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डॉ. वर्तिका नन्दा |
रचनाकार परिचय
वर्तिका नन्दा एक मीडिया यात्री हैं। मीडिया अध्यापन, मीडिया प्रयोग और प्रशिक्षण इनके पसंदीदा क्षेत्र हैं। इस समय वर्तिका दिल्ली विश्व विद्यालय की स्थाई सदस्य हैं। इससे पहले वे 2003 में इंडियन इंस्टीट्यूट आफॅ मास कम्यूनिकेशन, नई दिल्ली में बतौर एसोसिएट प्रोफेसर( टेलीविजन पत्रकारिता) चयनित हुईं और यहां तीन साल तक अध्यापन किया। इन्होंने पीएचडी बलात्कार और प्रिंट मीडिया की रिपोर्टिंग को लेकर किए गए अपने शोध पर हासिल की है।
इन्होंने अपनी मीडिया प्रयोग की शुरूआत 10 साल की उम्र से की और जालंधर दूरदर्शन की सबसे कम उम्र की एंकर बनीं। लेकिन टेलीविजन के साथ पूर्णकालिक जुड़ाव 1994 से हुआ। इन्होंने अपने करियर की शुरूआत जी टीवी से की, फिर करीब 7 साल तक एनडीटीवी से जुड़ी रहीं और वहां अपराध बीट की हेड बनीं। तीन साल तक भारतीय जनसंचार संस्थान में अध्यापन करने के बाद ये लोकसभा टीवी के साथ बतौर एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर जुड़ गईं। चैनल के गठन में इनकी एक निर्णायक भूमिका रही। यहां पर वे प्रशासनिक और प्रोडक्शन की जिम्मेदारियों के अलावा संसद से सड़क तक जैसे कई महत्वपूर्ण कार्यक्रमों को एंकर भी करती रहीं। |
इसके बाद वर्तिका सहारा इंडिया मीडिया में बतौर प्रोग्रामिंग हेड नियुक्त हुईं और सहारा के तमाम न्यूज चैनलों की प्रोग्रामिंग की जिम्मेदारी निभाती रहीं। इस दौरान इन्हें प्रिंट मीडिया के साथ भी सक्रिय तौर से जुड़ने का मौका मिला और वे मासिक पत्रिका सब लोग के साथ संयुक्त संपादक के तौर पर भी जुड़ीं। इस समय वे त्रैमासिक मीडिया पत्रिका कम्यूनिकेशन टुडे के साथ एसोसिएट एडिटर के रूप में सक्रिय हैं। प्रशिक्षक के तौर पर इन्होंने 2004 में लाल बहादुर शास्त्री अकादमी में प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के लिए पहली बार मीडिया ट्रेनिंग का आयोजन किया। इसी साल भारतीय जनसंचार संस्थान, ढेंकानाल में वरिष्ठ रेल अधिकारियों के लिए आपात स्थितियों में मीडिया हैंडलिंग पर एक विशेष ट्रेनिंग आयोजित की। इसके अलावा टीवी के स्ट्रिंगरों और नए पत्रकारो के लिए दिल्ली, जयपुर, भोपाल, रांची, नैनीताल और पटना में कई वर्कशॉप आयोजित कीं। आईआईएमसी, जामिया, एशियन स्कूल ऑफ जर्नलिज्म वगैरह में पत्रकारिता में दाखिला लेने के इच्छुक छात्रों के लिए आयोजित इनकी वर्कशॉप काफी लोकप्रिय हो रही हैं। |
2007 में इनकी किताब लिखी- 'टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता' को भारतेंदु हरिश्चंद्र अवार्ड मिला। यह पुरस्कार पत्रकारिता में हिंदी लेखन के लिए भारत का सूचना और प्रसारण मंत्रालय देता है। इसके अलावा 2007 में ही वर्तिका को सुधा पत्रकारिता सम्मान भी दिया गया। चर्चित किताब - 'मेकिंग न्यूज' (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित ) में भी वर्तिका ने अपराध पर ही एक अध्याय लिखा है।
2009 में वर्तिका और उदय सहाय की किताब मीडिया और जन संवाद प्रकाशित हुई। इसे सामयिक प्रकाशन ने छापा है। यह वर्तिका की तीसरी किताब है। 1989 में वर्तिका की पहली किताब (कविता संग्रह) मधुर दस्तक का प्रकाशन हुआ था।
