होली की ठिठोली













सुनील गज्जाणी की नजर से - होली

 १.
झर-झर बरसे पानी
हाथों से छुटते फव्वारों से
खुलती बन्द मुट्ठियाँ
गुलालें भरी
बनाती एक नया परिवेश
लिपे पुते आदमी
पिचरंगी सडकें
दीवारों पर
होली अपनी निशानियाँ छोडती।
२.
नौटंकी में सजे-संवरे किरदार
डांडियों की ताल पे
नाचते थिरकते पाँव
फागुनी गीत गाते
लो, होली फिर आ गई।
३.
गली-गली
चौक-मौहल्ले
भाँत-भाँत के
स्वाँग धरे
उल्टी-सीधी
हरकतें करते
खुद को होली का
पर्याय समझते
शायद, खो गया
भाईचारा
लुट गया मिनखापणो
सिर्फ होलिका की
लकडयों जैसे
धूँ-धँ कर
खिरता मिनख
नहीं कोई हश्र समझता
बिना धुएँ के
सिर्फ अब
यही होली है।
४.
लगता है
होलिका और भक्त प्रह्लाद के बीच से
निकलकर
दूर फिर कहीं
हिरण्य कश्यप् के पास
पहुंच गई
जो शायद
मानवता में
अंगारों सी सुलगती है
विचारों में उग्रवाद फैलाती है
मगर अब प्रह्लाद कौन?
अब सिर्फ लकडयाँ जलाते हैं
सब
होलिका नहीं।
५.
हर कोई आज रंगा है
उडती गुलालें
चेहरे पुते रंगों से नहीं
बल्कि अपने-अपने ही
मन में उगती
इच्छाओं
भीतर ही भीतर टूटते सपनों से
हाँ, दिखता है उनके चेहरे पे
मेरी कल कही
कडवी बात का रंग
पता नहीं मानव
’पिचरंगा’ क्यों रहता है?
होली
सिर्फ नाम लगता है
एक त्यौंहार नहीं
मनों को संवरना
मन में चुभे काँटों को निकालना
कम दिखता है
दिखता है सिर्फ
रंगों के बीच
गिरगिट सा इक रंग
- सुनील गज्जाणी
***********************************













राजेन्द्र स्वर्णकार की होली

होली ऐसी खेलिए 

रंगदें हरी वसुंधरा , केशरिया आकाश ! 
इन्द्रधनुषया मन रंगें , होंठ रंगें मृदुहास !! 
होली के दिन भूलिए भेदभाव अभिमान ! 
रामायण से मिल गले मुस्काए कुरआन !!
हिन्दू मुस्लिम सिक्ख का फर्क रहे ना आज ! 
मौसम की मनुहार की रखिएगा कुछ लाज !! 
क्या होली क्या ईद सब पर्व दें इक सन्देश ! 
हृदयों से धो दीजिए बैर अहम् विद्वेष !! 
होली ऐसी खेलिए , प्रेम का हो विस्तार ! 
मरुथल मन में बह उठे शीतल जल की धार !! 
- राजेन्द्र स्वर्णकार 
***********************************






वन्दना गुप्ता की होली की फुहार
होली हो तो ऐसी जा मे सब रंग जाये
मै भी मै ना रहू श्याम रंग होई जाऊँ


होरी के बहाने
सजनवा हमारे
नयन बाण मारे
हम लजात जात
वो हँसत जात
जिया मा हिलोर उठत जात
सा रा रा रा ........
होली का हुडदंग
जागे मन मा तरंग
सजनवा को रंग डारूं
नयन कटार मारूं
पानी में डुबाय  डारूं
मन की सब निकार डारूं
होरी के बहाने
सजना को रंग डारूं
सा रा रा रा ................

- वन्दना गुप्ता

***********************************

















दीनदयाल शर्मा की होली के रंग
होली है
रंगों का त्यौहार जब आए,
टाबर टोली के मन भाए,
काला, पीला, लाल गुलाबी,
रंग आपस में खूब रचाए.

मित्र मण्डली भर पिचकारी
कपड़े रंग से तर कर जाए,
मिलजुल खेलें जीजा साली,
गाल मले गुलाल लगाए.

