मथुरा कलौनी का व्यंग्य - टोपी











अपनी एक पृथक पहचान बनाने की इच्छा सब में होती है, क्या छोटे, क्या बड़े। मूल में शायद यही कारण रहा हो जब मैं बचपन में निरामिष होकर गाँधी टोपी पहनने लगा था। वैसे सच कहूँ तो गाँधी जी और अनके आदर्शों का प्रभाव तो था ही ।

उन दिनों मेरी उस टोपी से घर में माँ-बाप बहुत परेशान हो गए थे। मेरी मित्र मंडली को एक नया खेल मिल गया था कि किस तरह मेरी टोपी उड़ाई जाय। मेरे शिक्षकगण मेरी टोपी को देख कर ऐसा मुँह बनाते थे जैसे अम्ल की खट्टी डकार आई हो।

मुझे तरह-तरह से उकसाया जाने लगा कि बेटे यह क्या टोपी पहनते हो ! इसका रिवाज नहीं है आजकल। या, बेटे देखो माँ को कितना कष्ट होता है जब घर में सामिष भोजन बनता है। तुम्हारे लिए अलग से खाना बनाना पड़ता है।

मुझे स्थिति विडंबनापूर्ण लगी थी। एक ओर तो हमें स्कूल इसलिए भेजा जाता था कि हम गाँधी नेहरु की तरह महान बनें। दूसरी ओर गाँधी जी से प्रभावित हो कर एक छोटा सा कदम उस दिशा में क्या रख दिया बस सभी रास्ते में रोड़े अटकाने लगे थे।

या तो गाँधी जी का प्रभाव मेरे ऊपर अधिक था या मैं बहुत जिद्दी था, क्यों कि न मैंने टोपी पहनना छोड़ा और न ही अपने आहार में परिवर्तन किया। मुझे ले कर मेरे माँ-बाप के चेहरे चिंतित रहने लगे थे। उनकी कानाफूसी बढ़ गई थी।

अध्यापक एक दूसरे को अर्थपूर्ण दृष्टि से देखते रहे और सहपाठीगण षड़यंत्र रचते रहे पर गाँधी टोपी मेरे सिर के ऊपर चिपकी रही।

मैं अपने गणित के अध्यापक को बहुत मानता था। एक वे ही थे जो मेरी टोपी को देख कर अपना मुँह विकृत नहीं करते थे। इन्ही अध्यापक की कक्षा में एक दिन एक लड़के ने पीछे से आकर मेरे सिर से टोपी उठाई और ब्लैकबोर्ड के पास फैंक दी। पूरी कक्षा हो हो कर हँसने लगी थी। अध्यापक ने मेरी टोपी की ओर देखा और फिर मेरी ओर देखा और मुसकुराने लगे। मेरे आश्चर्य का पारावार नहीं। मैंने कहा, 'सर, आप...'

'मैं अगर तुम्हारा सहपाठी होता तो तुम्हारी टोपी कभी की उड़ा देता।' उन्होने कहा था।

उनकी यह बात मुझे कहीं गहरे कोंच गई। मैंने टोपी त्याग दी। निरामिष से सामिष हो गया। समय ने घाव तो भर दिया है पर अभी तक सरसराता है।

बचपन की इस घटना से मुझे टोपी कॉम्प्लेक्स हो गया है। हैट हो या कैप, टोप हो या टोपी सभी प्रकार की टोपियों को देख कर मेरा दिल ललचाता है। काश मैं ये सब बेझिझक पहन पाता! इतिहास की पुस्तकों में जब मैं सभी महान सिरों को किसी ने किसी प्रकार की टोपी के अंदर पाता हूँ तो मेरे दिल में एक मुक्का लगता है।

अभी कुछ दिन पहले टोपी को लेकर मेरे साथ एक और वाकया हुआ है। जाड़ों में ठंड से मेरी नाक बंद हो जा रही थी। इलाज मुझे मालूम था, यानी सिर को ढक कर रखना। उसके लिए आवश्यकता थी एक टोपी की। तो एक दिन साहस करके ऊन की एक मंकी कैप ले ही आया। इरादा था केवल रात को पहनने का क्योंकि रात को कौन देखता है। वैसे भी सिर ढकने की अधिक आवश्यकता रात को ही होती है। पत्नी के सामने टोपी पहनने का तो खैर प्रश्न ही नहीं उठता है। जब पत्नी सो गई तो मैं आधी रात में चुपके से उठा और टोपी निकाल कर पहन ली। कितनी तृप्ति हुई मुझे। कितना आराम आया। बहुत देर तक यूँ ही बैठा रहा और इस नई अनुभूति का आनंद लेता रहा। फिर उस ठंडी रात में सिर में गर्माहट लिए मैं सो गया।

