(अक्षय-तुणीर) मुरलीधर वैष्णव |
‘‘ये सब आप दोनों के लिए ही तो बनाया है मैंने। जब आप दोनों दादा-दादी की तरह बूढे हो जाओगे तब इस नीम के नीचे आराम करना। और हाँ, ये टाट के टुकडे नहीं हैं, मम्मी! आप दोनों के आढने के कंबल हैं।’’
(अक्षय-तुणीर) मुरलीधर वैष्णव |
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neem aur taat adhik achhi lagi
ReplyDeleteनीम और टाट आईना बन गई समाज का.
ReplyDeleteअच्छी हैँ दोनों लघुकथाएं।पाठक पर प्रभाव छोड़ती हैँ। बधाई!
ReplyDeleteप्रभावशाली रचनाएं,धन्यवाद।
ReplyDeleteपहली कहानी में समाज की अव्यवस्था पर करारी चोट
ReplyDeleteऔर दूसरी तो.........
बहुत प्रभावशाली रचना, एक कटु सत्य ,बचपन कभी कभी परिपक्वता ऐसे ही पाठ पढ़ाता है,अब ये हम पर निर्भर हैं कि हम कितना समझ पाते हैं
सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ बहुत बढ़िया लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! उम्दा प्रस्तुती! बधाई!
ReplyDeleteमुरलीधर जी की दोनों लघु कथाएँ अच्छी हैं.`भागीदारी` जहाँ भ्रष्टाचार की हदों की उघारती है वहीँ दूसरी कहानी समय और समाज की विद्रूपता पर क़रारा व्यंग्य है.मैं इन्हें पहले भी पढ़ता रहा हूँ.
ReplyDeleteपहली कथा तो एक सुदृढ़ व्यवस्था का उदाहरण जहॉं यह कह सकते हैं कि भिखारी और टीटीई मात्र प्रतीक हैं ऐसे ही कई अन्य चेहरों के।
ReplyDeleteदूसरी कथा लगभग सभी घरों में सुनाई जाती है एक आशंकित भविष्य को सुनिश्चित करने के लिये और एक सीख देने का प्रयास भले ही है लेकिन शायद ही आजतक किसी ने ऐसी कथा से सीख ली हो।
"भागीदारी" लघु कथा में रेलवे व्यवस्था का सजीव चित्रण किया है.... बधाई.
ReplyDeleteदोनों ही लघुकथाएं समाज और व्यवस्था पर करारा तमाचा हैं और औरों की तरह मैं भी यही कहूँगा कि दूसरी वाली कहीं ज्यादा बेहतर लगी लेकिन नए विषय का अभाव दिखा,.. ठीक यही आजकल मेरी बेचैनी है कि नए विषय खोजने में लगा हुआ हूँ ऐसे जिन पर लोगों ने या तो लिखा ही ना हो या बहुत कम लिखा हो..
ReplyDeleteक्या आपसे ऐसी आशा करुँ तो बेमानी होगी?
bahut marmik kathayen.sandesh prasarit karti hui.sunder.
ReplyDeleteदीपकजी ,बधाई है I
ReplyDeleteबाल मनोविज्ञान से सम्बंधित लघुकथा प्रशंसनीय है I
सुधा भार्गव
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