भाभी देवर हंस हंस खेले
सारे दुःख क्षण में उड़ जाए,
शक्लें सबकी एकसी लगती
कौनसा सा कौन पहचान पाए,
बुरा माने इस दिन कोई,
सारे ही रंग में रच जाए,
***
नेता बनाम कुर्सी

नेताजी अब ना रहे,
ना उनके वे बोल.
गाली अब पर्याय है
नेता बना है ढोल

बगुले सी पोशाक में 
दिखने में बेदाग़,
मौका देख निकालते
जगत पसंदी राग.

इनके मलें गुलाल , चाहे 
खूब लगाएं रंग,
इनको केवल अच्छा लगता 
कुर्सी का ही संग. 
- दीनदयाल शर्मा







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15 Responses to होली की ठिठोली

  1. सुनील सा, खमा घणी सा. एक कवि रो एक कथन के उन ने पतियारो है के कविता साची बात केवेला. होळी पर इ आपरी कवितावा साच सू सेमुंधे करावन री हाफल है. इन रे सागे ही आप इन तिवार री भी फगत लीक पूरिजन पर सागीड़ो मैनो मारयो है. कविता में केई ठोड मायड भाषा रो वपराव म्हारे सरीखा हेतालुआ में ह्ररख जगावन रे सागे-सागे इन पर आ छाप लगावे के हिंदी राजस्थानी रे थम्भा पर त्तिक्योदी है. html language में केई ठोड गलतिया रेगी. सो माफ़ी चावू सा.

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  2. होली के हुरियारे कविगण, लेकर आये कुछ कवितायें,

    भाव और अनुभूति की कितनी इंद्रधनुष सी भरी छटायें
    ,
    होली के हुड़दंग में देखो, ढूँढ रहे कुछ सुनने वाले,

    जो बचने की कोशिश करता, उसको उतना और सुनायें।

    अंतिम दो पंक्तियॉं होली का मज़ाक है। असली पंक्तियॉं यूँ हैं:

    ये तो है त्‍यौहार ही ऐसा, जिससे कोई नहीं अछूता,

    जो बचने की कोशिश करता, उसको उतना रंग लगायें।

    होली की शुभकामनायें।

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  3. क्या होली क्या ईद सब पर्व दें इक सन्देश !
    हृदयों से धो दीजिए बैर अहम् विद्वेष !!
    होली ऐसी खेलिए , प्रेम का हो विस्तार !
    मरुथल मन में बह उठे शीतल जल की धार !!


    wah wah , sabhi rachnayen behatareen.

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  4. होली के इन रंग बिरंगे रंगों में नहला दिया आज आपने...सारी रचनाएँ एक से बढ़ कर एक हैं...आप और इन सबको होली की ढेरों शुभकामनाएं...
    नीरज

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  5. होली की रंगभरी शुभकामनाएँ स्वीकार करें!

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  6. आपको और आपके परिवार को होली पर्व की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें!

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  7. सुनील जी, आदाब
    आप तो बहुत गंभीर हो गये.....
    भई होली के दिन तो रंग उड़ाओ.....हा..हा...हा
    राजेन्द्र स्वर्णकार जी, वंदना गुप्ता जी और दीनदयाल शर्मा जी की रचनाएं बहुत अच्छी लगी
    सभी को होली की हार्दिक शुभकामनाएं.

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  8. बन्धुवर! सभी होरिहरों की रचनाएं पढ कर मस्ती में डूब गया। सुन्दर काव्य संयोजन के लिए बधाई स्वीकार कीजिए! इसी के साथ नेचर का फैशन शो देखिए.......डॉ० डंडा लखनवी!



    नेचर का देखो फैशन शो

    -डॉ० डंडा लखनवी

    क्या फागुन की फगुनाई है।
    हर तरफ प्रकृति बौराई है।।
    संपूर्ण में सृष्टि मादकता -
    हो रही फिरी सप्लाई है।।1

    धरती पर नूतन वर्दी है।
    ख़ामोश हो गई सर्दी है।।
    भौरों की देखो खाट खाड़ी-
    कलियों में गुण्डागर्दी है।।2

    एनीमल करते ताक -झाक।
    चल रहा वनों में कैटवाक।।
    नेचर का देखो फैशन शो-
    माडलिंग कर रहे हैं पिकाक।।3