आप अनुमान लगा सकते हैं कि मेरी यह हिमाकत मेरे लिए कितनी महंगी पड़ी। जब किस्मत ही खराब हो तो आप क्या कर सकते हैं। साधारणतया गहन निद्रा में सोनेवाली पत्नी को उस दिन आधी रात में उठना ही था। वह इतनी जोर से चिल्लाई थी कि मेरे बाएँ कान में गूँज अभी तक बाकी है। पड़ोसी तक आ गए थे।

वो दिन है और आज का दिन है, मैं अपनी टोपी पहनने की इच्छा को दबाये जिए जा रहा हूँ। काश मैं विलायत में पैदा होता। वे लोग टोपी के माहात्म्य से अच्छी तरह परिचित हैं। सोने के लिए ऊनी तिकोनी टोपी से लेकर नहाने के लिए बेदिंग कैप तक, प्रत्येक अवसर के लिए टोपियाँ निर्धारित हैं। और हमारे यहाँ! हमारे यहाँ कलियुग इतना घोर हो गया है कि टोपी पहनना और टोपी पहनाना, इनका अर्थ ही बदल गया है।





मथुरा कलौनी

Posted in . Bookmark the permalink. RSS feed for this post.

One Response to मथुरा कलौनी का व्यंग्य - टोपी

  1. मेरे शिक्षकगण मेरी टोपी को देख कर ऐसा मुँह बनाते थे जैसे अम्ल की खट्टी डकार आई हो।
    kya baat hai, is vyang ka rang to bahut chokha raha ,ghar ki murgi dal brabar ,hamari sanskriti bahar jyada sarahniye hai ,aapki aabhari hoon jo blog par aaye ,sabse jyada khushi hui ye dekh ki aap bhi rajasthan se jude hai ,is jagah se purana naata hai .

    ReplyDelete

आपकी अमूल्य टिप्पणियों के लिए कोटिशः धन्यवाद और आभार !
कृपया गौर फरमाइयेगा- स्पैम, (वायरस, ट्रोज़न और रद्दी साइटों इत्यादि की कड़ियों युक्त) टिप्पणियों की समस्या के कारण टिप्पणियों का मॉडरेशन ना चाहते हुवे भी लागू है, अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ पर प्रकट व प्रदर्शित होने में कुछ समय लग सकता है. कृपया अपना सहयोग बनाए रखें. धन्यवाद !
विशेष-: असभ्य भाषा व व्यक्तिगत आक्षेप करने वाली टिप्पणियाँ हटा दी जायेंगी।

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

About this blog

आखर कलश पर हिन्दी की समस्त विधाओं में रचित मौलिक तथा स्तरीय रचनाओं को स्वागत है। रचनाकार अपनी रचनाएं हिन्दी के किसी भी फोंट जैसे श्रीलिपि, कृतिदेव, देवलिस, शुषा, चाणक्य आदि में माईक्रोसोफट वर्ड अथवा पेजमेकर में टाईप कर editoraakharkalash@gmail.com पर भेज सकते है। रचनाएं अगर अप्रकाशित, मौलिक और स्तरीय होगी, तो प्राथमिकता दी जाएगी। अगर किसी अप्रत्याशित कारणवश रचनाएं एक सप्ताह तक प्रकाशित ना हो पाए अथवा किसी भी प्रकार की सूचना प्राप्त ना हो पाए तो कृपया पुनः स्मरण दिलवाने का कष्ट करें।

महत्वपूर्णः आखर कलश का प्रकाशन पूणरूप से अवैतनिक किया जाता है। आखर कलश का उद्धेश्य हिन्दी साहित्य की सेवार्थ वरिष्ठ रचनाकारों और उभरते रचनाकारों को एक ही मंच पर उपस्थित कर हिन्दी को और अधिक सशक्त बनाना है। और आखर कलश के इस पुनीत प्रयास में समस्त हिन्दी प्रेमियों, साहित्यकारों का मार्गदर्शन और सहयोग अपेक्षित है।

आखर कलश में प्रकाशित किसी भी रचनाकार की रचना व अन्य सामग्री की कॉपी करना अथवा अपने नाम से कहीं और प्रकाशित करना अवैधानिक है। अगर कोई ऐसा करता है तो उसकी जिम्मेदारी स्वयं की होगी जिसने सामग्री कॉपी की होगी। अगर आखर कलश में प्रकाशित किसी भी रचना को प्रयोग में लाना हो तो उक्त रचनाकार की सहमति आवश्यक है जिसकी रचना आखर कलश पर प्रकाशित की गई है इस संन्दर्भ में एडिटर आखर कलश से संपर्क किया जा सकता है।

अन्य किसी भी प्रकार की जानकारी एवं सुझाव हेत editoraakharkalash@gmail.com पर सम्‍पर्क करें।

Search

Swedish Greys - a WordPress theme from Nordic Themepark. Converted by LiteThemes.com.