बतौर मीडिया यात्री इन्हें 2007 में जर्मनी और 2008 में बैल्जियम जाने का भी अवसर मिला। 2008 में इन्होंने कॉमनवैल्थ ब्रॉडकास्ट एसोसिएशन के चेंज मैनेजमेंट कोर्स को भी पूरा किया।
इन दिनों वे मीडिया पर ही दो किताबों पर काम कर रही हैं। हिंदुस्तान, जनसत्ता, प्रभात खबर आदि में मीडिया पर कॉलम लिखने के अलावा ये कविताएं भी आम तौर पर मीडिया पर ही लिखना पसंद करती हैं।
वर्तिका की रूचि मीडिया ट्रेनिंग में रही है। वे उन सब के लिए मीडिया वर्कशाप्स आयोजित करती रही हैं जो मीडिया को करीब से जानना-समझना चाहते हैं।
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वो बत्ती, वो रातें
बचपन में
बत्ती चले जाने में भी
गजब का सुख था
हम चारपाई पे बैठे तारे गिनते
एक कोने से उस कोने तक
जहां तक फैल जाती नजर
हर बार गिनती गड़बड़ा जाती
हर बार विशवास गहरा जाता
अगली बार होगी सही गिनती
बत्ती का न होना
सपनों के लहलहा उठने का समय होता
सपने उछल-मचल आते
बड़े होंगे तो जाने क्या-क्या न करेंगें
बत्ती के गुल होते ही
जुगनू बनाने लगते अपना घेरा
उनकी सरगम सुख भर देती
पापा कहते भर लो जुगनू हथेली में
अम्मा हंस के पूछती
कौन-सी पढ़ी नई कविता
पास से आती घास की खुशबू में
कभी पूस की रात का ख्याल आता
कभी गौरा का
तभी बत्ती आ जाती
उसका आना भी उत्सव बनता
अम्मा कहती
होती है जिंदगी भी ऐसी ही
कभी रौशन, कभी अंधेरी
सच में बत्ती का जाना
खुले आसमान में देता था जो संवाद
उसे वो रातें ही समझ सकती हैं
जब होती थी बत्ती गुल।
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मंगलसूत्र
पति को याद नहीं होता
पत्नी का जन्मदिन
उसकी पसंद
कोई नापसंद
उसके खाने का समय
उसकी खुशियां
उसके मायके का रास्ता
या यह भी कि शायद कोई रहता भी है
उस घर में
पति को नहीं रहता अहसास यह भी
कि पत्नी को क्यों याद रहता है
उसकी बनियान सूखी या नहीं
सब्जी उसके स्वाद की बनी या नहीं
जरूरत तो नहीं कहीं
उसके सर को मालिश की
कहीं थक तो नहीं गया वो बेचारा बहुत ज्यादा
पत्नी को सब याद रहता है
पति के बॉस का बर्थडे और
उनके कुत्तों के नाम
उसकी बहनों के पते और
उन्हें पड़ने वाले काम
पर पति की याद्दाश्त होती है
कमजोर ही
आखिर वो पति जो है *******
वर्तिका नन्दा
nandavartika@gmail.com
दोनों रचनाएँ बहुत ही अच्छी हैं
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति है,बधाई हो।
ReplyDeleteसुंदर कविताएं ,सफल अभिव्यक्ति
ReplyDeleteउसकी खुशियां
उसके मायके का रास्ता
या यह भी कि शायद कोई रहता भी है
उस घर में
बहुत बढ़िया
अम्मा कहती
होती है जिंदगी भी ऐसी ही
कभी रौशन, कभी अंधेरी
ज़िंदगी की हक़ीक़त
दोनों रचनाओं ने अलग प्रकार के सुख की सृष्टि की.
ReplyDeleteहर बार गिनती गड़बड़ा जाती
हर बार विशवास गहरा जाता
एकदम ऐसा ही होता था मेरे साथ भी.और-
उसकी खुशियां
उसके मायके का रास्ता
या यह भी कि शायद कोई रहता भी है
उस घर में
बहुत कम पति ही ऐसे होते हैं, जिन्हें पत्नी की खुशियों की परवाह होती है. बहुत सुन्दर कविताएं. बधाई.
