हम न आएंगे दुबारा - दिनेश ठाकुर

अपनी शायरी से अमन, प्रेम, सौहार्द्र, और भाईचारे का पैगाम फैलाने वाले मशहूर शायर मखमूर सईदी का २ मार्च २०१० को इंतकाल हो गया। उनको भावभीनी श्रद्धाँजलि अर्पित करते हुए राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित श्री दिनेश ठाकुर का सम्पादकीय...
"रहें ना रहें हम, महका करेंगे,
बनके कली, बनके सबां बागेवफा में........"
 



 
हम आएंगे दुबारा

 

       
       मख्मूर सईदी नहीं रहे। वह मख्मूर सईदी, जिनकी जिंदगी का सफर 31 दिसम्बर, 1934 को टोंक (राजस्थान) से शुरू हुआ और जो अपनी आला-अलहदा शायरी से पूरी दुनिया में खुशबू की तरह छा गए। वह मख्मूर सईदी, जो उस दौर के शायर, विचारक और आलोचक थे, जिस दौर को उर्दू साहित्य का प्रवर्तक दौर माना जाता है। वह मख्मूर सईदी, जिन्होंने सिर्फ साधना के लिए कलम थाम रखी थी, पेशा या ओहदा पाने के मकसद से नहीं। वह मख्मूर सईदी, जो कई साल पहले टोंक छोडकर 'दिल्ली वाले' हो गए थे, जिन्हें साहित्य अकादमी समेत जाने कितने इनामात से नवाजा गया, जिनके नामभर से मुशायरों की गरिमा बढ जाती थी और जिन्होंने देश के छोटे-बडे कई शहरों में ही सफर नहीं किया, बल्कि जिन्हें विदेश से भी मुसलसल बुलावे आते थे। शायद सफर के इस लंबे सिलसिले को लेकर ही उन्होंने कहा था- 'मैं किसी दूर के सफर में हूं/ राह देखे न मेरा घर मेरी/ फिर उसी धूप में सफर मेरा/ फिर वही राह बेशजर मेरी।' लेकिन नियति का खेल देखिए कि दुनियाभर में घूमने के बाद जनाब मख्मूर सईदी की जिंदगी का सफर थमा, तो अपनी जन्मभूमि टोंक के एकदम किनारे पर आकर। होली के दूसरे दिन दो मार्च को जयपुर में उन्होंने आखिरी सांस ली।

उनके रचना-संसार की सबसे बडी खूबी यह है कि उन्होंने कभी अपनी कलम को किसी वाद से नहीं जोडा। इंसानियत, धर्म निरपेक्षता और तरक्की की उम्मीदों के इर्द-गिर्द ही उन्होंने व्यापकता की तलाश की। वह संवेदनशील जन-मानस और मजबूत लोकतंत्र के हिमायती थे। सत्तर के दशक में अपने शायर दोस्त कुमार पाशी (अब मरहूम) के साथ उन्होंने इमरजेंसी की पुरजोर मुखालफत की थी। वह नवाबी खानदान से ताल्लुक रखते थे, लेकिन सर्वहारा का दर्द उनकी शायरी में साफ महसूस किया जा सकता है। लेखन में वह किसी तरह की प्रतिबद्धता के कायल नहीं थे। वह यह बात अकसर दोहराया करते थे कि किसी का पैरोकार होने की बजाय शायर को खालिस शायरी करनी चाहिए, जिसमें अवाम को अपनापन महसूस हो। जब उनके नहीं रहने की खबर मिली, तो कई मुशायरे आंखों में घूम गए, जिनमें मख्मूर साहब को अपना कलाम सुनाते हुए, दिल से रूह तक हलचल मचाते हुए महसूस किया था। खासकर जब वह लहराते हुए अपने ये शेर सुनाते कि 'न रस्ता न कोई सफर है यहां/ मगर सबकी किस्मत सफर है यहां/ हवाओं की उंगली पकडकर चलो/ वसीला यही मोतबर है यहां', तो शिद्दत से महसूस होता था कि हमें वाकई हवाओं की उंगली थाम लेनी चाहिए।