    मनहूसी मटियामेट लगे।
    खच्चर भी अपटूडेट लगे।।
    फागुन में काला कौआ भी-
    सीनियर एडवोकेट लगे।।4

    इस जेन्टिलमेन से आप मिलो।
    एक ही टाँग पर जाता सो ।।
    पहने रहता है धवल कोट-
    ये बगुला या सी0एम0ओ0।।5

    इस ऋतु में नित चैराहों पर।
    पैंनाता सीघों को आकर।।
    उसको मत कहिए साँड आप-
    फागुन में वही पुलिस अफसर।।6

    गालों में भरे गिलौरे हैं।
    पड़ते इन पर ‘लव’ दौरे हैं।।
    देखो तो इनका उभय रूप-
    छिन में कवि, छिन में भौंरे हैं।।7

    जय हो कविता कालिंदी की।
    जय रंग-रंगीली बिंदी की।।
    मेकॅप में वाह तितलियाँ भी-
    लगतीं कवयित्री हिंदी की।8

    वो साड़ी में थी हरी - हरी।
    रसभरी रसों से भरी- भरी।।
    नैनों से डाका डाल गई-
    बंदूक दग गई धरी - धरी।।9

    ये मौसम की अंगड़ाई है।
    मक्खी तक बटरफलाई है ।।
    धोषणा कर रहे गधे भी सुनो-
    इंसान हमारा भाई है।।10

    सचलभाष-0936069753

    ReplyDelete
  9. कविता मेँ देश काल एवं परिस्थिति किसी न किसी रूप मेँ उपस्थित हो ही जाता है।जीवन अपनी गति एवं मति से चलता है लेकिन समष्टि मेँ हर पल कुछ न कुछ घटित होता रहता है जिस से कविता स्वत: प्रभावित हो जाती है। समाज की संवेदना एवं काल की व्यंजना को छोड़ कर कवि कभी आगे बढ़ ही नहीँ पाता।पायल की झनकार सुनना, रेश्मी ज़ुल्फोँ ,गोरे गालोँ- लबोँ को गुनना व्यष्टि का कर्म है।कवि के भीतर का सौँदर्ये गुण ग्राहक भी मुखरित होता है।सुख-दु;ख भी चलता रहता है और यह सब कुछ रुपाइत होता रहता है कविता मेँ।लेकिन आज रोटी, कपड़ा ,मकान, इंसानियत ,अमन औ चैन सब से बड़ा मसला है।टिप्पणियोँ मेँ दर्ज डा.डंडा लखनवी की इन सँदर्भोँ मेँ रचित बेहतरीन कविताओँ के सम्मान मेँ खड़ा होने को मन करता है। भाई राजेन्द्र स्वर्णकार, सुनील गज़ाणी, दीनदयाल शर्मा एवं वंदना जी कविताएं भी प्रभावित करती हैँ।नरेँन्द्र जी व्यास रचते कम हैँ रचने से बचते ज्यादा हैँ तभी तो अपने अंदाज ऐ बयाँ से अब तलक र-ब-रु नहीँ करवाया। हर पोस्ट के नीचे लेकिन छपा रहता है उनका नाम । उनकी अनरची रचनाओँ को सलाम ।सब को बधाई! होली की शुभकामनाएं !
    -ओमपुरोहित'कागद'

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  10. बेहतर...
    शुअभकामनाएं...

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  11. Holi par yeh kavitayen padhkar mja aa gya. Danda ji ne to kamal hi kar diya. aakharkalash aur kavion ko hardik badhaeyan.

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  12. Bahut aannand raha holi ki rangeen rachanao ka ...Aabhar!
    HOli ki hardik shubhkaamnae !!

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  13. सुनील जी होली उत्सव का आयोजन करने के लिए बधाई !
    योगेश स्वप्न जी का विशेष आभारी हूँ दोहे उद्धृत करने के लिए
    शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'', ओमपुरोहित'कागद' के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ .
    नीरज जी गोस्वामी और वन्दना जी गुप्ता की रचनाएं सराहनीय हैं ...बधाई !
    आपके आगामी आयोजन की प्रतीक्षा रहेगी ...संपर्क बनाए रखें
    राजेन्द्र स्वर्णकार

    ReplyDelete

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