क्योँ भाई सम्पादकगणराज
ReplyDeleteक्योँ हो नाराज?
आपकी
हर पोस्ट पर
करता हूं टिप्पणी
जैसे की है आज !
इतनी रात गए भी
खोल कर बैठा हूं आखर कलश
आपका दिल
नहीँ पसीजता
न जाने क्योँकर
डाल देते हो
टिप्पणियां
डस्टबीन मेँ
जो
घर है
मेरी कविताओँ का ?
मेरी कविताओँ को
नहीँ सुहाता
यह अतिक्रमण
बख्श दो उनको!
आज फिर
लाए हो
कई बार की तरह
अच्छी कविताएं
इस के लिए
साधुवाद !
साधुवाद भी तो
एक टिप्पणी ही है!
वर्तिका जी जो बात आपकी पहली कविता में है वह दूसरी में कहॉं खो गयी। यह सही है कि सभी कवितायें एक स्तर की नहीं हो सकतीं लेकिन दूसरी कविता कुछ ऐसी लग रही है जैसे औपचारिकता निभा दी गयी हो। पहली कविता पर विशेष बधाई।
ReplyDeletevartika ji ki kavita "wo batti,wo raten"bachpan ka talpat milati badi suhati hai."mangalsutra"hamari andhi samajik pratibadhtaon me jakdi nari man ki sarthak abhivyakti hai.dono rachnayen achi hain.
ReplyDeletebadhai ho vartika ji!
"वो बत्ती वो रातें"
ReplyDeleteसचमुच … अच्छी भावपूर्ण कविता है ।
बधाई वर्तिका नन्दा जी को !
मुझे भी अपने बचपन की कुछ बातें याद हो आई ,
अब इन्वर्टर के युग में बचपन के हिस्से में ये सुख कहां ?
" मंगलसूत्र "
पता नहीं किस कल्पनालोक की ,
किस हक़ीक़त - विशेष की कविता है !?
क्या हर पति हर पत्नी की कविता है यह ?
हां के लिए कितने प्रतिशत परिवारों की कविता मानती हैं डॉक्टर साहिबा ?
वर्तिकाजी सहित "आखर कलश" से जुड़े
सभी मित्रों को निमंत्रण है ,
कृपया शस्वरं पर पधारें !
… सुनील गज्जाणीजी को भी !
लिंक है -
http://shabdswarrang.blogspot.com
दोनों ही कविताएं गहरी अनुभूति का सुंदर नमूना हैं।
ReplyDeleteदोनो ही कविताये बहुत ही बढिया और मंगलसूत्र तो गज़ब की है।
ReplyDeleteवर्तिका जी ने पहली कविता में वाक़ई बहुत खूबसूरत भाव प्रस्तुत किये हैं.
ReplyDeleteदूसरी कविता कुछ महिलाओं की व्यथा हो सकती हैं....
एक कविता बहुत अच्छी लगी। कौनसी? यह नहीं बताऊंगा!
ReplyDeleteदोनों ही कवितायेँ अपने आप में बहुत अच्छी हैं
ReplyDeletePahli kavita jahan saral-sadharan paristhitiyon se upje darshan ka srot hai... wahin doosri kavita ek or to vyangya bhi hai pati hone par aur ek gahree chot se nikli aah bhi hai jo shayad bharat ki har doosri mahila kee takleef kah jati hai.. aabhar Vartika ji
ReplyDeleteदोनों ही कविताएं आपके अनुभव तथा अभिव्यक्ति की गहराई को बयां करती हैं और दोनों को पढ़ते हुए जैसे कितना लंबा अंतराल तय हो जाता है! एक में बचपन का निश्छल उल्लास तो दूसरी में परिपक्व आकांक्षाओं और मासूम शिकायतों को शब्द देते हुए आप कितनी स्वाभाविकता से अपनी बात कह जाती हैं। दोनों कविताएं अपने-अपने समय और सरोकारों को जीती हैं। बधाई।
ReplyDeleteदोनों रचनाएँ रुचीं.
ReplyDeletemazaa aa gaya inki rachnaayein padh ke.
