’’
दीपक की मम्मी ने अंजू की चुटिया खींचते हुए दो-तीन चांटे उसके गाल पर मारे और कहा, ‘‘क्या कहा तूने! ऐ री कलमुंही! तू ऐसे ही अपने मां-बाप का नाम रोशन करेगी? अगर कोई देख देता तो लोग क्या कहते। तू हमारी नाक ही  कटवाकर रहेगी?’’
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नारी 
नीरज के भैया अपनी ससुराल से पत्नी को लेकर आए थे। उनके साथ दो बच्चे भी थे, एक लडकी करीब ४ महीने की थी.एक लडका दो साल का था।
नीरज की मां ने उस छोटी बच्ची को प्यार से गोदी में लिया और प्यार से दुलारते हुए बोली, ‘‘अरी, तूने पहचाना मुझे! तेरी दादी हूं, पहचान ल!. घूर-घूर कर क्या अजनबियों की तरह देख रही है।“ लडकी उसे टिमटिमाती आँखों से देखे जा रही थी।
दादी आगे बोली ‘‘मुझे तो तुझ पर मिसमिसी आ रही है। अरी तू मर क्यों नहीं गई! तू मर जा, पीछा छूटे तुझसे. बेकार में इतना खर्चा कराएगी’’।
नीरज ने फौरन अपनी बहन से भतीजे को लिया और दुलारते हुए बोला ‘‘अरे, तू ठीक ठाक है! मैंने तो सोचा था तू मर गया।’’
‘‘नीरज...........’’ माँ चीखी, ‘‘ऐसे बोलते हैं. तुझे शर्म भी नहीं आती इस तरह बोलते हुए। तू अब नादान ही रह गया है।’’
‘‘लेकिन मम्मी, मैं तो प्यार से कह रहा था।’’
‘‘भाड में जाए तेरा प्यार। खबरदार! जो इस तरह के आगे से इस तरह के अपशब्द मुंह से निकाले।’’ मां ने कहते हुए नीरज की गोद में से लडके को छीन लिया।
‘‘लेकिन मम्मी, इसमें बुरा क्या है! आप भी तो माही से बोल रही थीं।’’
‘‘वो लडकी है, यह लडका है। समझा!’’ माँ बोली। 
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कैलाश चंद चौहान,
रोहिणी, दिल्ली-११००८६
ईमल आई डीः kailashchandchauhan@yahoo.co.in 

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13 Responses to कैलाश चंद चौहान की दो लघुकथाएँ

  1. दोनों ही कहानियाँ बेहतरीन हैं.. पर मेरा सोचना है कि अगर दूसरी कहानी में अंत में पञ्च लाइन
    ''मम्मी पर आप भी तो लड़की.......''
    रखते तो और भी ज्यादा प्रभावी होती.. बधाई..

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  2. असमानता के मकड़जाल पर सशक्त प्रहार है |
    सुधा भार्गव

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  3. अच्छी लघुकथाएँ...बेटा बेटी के प्रति अलग अलग मानसिकता को दर्शाति!

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  4. दोनों ही लघुकथाएं बेहतरीन हैं ... हिन्दू समाज की विसंगतियों पर कड़ा प्रहार है ... ये सच है की आज औरत ही औरत का दुश्मन बन बैठी है ....
    इतने मर्मस्पर्शी कहानियों से रूबरू करने के लिए शुक्रिया !

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  5. भई वाह...दोनों लघु-कथाएँ सशक्त हैं..बधाई

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  6. Kailash ji, dono kahanion ke liye sadhuwaad sweekar karein..sach dikhana bhi zaroori hai..bhale kitna bhi kaduwa kyun na ho..!!
    Saadar

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  7. इस दोहरी मानसिकता से समाज कब आज़ाद होगा? ये प्रश्न आज भी उतना ही ह्रदय को आंदोलित करता है।दोनो ही कहानियाँ आज की सोच पर करारा प्रहार हैं।

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  8. चौहान जी,
    वाकई इन लघु कथाओं द्वारा आपने जो समाज को आयना दिखाया है काबिल-ए-तारीफ है। यह आज का कड़्वा सत्य है। इन कथाओं ने दिल की टीस को हवा दे दी। बहुत अच्छे! बहुत खूब!!

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  9. DOHREE MANSIKTA PAR ACHCHHEE LAGHU KATHAAYON
    KE LIYE LEKHAK KO BADHAAEE.

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  10. दोनों ही लघु कथाएं अच्छी है और समाज कि विसंगतियों को दर्शाती हैं

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  11. apani dohri mansikata ke dwaara jo sanskaar hum nav pedi ko de rahe hai unka spasht chitran hai aapki kahaniyo mai .......aabhar sweekar kare

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  12. कैलाश भाई, आपकी "नारी" लघुकथा पढी, सच में बहुत ही सुंदर रचना लिखी है आपने जो हमारी दोमुंही मानसिकता के जम कर बखिये उधेड़ती नजर आती है ! इस सशक्त रचना के लिए आप बधाई के पात्र हैं ! लेकिन इसको थोडा और चुस्त और स्मार्ट बनाया जा सकता है ! कहानी में नीरज का आपने भतीजे को कहना "अरे तू ठीक ठाक है ! मैंने तो सोचा तू मार गया !" बड़ा अटपटा सा लग रहा है ! मैं ये नहीं कह रहा कि कोई ऐसा नहीं कह सकता - बिलकुल कह सकता है ! लेकिन यहाँ बात कहानी कला की है, अत: इसकी जगा अगर नीरज सिर्फ इतना ही कह देता कि "अरे तू तो बड़ा मोटा हो गया है या "अरे तू तो फूल कर कुप्पा हो गया है मोटे !" तब भी माँ की प्रतिक्रिया उतनी ही तीखी होती !

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  13. कैलाश जी आपकी दोनो लघुकथाएं अच्छी हैं। पितृसत्तात्मक समाज का आईना हैं। साथ ही योगराज प्रभाकर के सुझाव से भी सहमत हूं। आखर कलश अच्छा मंच है पर इस पर सामग्री लोड कैसे करते हैं यह बताएं तो अच्छा रहेगा।
    एक बात और मैंने सुना है सरिता में आपकी काफी रचनाएं छपी थीं। मैं भी उन्हें पढना चाहता हूं। क्या वे फेश बुक या किसी और माध्यम से मुझे पढने को मिल सकती हैं?-राज वाल्मीकि

    ReplyDelete

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