जब सारे वसीले (माध्यम) नाकारा साबित हो चुके हों, तब हवाओं से बढकर मोतबर (भरोसेमंद) और हो भी क्या सकता है वह हवा, जो हर दौर की नुमाइंदगी करती है, जो हमारी सांस है, जो हमारे इर्द-गिर्द जाने कैसी-कैसी खुशबू बिखेर जाती है और जो हमें जाने कहां से कहां बहा ले जाती है। अगर आप मख्मूर साहब के शायरी के संकलन 'गुफ्तनी', सियाह बर सफेद, आवाज का जिस्म, सबरंग, वाहिद मुतकल्लम, बांस के जंगलों से गुजरती हवा, आते-जाते लम्हों की सदा, 'पेड गिरता हुआ' और 'दीवारो-दर के दरमियां' पर गौर करें, तो पता चलेगा कि रिवायती जमीन पर भी कोई जदीद (आधुनिक), पुख्ता और असरदार शीराजा (क्रम) किस तरह तामीर किया जाता है। मख्मूर सईदी के बाद रचना-कर्म का यह जादू राजस्थान के दूसरे मशहूर शायर शीन काफ निजाम की शायरी में ही देखने को मिलता है। मख्मूर साहब के इंतकाल पर शोक जताते हुए शीन काफ निजाम फोन पर बता रहे थे कि रिवायती और जदीद रंगों को मिलाकर मख्मूर सईदी ने अपनी जो खास शैली विकसित की, वह पढने और सुनने वालों पर गहराई तक असर डालती है। इस शैली में भरपूर ताजगी भी है और सादगी भी। मिसाल के तौर पर ये शेर देखिए- 'भीड में है मगर अकेला है/ उसका कद दूसरों से ऊंचा है/ अपने-अपने दुखों की दुनिया में/ मैं भी तन्हा हूं, वो भी तन्हा है।' यानी रिवायती और जदीद शायरी के बीच किसी मुकम्मल पुल की तरह खडी नजर आती है मखमूर सईदी की अदबी दुनिया। अपनी जमीन से मुसलसल दूर हो रही दुनिया में मख्मूर साहब की शायरी उस 'मोतबर हवा' की तरह है, जिसमें इंसानियत तथा हिन्दुस्तान के माहौल की सच्ची, असरदार और ईमानदार खुशबू है।

मख्मूर सईदी को पढने के साथ-साथ दूसरों को सुनने में सुकून मिलता था। उनकी शख्सीयत उनकी शायरी की तरह ही सहज थी, कहीं कोई नाटकीयता नहीं, शोहरत की जरा-सी भी अकड नहीं (वरना साहित्य में थोडे-सा नाम ही कइयों की चाल और चेहरा बदल देता है)। हां, मुशायरों के दौरान जरूर कलाम पेश करने की शैली में वह अद्भुत नाटकीयता झलकाते थे, जो सुनने वालों को अपनी गिरफ्त में लेती थी, कभी उन्हें सुला देती थी, कभी जगा देती थी, गुदगुदा देती थी, हंसा देती थी और कभी-कभी रूला जाती थी। जब वह कहते थे कि 'तूने फिर हमको पुकारा सरफिरी पागल हवा/ हम न आएंगे दुबारा सरफिरी पागल हवा', तो लगता था कि अपने साथ हुई वक्त की ज्यादतियों को सीना ठोककर अंगूठा दिखा रहे हों।

