शामतें:
१)अदृश्य परदे के पीछे से
दर्ज कराती जाती हूँ मै
अपनी शामतें
जो आती रहती हैं बारहा
अक्सर उन शामतों की शक्लें होती हैं
अंतिरंजित मिठास से सनी
इन शक्लों की शुरूआत
अक्सर कवित्वपूर्ण होती है
और अभिभूत हो जाती हूँ मै
कि अभी भी करूणा,स्नेह,वात्सल्य से
खाली नहीं हुयी है दुनिया
खाली नहीं हुयी है वह
सो हुलसकर गले मिलती हूँ मै
पर मिलते ही बोध होता है
कि गले पडना चाहती हैं वे शक्ले
कि यही रिवाज है परंपरा है
कि जिसने मेरे शौर्य और साहस को
सलाम भेजा था
वह कॉपीराइट चाहता है
अपनी सहृदयता का , न्यायप्रियता का
उस उल्लास का
जिससे मुझे हुलसाया था
और ठमक जाती हूँ मै
सोचती हुयी
मेरे निगाहों की निर्दोषिता
काफी नहीं जीने के लिए
सोच ही रही होती हूँ कि
फैसला आ जाता है परमपिताओं का
और चीख उठती हूँ -
हे परमपुरूषों बख्शों.....,अब मुझे बख्शों।
२)जीवन
अभी चलेगा
धूल-धुएं के गुबार...
और भीडभरी सडक..
के शोर-शराबे के बीच/
जब चार हथेलियां
मिलीं/
और दो जोड़ी आंखें
चमकीं
तो पेड़ के पीछे से
छुपकर झांकता/
सोलहवीं का चांद
अवाक रह गया/
और तारों की टिमटिमाती रौशनियां
फुसफुसायीं
कि सारी जद्दोजहद के बीच
जीवन
अभी चलेगा !
सार्वजनिक तौर पर
कम ही मिलते हम
भाषा के एक छोर पर
बहुत कम बोलते हुए
अक्सर
बगलें झाँकते
भाषा के तंतुओं से
एक दूसरे को टटोलते
दूरी का व्यवहार दिखाते
एक-दूसरे को और
पा जाते संपूर्ण
हमारे उसके बीच समय
एक समुद्र-सा होता
असंभव दूरियों के
स्वप्निल क्षणों में जिसे
उड़ते बादलों से
पार कर जाते हम
धीरे धीरे
अलविदा कहते हुए
4)आखिर क्यों है यह प्यार
उथल पुथल मचा दे कोई भी अनजाना
आलिंगन
बंधक बनाते एक दूसरे को
हंसते या रोते हुए
और खुद को मारते हुए
मैंने तब ये जाना
आत्मा तक पैसरने का द्वार है यह भी
साख है यूं ही
पर हृदय का द्वार
खुलता है हथेली से
मैंने तब ये जाना
स्नेह के अंकुर
मानस पटल पर
झरते कैसे पुष्प पारिजात के
और खुशबू पसरती है
किस तरह निज व्योम में
मैंने तब ये जाना
संधि कहां है
किस तरह मनुहार करती हैं
परस्पर अंगुलियां
थमता है कहां पे जाकर
ज्वार अपने स्नेह का
हाथ में लेकर तुम्हारा हाथ
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- अरुणा राय
बेहतर कविताएं...
ReplyDeleteअरुणा राय जी की कवितायेँ विशेष रूप से --जीवन तथा -यह प्यार बहुत अच्छी कवितायेँ हैं बधाई.
ReplyDeleteअच्छी कवितायें।
ReplyDeleteSABAD SAMNJSAY BAHU HI SUNDER W SARTHAK. BADHAI.
ReplyDeleteनमस्कार अरुणा जी
ReplyDeleteबेहद अच्छा सामंजस्य किया है प्रेम और आत्मा का और सांसारिकता और वैदिकता का
बिलकुल सही है जो ह्रदय का द्वार हथेली है तभी तो विवाह का महत्वपूर्ण अंग है पाणिग्रहण संस्कार
एक अन्य रचना में प्रेम के प्रति आपका जो नजरिया है वो ठीक मेरी सोच से मिलता है शानदार और प्रेम मयी प्रस्तुति
प्रेम बांधता है दिलो को वो भी सारी सीमाओं को तोड़कर ऐसा बंधन मन मोहन है
भगवन करे आप जैसी सोच सबकी हो