ReplyDeleteVartika,
ReplyDeletedono kavitayen achchhi lagin. padya jo gadya ka kasav liye hai aur bilkul rozmarra ki zindagi ke lamhon ko kavita mein dhal diya hai. kabhi kabhi lagta hai ki kisi peeda ka ahsas hona aur baat hai lekin us peeda ko sarvjanin peeda ki unchai pradaan karne ki salahiyat se laish hona ekdam doosri cheez hai. Allah aisi taqat se aapko hamesha labrez rakhe. CP
उसके मायके का रास्ता
ReplyDeleteया यह भी कि शायद कोई रहता भी है
उस घर में
बहुत कम पति ही ऐसे होते हैं, जिन्हें पत्नी की खुशियों की परवाह होती है. बहुत सुन्दर कविताएं. बधाई.
आप की पहली कविता की सहजता ने बंधा और मैं भी याद करने लगा अपने बचपन के दिन जब बिजली जाने के बाद हम शहर के कुछ खास तरह के लोगों कि गिनती करते. संयोग देखिये जैसे ही सात कि संख्या पूरी हो जाती, बिजली आ जाती. हमें लगता ये टोटका है. इसलिए मैं इस कविता कि गहरे में जाये बगैर सतह पर ही रहना चाहता हूँ. दूसरी कविता मुझे खास नहीं लगी. दूसरे शब्दों मैं इसे आपने स्त्री होने के नाते लिखा है, कवयित्री या पत्रकार कि झलक नहीं मिलती. नमस्कार...
ReplyDeleteहरीश बी. शर्मा
बत्ती गुल के ताने- बाने को तो बखुबी बुना है बधाई लेकिन पति की कमजोर याद्दश्त से मैं सहमत नहीं हूं
ReplyDeleteguzare palon ko jis khubsurat ahsas ke sath bayan ki ya ha lazabab
ReplyDeleteपत्नी को सब याद रहता है
ReplyDeleteपति के बॉस का बर्थडे और
उनके कुत्तों के नाम
उसकी बहनों के पते और
उन्हें पड़ने वाले काम
पर पति की याद्दाश्त होती है
कमजोर ही
आखिर वो पति जो है
=========
सच और सुंदर !
वर्तिका जी
ReplyDeleteभावपूर्ण कविता, छंद में कहने की कोशिश करें
बत्ती गुल हो जाने पर भी कितना अच्छा लगता है
आसमान पर तारे देखो जुगनू जैसे दिखते हैं
बचपन की वो मीठी यादें ख्वाबों में अब बस्ती हैं
पापा अम्मा जी का हंसना कहना जुगनू को पकडो
२
आप सभी पतियों को देखो इक जैसा मत समझो जी
पत्नी के भी दोष गिनाओ, बात तभी कुछ जमती है
वर्तिकाजी, आपकी अभिव्यक्ति हृदय में उतर गयी। अपनी बात कहने में आप सफल हैं। बधाई..!
ReplyDeleteवर्तिका जी पहली कविता सचमुच बचपन याद दिला देती है। लेकिन दूसरी कविता हमारे समाज का एक चेहरा सामने रखती है। जो महानुभाव इसे एक स्त्री की कविता कह रहे हैं,उन्हें अपने कहे पर विचार करना चाहिए। कविता स्त्री या पुरुष की नहीं होती। वह मात्र अभिव्यक्ति होती है। बधाई आपको।
ReplyDelete'वो बत्ती, वो रातें' एक अच्छी कविता है क्योंकि बुनावट और संप्रेषण दोनों द्रष्टिकोण से प्रभावित करती है. जिज्ञासु मन की कोमल भावनाओं का चित्रण सुंदरता से किया गया है जो मन को छूता है. वर्तिका को एक अच्छी कविता के लिए बधाई!
ReplyDeleteजब होती थी बत्ती गुल .....कविता बेहद भावपूर्ण और संवेदना से भरी हुई है...मंगलसूत्र में भी स्थितियों की बहुत सूक्ष्म अभिव्यक्ति है....पत्नी को क्यों याद रहता है कि उसकी बनियान सूखी या नहीं.वर्तिका को बहुत-बहुत बधाई
ReplyDeleteachchi lagi dono kavitayen... ek emar ho gayi jugnuon ko dekhe... bachpan ki yaaden taza ho gayi..
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