ज्यादातर लोग मख्मूर सईदी को शायर के तौर पर ही जानते होंगे, लेकिन आलोचना और सम्पादन के मैदान में भी उनकी कलम चली तथा खूब चली। काफी समय तक उन्होंने साहित्यिक पत्र 'तहरीक' का सम्पादन किया। उनके सम्पादन में आईं 'शीराजा', किस्सा-ए-कदीमो-जदीद, 'साहिर लुधियानवी : एक मुताअला' और 'बिस्मिल सईदी शख्सो-शायर' जैसी किताबें भी खासी चर्चित रहीं। सरस और चुस्त भाषा में लिखे ऎसे कई लेख हैं, जो उनके गहरे चिंतन और दर्शन को उजागर करते हैं।  दरअसल, वह लफ्जों के घडिया थे। उनके पारखी और जडिया थे। उनकी शायरी में नए-नए और अप्रचलित लफ्जों को आप ऎसी-ऎसी जगहों पर जडा हुआ पाएंगे कि लगेगा, यह लफ्ज यहां कितना सटीक और सही है। मसलन ये दो शेर- 'अना के हाथ में तलवार किसने दे दी थी/ कि लोग अपनी ही परछाइयों से लडने लगे/ तेरी तलब की ये रातें, ये ख्वाब कैसे हैं/ कि रोज नींद में हम तितलियां पकडने लगे।' इतनी सरल और सरस जुबान के शायर कम ही नजर आते हैं, जो आम लफ्जों से खेले हों और खुलकर खेले हों। यही वजह है कि मख्मूर सईदी पढने और सुनने वालों के अंतरतम तक आसानी से पैठ जाते थे। वह निर्मल थे, सजल थे, दूसरों के थे और यही वजह है कि आम आदमी के बहुत-बहुत अपने थे। भले ही उन्हें ताउम्र यह शिकायत रही हो..
कहीं पे गम तो कहीं पर खुशी अधूरी है मुझे मिली है जो दुनिया बडी अधूरी है।

- दिनेश ठाकुर
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं 
( साभारः राजस्थान पत्रिका में दिनांक ४.३.१० को प्रकाशित सम्पादकीय)


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12 Responses to हम न आएंगे दुबारा - दिनेश ठाकुर

  1. मशहूर शायर मखमूर सईदी के इंतकाल की ख़बर से दुख हुआ.
    श्री दिनेश ठाकुर जी के लेख में उनकी शख़्सियत के बारे में मालूम हुआ. उनके ख़्यालों को आगे बढ़ाये जाने की ज़रूरत है.

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  2. मख्मूर साहब का यूँ चले जाना हम सभी सदमे में हैं ....निसंदेह शायरी और उर्दू अदब में उनकी जो जगह रही है..उसे पुर करना..अत्यंत मुश्किल है .

    आपने उन पर लेख देकर एक हिन्दुस्तानी अदब-नवाज़ी की है.

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  3. दिनेश ठाकुर का मखमूर सईदी पर आलेख काबिले दाद है. बहुत खूबसूरती से उनके व्यक्तित्व और कृतत्व का बयान किया है.

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  4. बहुत खूबसूरती से उनके व्यक्तित्व और कृतत्व का बयान किया है.

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  5. मरहूम मख्मूर सईदी साहब को खुदा जन्‍नत बख्‍शे, उनका कलाम जिसमें वो अपना अनुभव निचोड़ गये अपना काम करता रहेगा।

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  6. इस लाजवाब शायर को आखरी सलाम...खुदा उनकी रूह को जन्नत अता फरमाए...
    नीरज

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  7. एक नामवर और दानिशमंद शाइर को मेरा सलाम !!!!! रब से दुआ है कि वो इनकी आत्मा को जन्नत नसीब करवाए !!!!
    आमीन !
    जितेन्द्र कुमार सोनी ' प्रयास'
    www.jksoniprayas.blogspot.com
    www.mulkatimaati.blogspot.com

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  8. मरहूम मख्मूर सईदी हमारे हिन्दुस्तानी साहित्य में एक धरोहर की तरह रहेंगे.

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  9. न रस्ता न कोई सफर है यहां/ मगर सबकी किस्मत सफर है यहां/ हवाओं की उंगली पकडकर चलो/ वसीला यही मोतबर है यहां'... ye puri gazal abhi pichale hafte hi thi suni hamne, Sayeedi saab ki zubaani, DD par... kavi goshti mein... aur aaj ye padhaa... BaDe shaayar, 'fikr aur fann' dono se malaa-maal... Farsaz saab ka ek sher Sayeedi saab ke liye..." Bahaut udaas hai ek shaks tere jaane se, jo ho sake to laut aa usi ki khaatir tu"

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  10. mkhmur sahb jese aalamayar shayar hamare dor me huae ye hamari khush nasibi h

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